..सुरेन्द्र बंसल का पन्ना
आपातकाल - चलते जीवन को दखल करने का दोष
26जून 1975 को देश एक काले दिन की तरह याद करता है। जब सत्ता में बैठे लोगों को जन जागरण का डर सताने लगा तो इस आपात स्थिति से निबटने के लिए रातों रात आपातकाल लगा दिया गया। मतलब सत्ता के लिए निर्मित आपात् परिस्थितियों से भयमुक्त होने के लिए लगाया गया आपातकाल । 19 महीने इस देश ने ऐसी निरंकुश व्यवस्था देखी और भोगी है जो तंत्र की सारी लोकलाज़ और मर्यादा को तोड़कर भय, दबाव,ज्यादतियों के तहत बेखबर चलती रही।
उन दिनों अपन लड़कपन में थे स्कूल से कॉलेज में प्रवेश किया ही था विज्ञान विषय था । कॉलेज के इस प्रवेशकाल में ही आपातकाल का सामना हुआ। महसूस हो रहा था सामान्य जीवन एक अनियंत्रित दाब के तले चल रहा है और जिसके पास जो कुछ पावर है उसका वह बेज़ा इस्तेमाल कर रहा है।
उस दौर में अपने साथ दो घटनाएं हुई जिसनेे अपना कॅरियर ही तबाह कर दिया। गुजराती कॉलेज में एक शिक्षिका अंग्रेजी का अध्यापन कराती थीं उनका बहुत रुतबा था। चाहें जिसको वह खड़ा कर डपट देती थी जो कार्नर पर बैठा करता उसकी तो मुसीबत ही थी कब वह सेकंड कार्नर थर्ड कार्नर से सवाल कर दे पता नहीं। आपातकाल के ही दिनों में उन्होंने पहले मित्र राकेश साहू फिर पटेल और एकाएक अपने को खड़ा करके क्लास से बाहर कर दिया फिर सस्पेंड का नोटिस भी दे दिया। अपन शुरू से स्वाभाविक सीधे सरल सच्चे और संयत रहे हैं कुछ समझ नही आया क्यों सस्पेंड किया। बहुत से प्रेक्टिकल छूट गए पर सस्पेंशन वापस नहीं हुआ बेवजह पिताजी को शर्मिंदा होना पड़ा ।अपने को आज तक नहीं पता अंग्रेज़ी की मेम ने हमें किन वजहों से मेमना बना दिया था।
दूसरी घटना भी उन दिनों कुछ इस तरह से हुई कॉलेज के गेट पर हम तीन दोस्तों का आमना सामना हुआ हाथ मिलाया ही था कि एक एस आई बाइक पर आ धमके और मित्र ब्रह्मप्रकाश दीक्षित प्रदीप टोंग्या सहितबिलावजह हमें रिक्शे में बैठाकर छावनी थाने ले आये ।जाहिर है थाने जाना याने अपनी बेइज़्ज़ती कराना है सो न होकर भी हमे अपराधबोध सताने लगा वह तो भला हो थाने के टी आई सा का उनने देखते ही छोड़ दिया। लेकिन आपातकाल के उस दौर में इन दो घटनाओं का जीवन पर बुरा प्रभाव पड़ा । कॉलेज जाना कम हो गया तो क्लास अटेंड नहीं करना पढ़ाई के प्रति गंभीरता भी खत्म मानों जीवन को सही राह से भटक सा दिया। किशोरावस्था में ऐसी घटनाएं बहुत मायने रखती है। मै आज भी स्वयं को आपातकाल का शिकार मानता हूँ और इसी से यह समझ सकता हूँ कि निरंकुश व्यवस्था के उस दौर में कितने निर्दोष शिकार हुए होंगें।
बाद में जब मैं पत्रकारिता में सक्रिय हुआ तो यह जानकार विनम्र दुःख हुआ कि अंग्रेज़ी की अध्यापिका मेम उन श्रद्धेय संपादक की पत्नी थी जिन्होंने आपातकाल के विरोध में अपने अखबार का संपादकीय पृष्ठ को खाली और काला छोड़ दिया था।
आपातकाल की यह टिस आज भी कायम है आखिर चलते जीवन को दखल करने का दोष आपातकाल पर ही है।
सुरेन्द्र बंसल
12.20 26.6.15
आपातकाल - चलते जीवन को दखल करने का दोष
26जून 1975 को देश एक काले दिन की तरह याद करता है। जब सत्ता में बैठे लोगों को जन जागरण का डर सताने लगा तो इस आपात स्थिति से निबटने के लिए रातों रात आपातकाल लगा दिया गया। मतलब सत्ता के लिए निर्मित आपात् परिस्थितियों से भयमुक्त होने के लिए लगाया गया आपातकाल । 19 महीने इस देश ने ऐसी निरंकुश व्यवस्था देखी और भोगी है जो तंत्र की सारी लोकलाज़ और मर्यादा को तोड़कर भय, दबाव,ज्यादतियों के तहत बेखबर चलती रही।
उन दिनों अपन लड़कपन में थे स्कूल से कॉलेज में प्रवेश किया ही था विज्ञान विषय था । कॉलेज के इस प्रवेशकाल में ही आपातकाल का सामना हुआ। महसूस हो रहा था सामान्य जीवन एक अनियंत्रित दाब के तले चल रहा है और जिसके पास जो कुछ पावर है उसका वह बेज़ा इस्तेमाल कर रहा है।
उस दौर में अपने साथ दो घटनाएं हुई जिसनेे अपना कॅरियर ही तबाह कर दिया। गुजराती कॉलेज में एक शिक्षिका अंग्रेजी का अध्यापन कराती थीं उनका बहुत रुतबा था। चाहें जिसको वह खड़ा कर डपट देती थी जो कार्नर पर बैठा करता उसकी तो मुसीबत ही थी कब वह सेकंड कार्नर थर्ड कार्नर से सवाल कर दे पता नहीं। आपातकाल के ही दिनों में उन्होंने पहले मित्र राकेश साहू फिर पटेल और एकाएक अपने को खड़ा करके क्लास से बाहर कर दिया फिर सस्पेंड का नोटिस भी दे दिया। अपन शुरू से स्वाभाविक सीधे सरल सच्चे और संयत रहे हैं कुछ समझ नही आया क्यों सस्पेंड किया। बहुत से प्रेक्टिकल छूट गए पर सस्पेंशन वापस नहीं हुआ बेवजह पिताजी को शर्मिंदा होना पड़ा ।अपने को आज तक नहीं पता अंग्रेज़ी की मेम ने हमें किन वजहों से मेमना बना दिया था।
दूसरी घटना भी उन दिनों कुछ इस तरह से हुई कॉलेज के गेट पर हम तीन दोस्तों का आमना सामना हुआ हाथ मिलाया ही था कि एक एस आई बाइक पर आ धमके और मित्र ब्रह्मप्रकाश दीक्षित प्रदीप टोंग्या सहितबिलावजह हमें रिक्शे में बैठाकर छावनी थाने ले आये ।जाहिर है थाने जाना याने अपनी बेइज़्ज़ती कराना है सो न होकर भी हमे अपराधबोध सताने लगा वह तो भला हो थाने के टी आई सा का उनने देखते ही छोड़ दिया। लेकिन आपातकाल के उस दौर में इन दो घटनाओं का जीवन पर बुरा प्रभाव पड़ा । कॉलेज जाना कम हो गया तो क्लास अटेंड नहीं करना पढ़ाई के प्रति गंभीरता भी खत्म मानों जीवन को सही राह से भटक सा दिया। किशोरावस्था में ऐसी घटनाएं बहुत मायने रखती है। मै आज भी स्वयं को आपातकाल का शिकार मानता हूँ और इसी से यह समझ सकता हूँ कि निरंकुश व्यवस्था के उस दौर में कितने निर्दोष शिकार हुए होंगें।
बाद में जब मैं पत्रकारिता में सक्रिय हुआ तो यह जानकार विनम्र दुःख हुआ कि अंग्रेज़ी की अध्यापिका मेम उन श्रद्धेय संपादक की पत्नी थी जिन्होंने आपातकाल के विरोध में अपने अखबार का संपादकीय पृष्ठ को खाली और काला छोड़ दिया था।
आपातकाल की यह टिस आज भी कायम है आखिर चलते जीवन को दखल करने का दोष आपातकाल पर ही है।
सुरेन्द्र बंसल
12.20 26.6.15
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thanks for coming on my blog