अंदाज़ अपना............सुरेन्द्र बंसल
एक दिन तो गुजारिये झुग्गी में
बहुत अज़ीब बात हैं न ....मैं खुद कभी किसी झुग्गी में नहीं गया आपसे कह रहा हूँ एक दिन तो गुजारिये । रात भर की बारिश में यह चिंता सताती रही नए बने पक्के मकान में कहीं से पानी तो नहीं टपक रहा है, रात तीन बजे पूरे घर में घूमा व्यवस्था की ।सुबह ही कलेक्टर साब नरहरि जी को मैसेज कर दिया......
सुप्रभात
सर झुग्गी में सड़क किनारे नाले पर रहने वालों का ख्याल रखियेगा बारिश में.....
मानवीय संवेदना की अनुभूति लिए कलेक्टर साब ने तुरतफुरत जवाब दिया श्योर (जरूर).......
दरअसल हम अपने लिए कितनी चिंता करते हैं व्यर्थ तो नहीं करते लेकिन छोटी छोटी मुसीबतों से घबरा जाते हैं। स्वयं के लिए व्यवस्था के लिए जुट जाते हैं ।कैसी संचेतना और स्फूर्ति होती है उस समय । यह संचेतना चिंता की तात्कालिक उपज होती है और उस चिंता को दूर करने का प्रयास हमारे इर्दगिर्द होता है। लेकिन चिंता के साथ एक चिंतन भी जरुरी है । विचार कीजिये ऐसे हज़ारों लोग हैं जो टाट के पैबंद लगे फटी सड़ी पन्नियों के भीतर गुज़रबसर इस अहसास से कर रहे हैं क़ि उनका भी अपना घर है । बस यही अहसास उन्हें शाम को अपने घर ले आता है जिसे हम झुग्गी कहते हैं। गर्मी में लू के थपेड़े जिस घर में बेधड़क आते हों, ठण्ड में सिरहा देने वाली सरसराती लहर कंपकपा देती हो और बारिश में भीग जाने डूब जाने की बात आम हो फिर भी वह घर हो चिंतन करके देखिये कितने पल हम इस घर में रह सकते हैं ,पर इन भारी भरकम चिंताओं से बेखबर ये वे लोग है जो सिर्फ अपनी रोटी की जुगाड़ के लिए मुस्कुराते हुए झुग्गी घर से बाहर आते हैं और हमारा बोझ उठाते हैं, हमारे आशियाने बनाते हैं ,हमारे लिए सब्जी फल लाते हैं ,हमारे घरों दफ्तरों की सफाई करते हैं ,अपने बच्चों को लावारिस सड़क पर छोड़ कर हमारे बच्चों को सँभालते हैं याने हमारे सर्वसुख के लिए अपना सब त्याग कर जब वे वापस घर लौटते है तो घर में आटा गिला मिलता है गुदड़ी गीली मिलती है लकड़ी भीगी मिलती है । उन्हें भूखा रहकर भी सोने की जगह तब नहीं होती और इसी ऊहापोह सी जिंदगी में सबेरा हो जाता है इसे कौन सबेरा कहेगा शायद सबेरा भी उनकी नसीब में नहीं होता । और हम चौखट पर खड़े इंतज़ार में लालपिले हो रहे होते हैं
आप एक दिन गुजरात में गुज़ारें या मप्र में किसी मोहक सरकारी विज्ञापन को देखकर पैसा लगेगा मज़ा हिलोरे लेगा लेकिन जिंदगी का अनुभव नहीं आएगा। एक दिन गुजारिये किसी झुग्गी में और अपनी मानवीय संवेदनाओं को जगाकर देखिये आपकी खुशियों के व्यवस्थापक कितनी अव्यवस्थित जिंदगी बसर कर रहे हैं , हो सके तो इस गीले मौसम में उनके लिए सूखी बिछात या छप्पर ले आइये ।
- सुरेन्द्र बंसल
12.36 19.7.2015
सुप्रभात
सर झुग्गी में सड़क किनारे नाले पर रहने वालों का ख्याल रखियेगा बारिश में.....
मानवीय संवेदना की अनुभूति लिए कलेक्टर साब ने तुरतफुरत जवाब दिया श्योर (जरूर).......
दरअसल हम अपने लिए कितनी चिंता करते हैं व्यर्थ तो नहीं करते लेकिन छोटी छोटी मुसीबतों से घबरा जाते हैं। स्वयं के लिए व्यवस्था के लिए जुट जाते हैं ।कैसी संचेतना और स्फूर्ति होती है उस समय । यह संचेतना चिंता की तात्कालिक उपज होती है और उस चिंता को दूर करने का प्रयास हमारे इर्दगिर्द होता है। लेकिन चिंता के साथ एक चिंतन भी जरुरी है । विचार कीजिये ऐसे हज़ारों लोग हैं जो टाट के पैबंद लगे फटी सड़ी पन्नियों के भीतर गुज़रबसर इस अहसास से कर रहे हैं क़ि उनका भी अपना घर है । बस यही अहसास उन्हें शाम को अपने घर ले आता है जिसे हम झुग्गी कहते हैं। गर्मी में लू के थपेड़े जिस घर में बेधड़क आते हों, ठण्ड में सिरहा देने वाली सरसराती लहर कंपकपा देती हो और बारिश में भीग जाने डूब जाने की बात आम हो फिर भी वह घर हो चिंतन करके देखिये कितने पल हम इस घर में रह सकते हैं ,पर इन भारी भरकम चिंताओं से बेखबर ये वे लोग है जो सिर्फ अपनी रोटी की जुगाड़ के लिए मुस्कुराते हुए झुग्गी घर से बाहर आते हैं और हमारा बोझ उठाते हैं, हमारे आशियाने बनाते हैं ,हमारे लिए सब्जी फल लाते हैं ,हमारे घरों दफ्तरों की सफाई करते हैं ,अपने बच्चों को लावारिस सड़क पर छोड़ कर हमारे बच्चों को सँभालते हैं याने हमारे सर्वसुख के लिए अपना सब त्याग कर जब वे वापस घर लौटते है तो घर में आटा गिला मिलता है गुदड़ी गीली मिलती है लकड़ी भीगी मिलती है । उन्हें भूखा रहकर भी सोने की जगह तब नहीं होती और इसी ऊहापोह सी जिंदगी में सबेरा हो जाता है इसे कौन सबेरा कहेगा शायद सबेरा भी उनकी नसीब में नहीं होता । और हम चौखट पर खड़े इंतज़ार में लालपिले हो रहे होते हैं
आप एक दिन गुजरात में गुज़ारें या मप्र में किसी मोहक सरकारी विज्ञापन को देखकर पैसा लगेगा मज़ा हिलोरे लेगा लेकिन जिंदगी का अनुभव नहीं आएगा। एक दिन गुजारिये किसी झुग्गी में और अपनी मानवीय संवेदनाओं को जगाकर देखिये आपकी खुशियों के व्यवस्थापक कितनी अव्यवस्थित जिंदगी बसर कर रहे हैं , हो सके तो इस गीले मौसम में उनके लिए सूखी बिछात या छप्पर ले आइये ।
- सुरेन्द्र बंसल
12.36 19.7.2015
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thanks for coming on my blog