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Tuesday, October 30, 2012

100 करोड़; हैरत की अजीब डील



दो की बदनामी में एक बात तय है कि डील 100 करोड़ की हो रही थी और वह भी बचने या बचाने जैसे बद  काम के लिए .अपना मिशन स्वरूपी मीडिया इसमें है इसलिए दर्द अपने को भी है .क्यों ,मीडिया खरीदी के धंधे में व्यस्त हो रहा है . सच और झूठ  क्या है अब इसके ज्यादा मायने नहीं है . जिस चैनल ने 100 करोड़ मांगें या जिस चैनल को 100 करोड़ की पेशकश की गई दोनों में पैसा गलत रास्ते का था और गलत काम के लिए था यह पत्रकारिता का मिशन नहीं है यह धंधेबाजों का धंधा है और इस धंधे में दो बड़े ग्रुप सामने आयें हैं दोनों की राह गलत है और दोनों का कृत्य गलत है .

पहले बात अपने लोग याने मीडिया की . बीते चुनाव से जो चल पडा है उसे पेड न्यूज़ कहा जा रहा है याने खबर की एवज में पैसा बनाना नाम विज्ञापन का और खजाना काले कामों का . पेड़ न्यूज़ के बढ़ते चलन ने पाठकों के विश्वास को रौंधकर पैसों के पेड़ लगाना शुरू किया है .बड़े मीडिया घराने इस धंधे में लिप्त रहे हैं कुछ हद तक चुनावी सर्वे के चलन ने इसे शुरू किया है , सर्वे के बहाने झूठे - सच्चे आंकड़ों से घट और बढत का जो खेल शुरू हुआ था बाद में वही पेड़ न्यूज़ में तब्दील हुआ और अब उसे बिजनेस डील  की तरह लिया जा रहा है सीधे सौदे हो रहे हैं यह पत्रकारिता का कालिख चेहरा है और सीधे सीधे पत्रकारिता की जड़ों को कमज़ोर करने का काम है . जो लोग इसमें लिप्त हैं लगता है उन्हें पत्रकारिता संस्कार में नहीं मिली है वे फिजूल में थोपे गए ऐसे लोग हैं जो सिर्फ धंधा व्यापार करने की नियत से पत्रकारिता में आयें हैं . बात बहुत गहन है और इस पर चिन्तन -विचार की  बहुत ईमानदारी से जरुरत है . बीते चुनाव में पेड़ न्यूज़ का धंधा खुले आम चला था पत्रकारिता तब भी बदनाम हुई थी ,खराब नीयत के लोगों ने खबर के लिए खुलकर सौदे किये थे अब जो हो रहा है उससे हैरत हो रही है .

क्या 100 करोड़ की डील खबर रोकने के लिए हो सकती है , आकडे तो इतने ही आये है और ये पुष्ट आंकडें है इसलिए की दोनों पक्षों ने यह तो पुष्टि की है कि  100 करोड़ मांगें गए थे या 100 करोड़ पेशकश  किये गए थे . इसलिए बहरहाल जब हम मीडिया की जवाबदारी और कृत्य की बात कर रहे हैं तो हमें पहला सवाल यही समझ लेना चाहिए कि आखिर इस अनैतिक और बेईमान काम की ओर आप अग्रसर ही क्यों हुए ? जब 25 करोड़ पेश किये गए तब भी वह खबर थी फिर उसे बढ़ाकर  100 करोड़ तक की बात करने जाना वह भी आपने दो वरिष्ठ संपादकों के साथ आखिर खराब नीयत तो दर्शाता ही है . जिस आरोपित व्यक्ति पर आप  खबर बना रहे है वही मीडिया की तरह काम करके आपको कटघरे में खड़ा कर दे, आपका स्टिंग कर दे तो समझ लीजिये आपकी नाक , कान और आँख जो मीडिया की पहली जरुरत है वह बंद है काम नहीं कर रही है , याने आप पत्रकारिता करना ही नहीं जानते बस धंधा कर रहे हैं . यह बचाने और एवज में भुनाने का खेल है .

लेकिन जो बचने के लिए पेशकस कर रहे थे चाहे 25 करोड़ या 100 करोड़ वे भी कुछ गलत और अनैतिक ही कर रहे थे उनकी बात मनमाफिक बन जाती तो शायद इस कलि खबर का बाहर आना मुश्कील था ,जाहिर है जो व्यक्ती खबर दबाने के लिए पासों की पेशकश करता है वह काले धंधों में लिप्त होता है और अपने को छुपाने और बचाने के लिए इस तरह से इन्वेस्ट करता है .तब उसकी केलकुलेशन उससे रिटर्न  मिलने की होती है .इस मामले में रिटर्न का फिगर  उन्हें नुकसान दिखा रहा था तो उनने इसे जाहिर कर दिया यह भी बदनीयती है और यह जतलाती है कि कहीं न कहीं गड़बड़ है .

जाहिर है एक पक्ष  ने बचाने का खेल किया तो दूसरे ने बचने का खेल किया और इस खेल में लड़ लिए तो बेईमानी के आरोप एक दूसरे पर लगा दिए .नुक्सान पत्रकारिता की विश्वसनीयता क हुआ है ,विश्वास का हुआ है उसके मिशन का हुआ है यह हैरत करने वाला भी है और अजीब भी .

Saturday, October 20, 2012

भय अरविंदम !

भय  अरविंदम !
अरविन्द केजरीवाल जो कुछ कह रहे हैं ,कर रहे हैं वह कितना सही ,कितना गलत , कितना तथ्यात्मक है और उसके कितने मायने हैं इससे ज्यादा महत्वपूर्ण  यह है कि  अपनी सरकारी नौकरी छोड़कर आया एक बेहद साधारण सा आम आदमी  भारतीय राजनीति के धुँरधरों की नाक में दम किये हुए है . सबसे बड़े राजनैतिक दल कांग्रेस की हालत सबसे ज्यादा खराब है जहाँ उसके सभी बड़े खिलाडी अरविन्द केजरीवाल से निबटने के लिए लगे हुए हैं . वहीँ बीजेपी भी अब केजरीवाल का सामना करने में लगी है  जबकि बहुतेरे   राजनातिक दल या तो केजरीवाल के पक्ष में है या विपक्ष में लेकिन  लेकिन राजनीती के इस विशाल मैदान के हर भाग में आज जहाँ देखो वहां केजरीवाल ही केजरीवाल है .

अरविन्द केजरीवालके पास इन दिनों ऐसे कागजातों की भीड़ है जिसमे अनेक घोटालों का पर्दाफाश है या गड़बड़ियां हैं या खराब नियत से किये ऐसे काम हैं जिससे देश का नुकसान हुआ है . लोग अरविन्द के दफ्तर आकर खुद बता रहे हैं कहाँ ,कब और कैसे किसने कितनी गड़बड़ ,लफड़ा किया है किसने कैसे मामूली निम्न मध्यम वर्ग से वाले- वाले उच्च वर्ग में स्थान पा  लिया ,ये अचानक ऊंची छलांग लगाने वाले लोग कौन है . इन बातों से सबसे ज्यादा राजनीति आहात हुई है . क्यों ? बात समूची राजनीति  की कहीं नहीं है उस राजनैतिक व्यक्ति की है जिसने अपने पद पर रहते हुए या अपने प्रभाव से वह गैर कर्म किया है जिससे राष्ट्र  और राष्ट् के लोगों का  नुकसान हो रहा है .कह सकते कि  जोश के अतिरेक में अरविन्द से किसी तरह की चुक भी हो रही हो .यह समझना जरुरी है कि  बहाव में बहुत सी चीज़ें ऐसी भी बह जाती है जो जिनका किनारे पर रहना जरुरी है.अरविन्द की टीम सतर्क हो जब तक ऐसा हो जाए यह मुमकिन है , इसलिए इस जोश में कुछ तथ्य बिगड़ सकते हैं, कुछ सही -गलत ,बेमायने  की बातें भी हो सकती है यह चलता रहेगा लेकिन मूल यह है कि  अरविन्द केजरीवाल और उनके संगी साथी आज राजनीति  को हिलोरें दे रहे हैं और हर कोई इससे आहत नज़र आ रहा है .

अरविन्द केजरीवाल ने जब अन्ना  टीम से बाहर आकर राजनीति करने की बात की थी तब उनकी बहुत आलोचना हुई , हालांकि संसद के भीतर से ही तब अन्ना टीम को यह चुनौती राजनैतिक लोगों ने ही दी थी कि वे राजनीति आयें और संसद में बैठकर संवैधानिक बात  करें अब जब अरविन्द केजरीवाल ने राजनीति  के चुनौती पूर्ण विशाल मैदान में घुसने का मन बनाया और आगे बढ़े तो इन्हीं राजनैतिक दलों को पेट का दर्द शुरू हो गया . अरविन्द की ख़ास बात यह है कि वे बेबाक और निर्भयता से अपनी बात रखते हैं .यही वजह है कि कई लोग न केवल उनके दुश्मन हो जाते हैं बल्कि दुश्मनी भी शुरू कर देते है . दिग्विजय सिंह का पहले पत्र फिर 27 सवाल , सलमान खुर्शीद की धौंस डपट , और तीखे लहजे , बीजेपी नेताओं की खुननस ये सब अरविन्द को राजनीति में ख़ास बना देती है .

अरविन्द केजरीवाल  राजनीति के धुरंधर नहीं हैं वाकई वे  बिगड़ी व्यवस्था से रुष्ट ,खिन्न और क्रोधित एक आम आदमी हैं लेकिन इसी बिगड़ी व्यवस्था का नाम ही राजनीति है और इसी राजनीति  ने उन्हें आम से ख़ास बना दिया है उन्होंने यह दिखा दिया है कि  एक आम आदमी जब राजनीति में  आ जाता है तो वह  कितना भय उत्पन्न कर सकता है . अभी राजनीति  में "भय अरविंदम" चल रहा है यह भय हर किसी राजनैतिक दल को सता रहा है आप देखिये हर खबर में ,और हर चैनल में ,हर चर्चा में , राजनैतिक लोग ,उनके राजनैतिक दल अरविन्द केजरीवाल से लड़ते , उन पर आरोप लगाते और उन्हें कोसते नज़र आ जायेंगें यही है " भय अरविंदम " !
सुरेन्द्र बंसल 

Sunday, October 14, 2012

उन्हें लज्जा क्यों नहीं आती



घोटालों और घपलों की रोज़ रोज़ ख़बरों से अब उकताहट होने लगी है .हफ्ते में ऐसी दो बड़ी ख़बरें निराश करती है यह सोचकर की कहीं लज्जा है ही  नहीं। आरोप हमेशा की तरह आयेंगें और आरोपी नहीं आरोप लगाने वालो को गालियाँ मिलेगी यह एक ट्रेंड की तरह चलता रहेगा , टीवी चैनल एक मसाले की तरह इसे चलाते रहेंगें अखबारों के पाने भी इसी तरह भरे जायेंगें। आखिर हज़ारो करोड़ के घोटाले और घपलों के कोई मायने है कि नहीं .  .

अरविन्द केजरीवाल अब जब राजनीति में आकर उन मसलों को उठा रहे हैं तो उसका स्वस्थ प्रतिकार करने से ज्यादा राजनैतिक लोग उनसे लड़ाई पर आमादा नज़र आ रहे हैं .यह कैसा लोकतंत्र है और कैसी व्यवस्था है  केजरीवाल सही हैं या गलत लेकिन जो  मामले वे सामने ला रहे हैं उसके कुछ निहित अर्थ तो होंगें , इस पर भी यदि कुछ अनर्थ है तो वह तार्किक दृष्टि से ही कटा जाना चाहिए .महालेखा परीक्षक की रपट को गलत करार देने से कोई आरोप मितथ्या  नहीं हो जाते  ऐसे आरोपों पर तथ्यों ओर प्रमाणों  से काट की जाना चाहिए, लेकिन समय बहुत नाज़ुक चल रहा है और राजनीति दुश्मनी तब्दील होती दिख  है .

दुश्मनी में राजनैतिक दुश्मनी भी एक प्रकार है इसे राजनीति से ही निबटा जाता है ज्यादातर राजनैतिक दुश्मनी दिखने की होती है अन्दर से दोस्त और घालमेल के पार्टनर होते हैं .ऐसा अब सामने भी आ रहा है . भिन्न भिन्न राजनेता भिन्न भिन्न विचार से आकर पेशेगत राजनीति  के मित्र हो गए हैं और मिलकर काम निबटा रहे हैं .राजनीति  में आज नीचे से ऊपर तक भ्रष्टता का आलम है . 2012 में आये अब तक के सभी घोटालों की  रकम हजारो करोड़ की है जिनमे लगभग हर घोटाले में राजनैतिक संलिप्तता प्रत्यक्ष जाहिर हो रही है जाहिर है राजनीति  में इस आरोप और फ़सने फ़साने के खेल से दुश्मनी बढ़ भी रही है और कहीं दोस्ती निभाई भी जा रही है .लेकिन इस समय इने राजनातिक पार्टी को  की घोषणा करने वाले अरविन्द केजरीवाल बहुतों के सबसे रजनैतिक दुश्मन हो गए है रॉबर्ट वाड्रा  के बाद सलमान खुर्शीद से दुश्मनी लेकर केजरीवाल अब राजनीति  का सबसे बड़ा निशाना है . राजनैतिक पार्टियाँ उन्हें राजनेतिक मानने को तैयार नहीं है ज्यादातर को लगता है वे राजनीति  में नासूर है जो लग गया तो जायेगा नहीं खा जायेगा . बीजेपी उनके साथ नहीं है लेकिन उन मामलों पर  बीजेपी ही ज्यादा प्रखर विरोध कर रही है .केजरीवाल उन्हें भी नहीं छोड़ रहे हैं इसलिए कि जनलोकपाल  पर बीजेपी ने   संसद में दोहरी नीति अपनाई थी . 

सवाल दुश्मनी का नहीं लज्जा का है . राजनैतिक दुश्मनी लोकतंत्र को मज़बूत करती है यह स्वस्थ ढंग से  रहे .लेकिन उन मुद्दों   को अनदेखा  नहीं किया जाना चाहिए जो आपके विश्वास को,विचार को और पहचान को तोड़ते हों .   अभी यही हो रहा है लगभग हर राजनैतिक दल अपना विचार और विश्वास खोते जा रही है रजिस्टर्ड राजनैतिक दलों की संख्या  बहुतेरी है लेकिन देश के  लूटे जाने के मुददे पर सब एक मत नहीं है और न ईमान से विरोध कर रहे है सब  अपने को बचा  कर राजनीति कर रहे है यह लज्ज़ाजनक है और अस्तित्व को नकार रहे हैं .आखिर कहाँ खड़े ये लोग हैं, इन्हें क्यों लज्जा नहीं आती .
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JADU 
-- 2012
महाराष्ट्र सिंचाई घोटाले - हानि के बारे में 72,000 करोड़ रुपये (13.61 अरब डॉलर) के. [17] वर्तमान में मामला / भारत की खुफिया एजेंसियों की जांच की जांच के दायरे में है.
काइनेटिक फाइनेंस लिमिटेड घोटाले - बैंकों के बारे में 200 करोड़ रुपए (37.8 लाख डॉलर) को खो दिया. [18] वर्तमान में मामला / भारत की खुफिया एजेंसियों की जांच की जांच के दायरे में है.
अल्ट्रा मेगा पावर परियोजनाओं घोटाले - केंद्र सरकार 29,033 करोड़ खो दिया (5.49 अरब डॉलर) के कारण अनुचित अनिल अंबानी के नेतृत्व वाली रिलायंस पावर के पक्ष में [1] [19].
इंदिरा गांधी अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे के घोटाले - केंद्र सरकार जीएमआर के नेतृत्व वाली डायल करने के लिए अनुचित पक्ष में 166,972.35 करोड़ रुपये (31.56 अरब डॉलर) को खो दिया. डायल (दिल्ली इंटरनेशनल एयरपोर्ट लिमिटेड) जीएमआर समूह (50.1%), फ्रापोर्ट एजी (10%), मलेशिया (10%) हवाई अड्डों, भारत विकास कोष (3.9%), और भारतीय विमानपत्तन प्राधिकरण (26% के एक संघ है ) [20]. [21]
आंध्र प्रदेश भूमि घोटाले - 1,00,000 (18.9 अरब डॉलर) करोड़ [22]
विदेशी मुद्रा derivates घोटाला 32,000 करोड़ रुपये (6.05 अरब डॉलर) [23] [24]
तमिलनाडु में ग्रेनाइट घोटाले - [25]
सर्विस टैक्स और सेंट्रल एक्साइज ड्यूटी धोखाधड़ी - १९,१५९ करोड़ रुपये (3.62 अरब डॉलर) करोड़) [26] [27]
गुजरात पीएसयू वित्तीय अनियमितताओं - 17,000 करोड़ रुपये (3.21 अरब डॉलर) [28] [29]
महाराष्ट्र स्टाम्प ड्यूटी घोटाले - 640 (120.96 मिलियन अमेरिकी डॉलर) करोड़ [30] [31]
महाराष्ट्र भूमि घोटाले [32] [33] [34] [35] [36] [37] [38]
एमएचएडीए मरम्मत घोटाले - 100 (18.9 लाख अमेरिकी डॉलर) करोड़ [39]
राजमार्ग घोटाला - 70 करोड़ (13.23 लाख डॉलर) [40] [41] [42]
विदेश उपहार घोटाले [43] के मंत्रालय [44] [45]
हिमाचल प्रदेश पल्स घोटाले [46] [47]
फ्लाइंग क्लब धोखाधड़ी - 190 (35.91 मिलियन अमरीकी डॉलर) करोड़ [48]
आंध्र प्रदेश के शराब घोटाले [49] [50]
जम्मू और कश्मीर क्रिकेट संघ के घोटाले - लगभग 50 करोड़ रुपए (9.45 लाख अमेरिकी डॉलर) [51] [52]
जम्मू और कश्मीर पीएचई घोटाले [53]
जम्मू और कश्मीर भर्ती [54] घोटाला
जम्मू और कश्मीर examgate [55] [56]
जम्मू और कश्मीर दंत [57] घोटाला
पंजाब धान घोटाला - 18 करोड़ रुपए (3.4 मिलियन डॉलर) [58] [59]
एनएचपीसी सीमेंट घोटाले [60]
हरियाणा वन घोटाले [61] [62] [63] [64] [65] [66] [67] [68] [69] [70]
(पुणे) Girivan भूमि घोटाले [71] (पुणे जमीन घोटाला है जो 2011 के दौरान प्रकाश में आया के साथ भ्रमित होने की नहीं)
शौचालय घोटाला [73] [72]
उत्तर प्रदेश स्टाम्प ड्यूटी घोटाले - 1200 (226.8 मिलियन अमेरिकी डॉलर) करोड़ [74]
उत्तर प्रदेश बागवानी घोटाले - 70 (13.23 मिलियन अमरीकी डॉलर) करोड़ [75]
उत्तर प्रदेश हथेली वृक्षारोपण घोटाला - 55 करोड़ रुपए (10.4 लाख डॉलर) [76] [77] [78]
उत्तर प्रदेश बीज घोटाला - 50 करोड़ रुपए (9.45 लाख डॉलर) [79] [80]
उत्तर प्रदेश हाथी प्रतिमा घोटाले [81] [82] [83] [84] [85]
पटियाला भूमि घोटाले - 250 करोड़ (47.25 लाख डॉलर) [86] [87] [88] [89]
कर वापसी घोटाले - 3 करोड़ रुपए (567,000 डॉलर) [90] [91]
बेंगलुरु मेयर निधि घोटाले [91]
रांची अचल संपत्ति [92] घोटाला
दिल्ली सर्जिकल दस्ताने खरीद [93] घोटाला
Aadhar घोटाले [94] [95] [97] [96]
बीईएमएल हाउसिंग सोसाइटी घोटाले [98] [99] [100]
एमएसटीसी सोने निर्यात घोटाले - 464 (87.7 लाख अमेरिकी डॉलर) करोड़ [101]
टिन घोटाले [102] [103]
Nayagaon   (पंजाब) भूमि घोटाले [104]

Saturday, October 6, 2012

घोटालों से बड़े घालमेल ..

घोटालों  से बड़े  घालमेल ..
सुरेन्द्र बंसल 
रॉबर्ट वाड्रा  सोनिया गांघी के दामाद न होते तो शायद इतना शोर न होता . वाड्रा की कुछ सालों में बनी अथाह सम्पति कोई घोटालों से बनी नहीं दिखती है और घोटालें हों भी कैसे जब सरकार की कोई एजेंसी शामिल न हों फिर वाड्रा ने क्या अपराध किया है . कोई व्यापार के लिए ब्याज मुक्त पैसा दे तो किसे बुरा लगता है , कम्पनी चलाने वाले जानते हैं दायित्वों की जितनी कमी होगी कम्पनी को उतना ही मुनाफा होगा , इसमें वाड्रा सफल रहे और उनने एन केन प्रकारेण इन परिस्थितियों का फायदा उठा लिया जो उन्हें तात्कालिक मिल रही थी ,समझदार बिजनेसमेन ऐसे अवसर कभी नहीं छोड़ते, यह जरुर वाड्रा को ज्यादा और बड़े अवसर मिले जो उन्हें चंद सालों में उंचाई पर ले गए .

अरविन्द केजरीवाल ने इसे राजनैतिक मुद्दा बनाया है अगर यह भ्रष्टाचार का मुद्दा होता तो वे यह भी बतलाते कि रॉबर्ट वाड्रा को फायदा देने वाली डीएलऍफ़ को कितना फायदा हुआ है. दरअसल यह अधपका मुद्दा है जब तक किसी गड़बड़ी को आप जाहिर नहीं कर सकते तब तक कोई इलज़ाम नहीं बनता है .डीएलऍफ़ को कितना फायदा इसके एवज में हुआ तथ्य ये बाहर आने चाहिए थे लेकिन जल्दबाजी में केजरीवाल  की टीम  वाड्रा तक सीमित रह गई , शायद यह सोच कर कि यह सोनिया गाँधी के परिवार  से जुड़ा मामला है इससे अच्छा धमाका होगा , उन्हें मीडिया में धमाकेदार जगह भी मिल गयी लेकिन जो लोग उसूलों से चलते हैं उन्हें मान से और मर्यादित भाव से संयमित आचरण दिखाना चाहिए . यह इसलिए कि इससे उनके विश्वास का निर्माण होता है . केजरीवाल तैश में बोलते हैं फिर भी उनके आचरण ने अब तक उनके प्रति विश्वास का निर्माण किया है राजनीति में आकर उन्हें यह विश्वास नहीं खोना चाहिए . दरअसल जिस पूंजी पर खड़े होकर केजरीवाल राजनीति में आयें हैं वह नैतिक विश्वास की पूंजी और उससे निर्मित वह धरातल है  जिस पर खड़े होकर वे देश को नई राजनैतिक दिशा देने की तैयारी कर रहे हैं.

घोटालों  और घालमेल में बहुत बड़ा अंतर है . सब मान रहे हैं यह घोटाला नहीं है क्योंकि इसमे सरकार की कोई एजेंसी शामिल नहीं है लेकिन जब यह माना जाता है कि अप्रत्यक्ष रूप से इसमे सरकारी एजेंसी , सरकार या सरकार के नुमाईन्दे शामिल हो सकते है तो इसे घालमेल माना जाता है ,लोग इसी बदबू को सूंघने में लगे हैं मान रहे हैं इसके बदले में डीएलएफ को अप्रत्यक्ष मुनाफा पहुंचाया गया होगा  यह शक इसलिए जाहिर हो रहा है कि  मामला सोनिया गाँधी के दामाद रॉबर्ट वाड्रा से जुडी कंपनियों के हैं . लेकिन बात घालमेल की  है तो मान लीजिये ये घालमेल हर सरकार और कंपनियों के बीच बरसों से चल रहे है और बड़े स्तर पर चल रहे हैं .

राजनीति के बड़े पेटू पेट के भीतर और उसकी भूख आज पैसा ही है. चंदे से करोड़ों उपजा लेने वाली हर नामी गिरामी राजनैतिक पार्टी  के साथ नामीगिरामी कंपनियों का दिया चंदा जुडा है . कोयला घोटाले से कितने काले चेहरे सामने आये हों लेकिन कंपनियों के चंदे से काली हुई राजनैतिक पार्टिया आज देश में और हर राज्य में  राज़ कर रही है . कोई सोच सकता है राजनैतिक दलों को मिला ये चंदा सिर्फ एक सहयोग या समर्थन है .ये भी उसी तरह का घालमेल है जो घोटालों तक जाता है . जितने बड़े घोटालें हुए हैं उनमें सिर्फ राजनीतिज्ञ ही नहीं राजनैतिक दल भी अप्रत्यक्ष शामिल हैं . राजनैतिज्ञ घोटालें कर रहे हैं और राजनैतिक  दल घालमेल कर रही हैं . यह जांच हो कि किस राजनैतिक  दल ने किस कम्पनी से कितना  चंदा लिया , कहाँ लिया और उससे कालांतर में कितना फायदा हुआ आपको निश्चित तौर पर घोटालों  से बड़े घालमेल नज़र आयेंगें जो रॉबर्ट वाड्रा के मामले से ज्यादा बड़े और संगीन होंगें . अरविन्द केजरीवाल वाड्रा के मामले से ज्यादा राजनैतिक दलों पर छानबीन  कर घालमेल जाहिर करते तो कई लोगों के आँखे खुलती और यह भी जाहिर होता देश की नामचीन कंपनिया किस तरह देश को कैसे खरीद ले रही है . 
सुरेन्द्रबन्सल७७@ग मेल .कॉम 
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Tuesday, October 2, 2012

बीजेपी ; बेटिकट का सफ़र



सुरेन्द्र बंसल 

बीजेपी के वरिष्ठ नेता लाल कृष्ण आडवाणी ने बहुत कुछ हद तक सच कहा है , उसे सत्ता में वापसी करनी है तो एक जुट रहना पड़ेगा ,एक आवाज़ में बोलना पड़ेगा .यह बीजेपी के कमज़ोर नब्ज़ की ऐसी गिनती है जिससे बीजेपी बीमार और लाचार नज़र आती है . सत्ता से बाहर रहते हुए बीजेपी को आठ साल से ज्यादा हो गए हैं .२०१४ में चुनाव हैं और तमाम विरोधी नेता मध्यावधि की आस लगाए बैठे हैं ऐसे में बीजेपी सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी होकर भी कितनी तैयार है इसके प्रतिलक्षण आडवानी ने बीजेपी के कन्वेंशन में दिखाए हैं .


दरअसल बीजेपी बीते आठ सालों में क्या कर पाई , उसके प्रतिनिधित्व का दायरा कितना बड़ा और उसका कितना असर हुआ यह बीजेपी का आत्म मंथन होना चाहिए था . लेकिन ऐसे कन्वेन्शनों में पार्टी उन राजनैतिक मुद्दों को उठाती और चर्चा करती है जो  पहले से ही चर्चित और चालित हैं. चर्चा कामयाबी पर ही नहीं नाकामी पर भी होना चाहिए . जनलोकपाल बिल पर बीजेपी की लचरता से पार्टी डेमेज्ड हुई इसका लोगों पर गलत प्रभाव पड़ा . मंहगाई और एफडीआई  पर बीजेपी कितनी कारगर रही और क्या कमी रही . ईधन की कीमतों पर कितना कर पाए और घोटालों पर पार्टी कितनी ईमानदार रहीं और कितना नैतिक दायित्व निभाया यह सब चर्चा  पार्टी के भीतर पर खुलकर होना चाहिए . इसलिए भी कि बीजेपी एक सर्व लोकतान्त्रिक  पार्टी है
जहाँ ज्यादातर फैसले सामूहिक होते हैं इसका फायदा पार्टी को होना चाहिए लेकिन वह नहीं हो रहा है .

ऐसा इसलिए की तमाम बड़े मुद्दे हाथ में आने के बावजूद बीजेपी  का अपना दायरा नहीं बड़ा . उत्तरप्रदेश जैसे बड़े प्रान्त जहाँ से चुने गए सांसदों की संख्या किसी भी सरकार को बना और बिगाड़   करने की कूवत रखती है वहां बीजेपी इन आठ सालों में कुछ भी नहीं कर पाई . जहाँ जैसी राजनैतिक परिस्थितियां होती है उसके अनुरूप तैयारियां करना होती है लेकिन बीजेपी इस बड़े राज्य में राज़ करने के बाबजूद  बेहद कमज़ोर साबित हुई. उत्तराखंड  में आपसी विवादों के चलते सत्ता उसके हाथ से फिसल गई , झारखण्ड में भी पार्टी कमज़ोर ही हुई है ,राजस्थान में भी पार्टी राजनैतिक हालातों से नहीं निबट सकी और सत्ता गवां बैठी . गुजरात में विवाद चल रहे हैं जहाँ पार्टी का संभावित पीएम्  राज़ कर रहे हैं . कर्णाटक में विवाद येदियुरप्पा के साथ ही इतना बाद गए की अब वापस सत्ता में लौटना ना मुमकिन हो सकता है  . ये हालात तो पार्टी  के उन राज्यों के है जहाँ बीजेपी का राज़ है या रहा है . 

लेकिन जहाँ बीजेपी कहीं नहीं है वहां भी बीजेपी ने बढने के लिए कुछ हासिल करने के कुछ भी नहीं किया है .पूर्वोत्तर बीजेपी का सपना  है वह उसे हासिल करने का मंसूबा बनाती है लेकिन अंजाम  नहीं दे पाती , जम्मू- कश्मीर तो एक प्रतीक है सिर्फ नीतिगत विरोध का पार्टी वहां कुछ नहीं कर सकती .लेकिन महाराष्ट्र जैसे बड़े प्रदेश में बीजेपी जितनी सिमटी हुई है बस उतनी ही है, शायद सिमटी हुई इसलिए है की वह वहां ज्यादा सहमी हुई है , शिव सेना से आगे वह बढना नहीं चाहती और कांगेस से मुकाबिल भी नहीं होना चाहती , बीजेपी यहाँ एक आत्म संतोष में है जितना उसे चाहिए उतना उसे मिल रहा है लेकिन ये स्थिति उसे केंद्र की सत्ता तक नहीं पहुंचा सकती .दक्षिण के अन्य राज्यों में बीजेपी इसी तरह केम्प में अलसाती सी सेना है जिसे आगे बढना ही नहीं है. एन डी  ए  के घटक दलों के राज्यों में भी वह अपनी ताकत नहीं बढाना चाहती क्योंकि शुचिता की राजनीति के चलते उसे निभाने की बड़ी जिम्मेदारी है .
 इन हालातों में जहाँ बीजेपी पास बड़े मकसद हों , बड़े मामले हों , लोक नाराजी का साथ हो और बहुतेरे मौकें हों तब भी बीजेपी यदि वही खडी नज़र आती है इस इंतज़ार में कि राजधानी एक्सप्रेस आती ही होगी और उसमे बैठ कर केंद्र में पहुँच जायेगी  तो यह गलत फहमी है ट्रेन में बैठने के लिए टिकट कटाना जरुरी है . राजनीति में यह टिकट उन तैयारियों से ही बन सकता है जिसका उल्लेख आडवाणी कर रहे हैं.