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Thursday, April 18, 2013

SURENDRA BANSAL kee Kalam se: आखिर अदा में भी कितने होते हैं प्राण.....

SURENDRA BANSAL kee Kalam se: आखिर अदा में भी कितने होते हैं प्राण.....: सिनेमा के सौ साल हो गए हैं और लगभग सौ साल के पास प्राण कृष्ण सिकंद (93) भी हैं जिन्हें अब बॉलीवुड के सबसे प्रतिष्ठित पुरस्कार     "...

Sunday, April 14, 2013

आखिर अदा में भी कितने होते हैं प्राण.....


सिनेमा के सौ साल हो गए हैं और लगभग सौ साल के पास प्राण कृष्ण सिकंद (93) भी हैं जिन्हें अब बॉलीवुड के सबसे प्रतिष्ठित पुरस्कार     " दादा साहब फाल्के अवार्ड" से नवाज़ा जायेगा , प्राण साहब वाकई बॉलीवुड के प्राण रहे  जिस फिल्म में प्राण हो उसमे जान न हो ऐसा नहीं होता था ,इसलिए कीमत में यह खलनायक नायक से भी महंगा होता था . दरअसल जैसा उनका नाम रहा है वैसा उनका काम रहा है . फिलवक्त वे बीमार हैं लेकिन खुदा ने खैर रखी तो भारतीय सिनेमा का यह करिश्माई खलनायक अपने सिनेमाई जीवन के 100  साल भी पूरे कर लेंगें  .
प्राण यूँ दिल्ली में एक फोटोग्राफर थे लेकिन तकदीर उन्हें जब मुंबई ले गयी तब उन्हें भी नहीं पता था कि वे बॉलीवुड सिनेमा में 400 फिल्मों में किरदार निभाने वाले नायक से भी बड़े खलनायक और चरित्र अभिनेता हो जायेंगें . फिल्मों में आज भी ट्रेंड नायक का है नायिका भी कभी नायक से ऊपर नहीं देखी गयी. लेकिन प्राण साहब के हुनर ने उन्हें नायक से बड़ा बना दिया . याद कीजिये बिग बी अमिताभ बच्चन की सर्वोत्कृष्ट फिल्मे ज़ंजीर ,डॉन ,शराबी और अमर अकबर एंथोनी में प्राण साहब की यादगार भूमिकाओं ने इन फिल्मों को हिट करने में बड़ा काम किया . हो भी क्यों नहीं, निर्माता और निर्देशक भी समझते थे कि प्राण साहब का होना ही फिल्म को हिट कर जाएगा इसिलए इन फिल्मों में प्राण को नायक से ज्यादा और कहीं कहीं दोगुना पैसा दिया गया . प्राण के किरदार फिल्मों  के प्राण होते थे यह इसका सबूत है .
उपकार के मलंग चाचा और ज़ंजीर के दयालु शेर खान पठान को कौन भूल सकता है दोनों ही भूमिका में प्राण खलनायक से बेहतर चरित्र नायक बन गए . वैसे उन्होंने अपनी पहली फिल्म  जिद्दी से ही बेहतर कलाकार होने की छाप बना ली थी .आजाद, मधुमती, देवदास, दिल दिया दर्द लिया, राम और श्याम, आदमी,  मुनीम जी, अमरदीप, जब प्यार किसी से होता है, चोरी-चोरी, जागते रहो, छलिया, जिस देश में गंगा बहती है और उपकार फिल्मे जब बार बार देखने जाते थे तो प्राण की अदा  उनके जेहन में होती थी और वे तब भी राजकपूर ,दिलीप कुमार और देवानंद से कमतर कभी नहीं रहे . नायक तो स्टार होता ही है उसकी भूमिका भी स्टार कास्ट की  तरह ही फिल्माई जाती है लेकिन खलनायक तो समाज एक नकारात्मक पात्र होता है जिससे सभी घृणा करते है ऐसे किरदार को निभाना बहुत ही चुनौती का काम है , इन भूमिकाओं को करके यदि कलाकार यादगार हो जाता है तो यह उस कलाकार की महान कला का नतीजा है , समाज के नकारात्मक व्यक्ति को यदि समाज उसकी अदा  के लिए याद रखे और सराहे तो उस कलाकार का यह सबसे बड़ा सम्मान है आज प्राण साहब उतनी ही इज्ज़त से देखें जा रहे है याद किये जा रहे है चाहे बरास्ता  दादा साहब फाल्के अवार्ड से ही हो यह बेहद सम्मान की बात है , आखिरअदा में भी कितने प्राण होते हैं .

Sunday, April 7, 2013

राष्ट्र एक मज़बूत समानांतर राजनैतिक दल चाहता है



बीजेपी के 32 साल हो गए . जनता पार्टी से अलग होकर बनी बीजेपी आज भी उस मुकाम पर नहीं पहुंची है जहाँ से सबसे बड़ी राजनैतिक चुनौती कांग्रेस को मुश्किलों में डाल सके ,

इतने सालों में बीजेपी ने अपने को मज़बूत किया किया और कई राज्यों में राज़ के हालात बना लिए आज बीजेपी में पीएम के लिए चर्चाएँ है लेकिन पीएम कैसे बने कैसे इसे अंजाम मिले इसके लिए बीजेपी इन 32 सालों में भी तैयार नहीं हो सकी है हालाँकि 33 वां साल उसके लिए केंद्र में राज़ करने के सपने लेकर आया है .
बीजेपी अपने समय में जब भारतीय जनसंघ थी तब उसका दीपक कम टिमटिमाता था लेकिन तब भी वह एक वैचारिक द्रष्टिकोण वाली पार्टी थी और उसके फ़ालोवर तैयार हो रहे थे वहीँ से यह पार्टी काडर बेस वाली पार्टी बन गयी .फिर भी बीजेपी उन तमाम कोशिशों में नाकाम रही जिससे वह केंद्र में अपने बूते पर सरकार बनाने में कामयाब हो सके . जनता पार्टी के शासन के दौरान ही मिलीजुली सरकार याने गठबंधन सरकार बनाने का प्रचलन चला .हालाँकि पहले भी अंतरिम सरकार बनी थी और जनसंघ के नेता भी पंडित नेहरु की सरकार में तब मंत्री बने फिर भी इंदिरा गाँधी के समय इमरजेंसी के भोगियों में सारा देश ही था ,और रुष्ट था ऐसे में जब छोटी छोटी पार्टियाँ एकमत से विरोध में उठ बैठी तो वह परिवर्तन आ गया जिसे सपूर्ण क्रांति के जनक जयप्रकाश नारायण ने संजोया था . यह समय विरोध और रुष्टता का था लेकिन बाद में ताल मेल का समय आया तो सब गड़बड़ हो गया तालमेल के नाम पर मोलतोल होने लगे और हर क्षेत्रीय दलों ने अपना रुतबा अपने छोटे छोटे अंकों से ही दिखाना शुरू कर दिया .यह देश की राजनैतिक दिशा का परिवर्तन था .


बीजेपी ने इसे भांप लिया लेकिन इसके लिए उसने या तो कोई नीति नहीं बनायीं या वह अपनी नीतियों में कारगर नहीं हुई . हालाँकि अटलजी के नेतृत्व में एनडीए जैसा मज़बूत गठबंधन देश को मिला बाद में यूपीए ने भी इसी रास्ते पर चल कर सरकारे चला ली .होना यह चाहिए था कि बीजेपी अपने को इस लायक बना लेती कि संख्यात्मक रूप से वह पूरे देश में नज़र आती .

32 साल एक लम्बा समय है इतने सालों में बीजेपी अपने को समान्तर राजनैतिक दल तो बना लिया लेकिन विस्तृत प्रतिनिधित्व वाला दल वह नहीं बना सकी . यह समय बीजेपी के लिए इसी का होना चाहिए . आखिर तमाम कोशिशों के बाद भी बीजेपी अपने को पूर्वोत्तर से पश्चिमोत्तर तक और सदर्न रीजन के तमाम प्रान्तों तक एक सी पैठ क्यों नहीं बना सकी . यह 32 सालों में नहीं कर सके फिर कब और कैसे यह सम्भव होगा यह मंथन बीजेपी को करना चाहिए कि राष्ट्र एक मज़बूत समानांतर राजनैतिक दल चाहता है 

सुरेन्द्र बंसल