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Sunday, July 29, 2012

अपना रास और अपना व्दंव्द



म.प्र. विधानसभा ने उन दो विधायकों को फिर बहाल कर दिया जिन्हें आसंदी के प्रति बदसलूकी के आरोप में बर्खास्त कर दिया था , यह करते हुए विधानसभा ने दावा किया कि उसने ऐसा नैतिक काम किया है जो अब से पहले कभी नहीं हुआ और इससे एक  एतिहासिक परम्परा की  शुरुआत हुई है . लेकिन  विधानसभा के भीतर जो  कुछ हुआ क्या  वह एतिहासिक है .यह सवाल संवैधानिकता के साथ नैतिक मूल्यों के अलग मायने भी खड़े कर रहा है .

दरअसल  विधानसभा  के भीतर जो कुछ घटित हुआ था वह एक राजनैतिक प्रतिद्वंदिता थी परिणाम  स्वरुप बिगड़ते मामले में सर्वसम्मिति  से दो विधायकों की बर्खास्तगी हो गयी और बाद में जो कुछ हुआ वह एक राजनैतिक समझौता था ऐसा समझौता  जो कुछ गलतियों के अहसास से निर्मित किया  था और दोनों पक्षों ने उसे मान्य भी किया इससे बहाली की सर्वसम्मति भी निर्मित हुई अब इसे एतिहासिक माना जा रहा और इसे स्वस्थ परम्परा  की शुरुआत भी कहा जा रहा है . स्वस्थ और सहज परंपरा तो वह होती है जो संवैधानिक संस्था और उसके संचालन के लिए प्रतिस्थापित आसंदी के निर्मित मूल्यों का प्रतिपालन करे . हमारे सम्मानित सदस्यों ने ऐसा किया होता तो बर्खास्तगी होती ही नहीं . यदि बर्खास्तगी हुई है तो जाहिर है आसंदी और संवैधानिक मूल्यों का अपमान हुआ है . यदि  ऐसा नहीं हुआ तो सर्वसम्मति से बर्खास्तगी क्यों की गयी .उस आचरण का क्या हुआ जिसे असंसदीय और अमर्यादित माना गया था .क्या ऐसा था यह सवाल अब पूछा जाना चाहिए .

क्यों यह सवाल खड़ा हुआ है ? इसलिए कि संवैधानिक संस्था की मर्यादा आपकी राजनैतिक प्रतिद्वंदिता और समझौते का कारक नहीं हो सकती. बर्खास्तगी और बहाली से सवैधानिक मर्यादा की  पुनर्स्थापना नहीं हो जाती  और न ही स्थापित प्रक्रियाओं का पालन हो जाता है. इसके लिए विशेष सत्र बुलाकर  पांच मिनट में सदस्यों के पुन; बहाली करना जनता का पैसे की सर्वथा बर्बादी है . जितनी जल्दबाजी में सदस्य बर्खास्त किये गए उतनी ही जल्दबाजी  में उनकी बहाली की गयी . दरअसल ये सदस्य निलंबित किये जा सकते थे लेकिन प्रतिद्वंदिता की भावना से ही सदन के भीतर राजनैतिक रोष उत्पन्न हुआ और जल्दबाजी में सदस्यों को बर्खास्त किया गया यहाँ तक कि चुनाव आयोग ने उनकी सदस्यता शून्य मानते हुए विधानसभा सीट रिक्त मान ली. उखड़े हुए सदस्य माफीनामा देने को तैयार हो गए और समूची विधानसभा ने ताबड़तोड़ खास बुलाए  सत्र में सर्वसम्मति से बर्ख़ास्तगी  से बहाली मान्य कर ली . जब दो सर्वसम्मति के बीच बड़े निर्णय होते है तो माना जाना चाहिए कि यह प्रतिद्वान्दिक  विरोध और समझौता है .

प्रदेश के सी एम् शिवराजसिंह ने इसे राजनैतिक वा मानने से इंकार किया है यह राजनैतिक था भी नहीं यदि आचरण दोनों पक्षों का अपने अपने स्टेंड पर बना रहता क्योंकि वैधानिक मर्यादा और आसंदी के प्रति आचरण की वस्तु परिवर्तित नहीं की जा सकती, उसकी दृष्टि  नहीं बदली जा सकती  और उसके अपने मायने भी नहीं बनाये जा सकते , लेकिन हमारी विधानसभा के भीतर ऐसा हुआ है यह न स्वस्थता है , न पारंपरिक बाध्यता है और न ही एतिहासिक है .यह हमारे चुने हुए प्रतिनिधियों के अपने मायने , अपनी दृष्टि ,अपनी वस्तु अपना निर्णय है इसलिए कोई इसे माने  या ना माने यह राजनैतिक प्रतिद्वंदिता और राजनैतिक समझौते की  ही उपज है .यह  इनका  अपना  रास  और  अपना  व्दंव्द है . 
सुरेन्द्र बंसल

Sunday, July 22, 2012

राष्ट्र -पद की सर्वोच्चता


प्रणब  दा रायसीना हिल्स पर चढ़ कर देश के उस शिखर पर पहुँच गए जहाँ से समुचा देश उन्हें अब उठी हुई नज़रों से देखेगा ऐसा इसलिए कि इससे बड़ी  जगह और सम्मान कोई नहीं है . अपने राजनैतिक जीवन  का तप और जप को प्रतिफलित होते वे देख रहे हैं दरअसल राष्ट्रपति पद ऐसे ही तपे हुए लोगों के लिए हो तो लगता है देश ने उन्हें पलट कर उपहार दिया है .विवाद तो हर किसी के जीवन में हैं और व्यक्ति जब सार्वजनिक होता है  तब बहुत सी उंगलियाँ उस तरफ से आती है जो आपको अपनी सजग जिम्मेदारी पर बने रहने की चेतावनियाँ  देती हैं .हो सकता है ऐसा बहुत कुछ प्रणब दा के साथ भी हो पर वे एक कुशल राजनीतिज्ञ और कर्मठ नेता रहें हैं इसलिए आज हम कह सकते हैं यह निर्वाचन योग्यता  की पदस्थापना है.

यूपीए  जो बेहतर दे सकता था वही उसने किया है हालाँकि पूर्णो संगमा भी उतने ही सशक्त थे और अच्छा यह था कि दोनों ही राजनीतिज्ञ थे , इस बार निर्वाचन बेहतर ही होना था और वोटिंग मूल्यों के आधार पर प्रणब दा का मूल्याँकन अधिक था और वे निर्वाचित हो गए . लेकिन यह परंपरा बनना चाहिए की राष्ट्रपति पद जैसे सर्वोच्च पद पर राजनैतिज्ञ व्यक्ति का तप सामने आये जो उसने  सम्पूर्ण राजनैतिक जीवन में खप कर तैयार किया है . राष्ट्रपति होना किसी राजनीतिज्ञ के लिए राष्ट्र की राजनीति से प्रदत्त वह अलंकरण है जो लोकतंत्र के मूल्यों को और अधिक   मज़बूत करता है .

बीते एक दशक में राजनीति जितनी गन्दला गई है उससे यह संशय होने लगा है कि राजनीति अब देश का विशेष नहीं अवशेष होते जा रही है . अच्छे  लोग राजनीति में बचेंगें ही नहीं तो तब इन महत्वपूर्ण पदों पर कौन स्थापित होगा और क्या तब लोकतंत्र की  ऐसी स्थिति हो जाएगी कि लोक के सामने कोई विकल्प ही नहीं बचेगा . यह बहुत चिंतनीय विषय है आखिर लोकतंत्र मजबूरी से चलने वाला तंत्र नहीं होना चाहिए इसकी सशक्त व्यवस्थाएं इसे मजबूत और कारगर बनाने की है और यह तंत्र इन्हीं व्यवस्थाओं के अनुरूप चले इसकी जिम्मेदारी हर राजनीतिज्ञ की है .कैसे हो राजनितिक प्रदूषण  से मुक्ति  इसके प्रयास राष्ट्रपति निर्वाचन के साथ ही शुरू हो जाना चाहिए . अब वक़्त सिर्फ प्रतिस्पर्धात्मक  राजनीति का ही  नहीं स्वस्थ और राष्ट्रानुरूप व्यवस्थाओं के प्रतिमान बनाने का भी है .

दरअसल राज़ करने के उपाय बनाते हुए हर राजनैतिक दल आज अपनी उपस्थिति को सैध्दांतिक नहीं रखते  हुए समझौते और शर्तों  के आधार पर चला रहे हैं यह परिस्थिति बना दी  गयी है जो राजनैतिक विकेंद्रीकरण हम देख रहे है वह लोकतंत्र की बेहतरी का नहीं सत्ता में  बने रहने का है .इसलिए चिंता और चिंतन दोनों जरुरी है . राजनीति से बिदाई के साथ प्रणब दा रायसीना हिल्स पर इन तमाम विषयों पर चिंतन कर सकते हैं और अनौपचारिक चर्चा कर उन सभी से यह चिंता भी जाता सकते हैं की अब आखिर राजनीति कैसे चले . राष्ट्रपति पद संवैधानिक पद है जहाँ राजनीति का कोई स्थान नहीं है , लेकिन राजनीति  इस देश के संविधान के संरक्षण और संचालन के लिए है  . चिंताएं राष्ट्रपति की भांति भले न कर सके एक लोकपति की भांति कर अपनी नेक अहमियत से कुछ शुधि का प्रयास तो किया ही जा सकता है .यह पद  सिर्फ बड़े बह्वन में रहने और वैदेशिक दौरों के इस  आनंद का ही नहीं है यह प्रणब दा अच्छा समझते हैं और इस पद से राष्ट्र की सर्वोच्चता कैसे बनी रहे यह चिंता जरुर होना चाहिए आखिर यह सर्वोच्च राष्ट्र-पद है.
सुरेन्द्र बंसल 
blogspot.com/anna ka sapna sabka apna

Sunday, July 8, 2012

सयानी सीबीआई क्यों गच्चा खा गयी


सुप्रीम कोर्ट ने मायावती के मामले में तो टूक फैसला दिया है , यह फैसला मायावती को कोई क्लीन चिट नहीं देता लेकिन सीबीआई के कामकाज और तौर तरीकों पर गहरे प्रश्नचिंह लगाता है. मायावती प्रसन्न है उनके समर्थकों की दी सम्पति जैसे मान्य हो गयी लेकिन कोर्ट ने कहा है उनके आदेश में आय से अधिक सम्पति का कोई मामला था ही नहीं जिस पर मामला दर्ज करने का आदेश दिया हो . दरअसल कोर्ट ने ताज कोरिडोर मामले पर प्राथमिकी दर्ज करने को कहा था और सीबी आई ने आय से ज्यादा सम्पति का मामला दर्ज कर लिया .

जाहिर है सीबीआई मनमाने ढंग से काम करने का आदी हो गया है .यह हद है कि देश के सबसे बड़े कोर्ट के आदेश को भी समझे बिना या उसके भिन्न अर्थ लगा कर सीबीआई अपने ढंग से केस तैयार कर लेती है . सीबीआई पर पहले से यह तोहमत है कि वह दवाब में और राजनैतिक उदेश्यों के अनुसार काम करती है .लेकिन कोर्ट के आदेश को समझे बिना उसे आधार बनाकर किसी मामले को दर्ज कर लेना ऐसी ना समझी है जो राष्ट्र के बड़े महकमे द्वारा की गयी है . वह भी ऐसा महकमा जिसकी जिम्मेदारी राष्ट्र को व्यवस्थित और नियमानुकूल चलने देने के लिए निगरानी करने और जिम्मेदार लोगो को दण्डित करवाने की तैयारी करने की है . अदालत ने जैसी लताड़ सीबीआई को लगायी है उससे इस बड़े विभाग के अर्थ पर ही सवालिया लग गया है . राजनीति तौर पर काम करने की पहले ही सीबीआई को बदनामी मिली हुई है अब जब सुप्रीम कोर्ट ने मायावती के मामले में फैसला दे दिया है इससे सीबीआई के लिए शर्मिंदगी के अलावा कुछ नहीं बचा है .

ताज कोरिडोर मामले में मायावती भले न बची हो लेकिन वह अब आय से ज्यादा सम्पति एकत्र करने की बदनामी से साफ़ बच गयी है , आयकर का न्यायधिकरण जब यह कह चूका था कि उनकी सम्पति आय से ज्यादा नहीं है और यह उनके समर्थकों की दी हुई है तो सीबीआई किस तरह इस मामले को इस अंजाम तक ले गयी . बसपा के लोग जश्न माना रहे है , आखिर क्यों न मनाये जश्न. उनकी नेता को इससे मसले से कई लाभ एक साथ हुए हैं . एक- अब आय से ज्यादा सम्पति का मामला लगभग ख़त्म , दो - अब तक लग रहे कई गंभीर आरोपों से भी कुछ छुटकारा तीन - कम से कम सीबीआई अब कुछ लचीला और नरम रवैया रखेगी चार- इस फैसले का उपयोग अपनी छवि साफ़ बताने के लिए उपयोग किया जा सकेगा . इस तरह मायवती बहुत से शिकंजों से स्वत:बाहर आती दिखायी दे रही है .

मायावती के मामले में सीबीआई का भले राजनैतिक इस्तेमाल नहीं हुआ हो लेकिन सीबीआई ने दिखा दिया कि उसके यहाँ बहुत सी ऐसी लेतलालियाँ हैं जो सीबीआई के कामकाज को पक्षपातों से भरा दिखलाती हैं .जहाँ सरकारी हुक्मरानों के बड़े अफसर बैठते हों वहां इस तरह की गलतियां तात्कालिक नहीं होती साजिश और जानकर की गयी भी हो सकती है. सीबीआई इसलिए बदनाम भी है और उसे स्वायत्त करने की मांग भी इन्हीं कारणों से जबतब उठती रही है. देखना है इस मामले को महज़ एक गलती की तरह लिया जाता है या इस भद के लिए जिम्मेदार लोगों पर कोई कारवाई भी होगी ? आखिर सयानी सीबीआई कैसे गच्चा खा गयी और उससे यह गलती क्यों हुई ?


सुरेन्द्र बंसल


surendra.bansal77@gmail.com


Sunday, July 1, 2012

एक शहर का मृत हो जाना




इंदौर म.प्र. का एक जिंदादिल शहर है ( था ) . सुकून की वादियाँ इस शहर से ही खुशनुमा वातावरण का प्रसारण करती रही है .यूँ तो मालवा की शामें जग प्रसिद्ध हैं लेकिन इस शहर के जिंदादिल लोग और आतिथ्य - अपनत्व के संस्कार वाले लोग देश में कहीं और नहीं हैं . आज इस शहर पर हैवानों और दरिंदों का राज़ है . चार साल की मासूम शिवानी की जिंदगी छीन लेने वाले अपराधियों से यह शहर अब अटा पड़ा है . रोज़ एक से अनेक ख़बरें गेंग रेप , अपहरण . हत्या .बलवा . लूट , चोरी , डकैती की आ रही है  , क्रिमिनल पेनल कोड में उल्लेखित शायद ही कोई ऐसा अपराध बचा हो जो इन दिनों इस शहर में नहीं हुआ हो.फिर भी किसी को भी शर्म नहीं है . एक सांस्कृतिक शहर मर रहा है ,संस्कार ख़त्म हो रहे हैं, असुरक्षा बढ़ रही है , भय और आतंक यहाँ की आबोहवा में समां गया है ,लेकिन कर्ता सो रहे हैं लोग चुप हैं और शहर की सांस्कृतिक चिता की अग्नि देख कर भी उद्वेलित नहीं हो रहे हैं , यह मेरे अपने शहर की मौत है .

जिम्मेदार लोग कौन हैं इस बात की भी किसी को चिंता नहीं है ,फिर जिम्मेदारी कौन निभाएगा . एक पुलिस के बड़े अफसर ने कह दिया है आपके घर के भीतर हम चौकसी नहीं कर सकते लेकिन घर के बाहर की चौकीदारी पूरी तरह से हो रही है ? फिर इतने  बड़े और जघन्य अपराध कैसे हो रहे हैं .जिस शहर में मासूमियत को खुले आम रौंध दिया जाए उस शहर के अफसरों को एक पल भी अपने पद पर बने रहने का अधिकार नहीं है , इन्हें अविलम्ब निलंबित किया जाना ही चाहिए ताकि एक सीख और जिम्मेदारी का अहसास बना रहे . 

यह एक व्यावसायिक शहर है .लेकिन यह शहर किसी की दुकान नहीं है आज सबसे ज्यादा शासनिक और प्रशासनिक दुकानदारी इंदौर में ही हो रही है , हर कोई यहाँ व्यवसाय कर रहा है , अन्ना के विशाल आन्दोलन के वावजूद भी . पूर्ववर्ती सरकारों के समय में भी इंदौर सबसे बड़ी दुकान था और आज भी बड़ी और बढती हुई दुकान इंदौर ही है . यहाँ के लोग तो पहले से ज्यादा व्यस्त हैं ही लेकिन जिम्मेदार तत्व महा व्यस्त और महा भ्रष्ट हैं इसमे अब कोई दो बात नहीं है. अफसरों में कौन नहीं है जो इंदौर का स्थायी नहीं है और इंदौर का जमाईं नहीं है . बीते दस -बीस वर्षों का रिकॉर्ड इमानदारी से खंगाला जाए तो सीबीआई को दस-बीस सालों तक इन मामलों से फुर्सत नहीं मिलेगी .

प्रशासनिक के साथ राजनीति भी इस शहर की एक बड़ी दुकान है . इसमें लोग नहीं है जो है या जो कुछ है वह सिर्फ पैसा है , यह बात बहुत कडवी है लेकिन इस शहर की  भी यह सच्चाई है , राजनीति में बहुत से गठजोड़ हैं जो दुकानों की तरह चलाये जा रहे हैं यह गठजोड़ किससे है यह बताने की जरुरत नहीं है लेकिन ये गठजोड़ असामाजिक और अनैतिक हैं.इन पर कोई आंच नहीं हैं और ये फलफूल रहे हैं चल रहें है विकसित हो रहे हैं पनप रहें है ,नए तैयार हो रहे हैं और शहर की प्रदेश की राजनीति की ऐसी भी कर रहे है तैसी भी कर रहे हैं.ख़ास यह है कि इनकी सफेदी और चमकार कायम है.किसी दल में कोई रोक नहीं है सब फलफूल रहे हैं सब राज़ करते हुए राजा हैं नीति की नैतिकता आज इस राजनीति का हिस्सा नहीं हैं. सोचने वालों के लिए यह शर्म है बेशर्म लोगों के लिए यह फिजूल है .

जाहिर है इन दुकानों के चलते शहर की मानवता मर गयी है अपराध बढ़ रहे है और बेशर्मी बढ़  रही है,अब यह मेरा वह शहर नहीं है उसकी मृत स्थिति में हम जी रहे हैं शर्म है तो मुझे अपने पर ,मैं याने एक नागरिक जिसने इतने निठ्ठले और निष्काम लोगों को बढने  पनपने दिया है