दरअसल विधानसभा के भीतर जो कुछ घटित हुआ था वह एक राजनैतिक प्रतिद्वंदिता थी परिणाम स्वरुप बिगड़ते मामले में सर्वसम्मिति से दो विधायकों की बर्खास्तगी हो गयी और बाद में जो कुछ हुआ वह एक राजनैतिक समझौता था ऐसा समझौता जो कुछ गलतियों के अहसास से निर्मित किया था और दोनों पक्षों ने उसे मान्य भी किया इससे बहाली की सर्वसम्मति भी निर्मित हुई अब इसे एतिहासिक माना जा रहा और इसे स्वस्थ परम्परा की शुरुआत भी कहा जा रहा है . स्वस्थ और सहज परंपरा तो वह होती है जो संवैधानिक संस्था और उसके संचालन के लिए प्रतिस्थापित आसंदी के निर्मित मूल्यों का प्रतिपालन करे . हमारे सम्मानित सदस्यों ने ऐसा किया होता तो बर्खास्तगी होती ही नहीं . यदि बर्खास्तगी हुई है तो जाहिर है आसंदी और संवैधानिक मूल्यों का अपमान हुआ है . यदि ऐसा नहीं हुआ तो सर्वसम्मति से बर्खास्तगी क्यों की गयी .उस आचरण का क्या हुआ जिसे असंसदीय और अमर्यादित माना गया था .क्या ऐसा था यह सवाल अब पूछा जाना चाहिए .
क्यों यह सवाल खड़ा हुआ है ? इसलिए कि संवैधानिक संस्था की मर्यादा आपकी राजनैतिक प्रतिद्वंदिता और समझौते का कारक नहीं हो सकती. बर्खास्तगी और बहाली से सवैधानिक मर्यादा की पुनर्स्थापना नहीं हो जाती और न ही स्थापित प्रक्रियाओं का पालन हो जाता है. इसके लिए विशेष सत्र बुलाकर पांच मिनट में सदस्यों के पुन; बहाली करना जनता का पैसे की सर्वथा बर्बादी है . जितनी जल्दबाजी में सदस्य बर्खास्त किये गए उतनी ही जल्दबाजी में उनकी बहाली की गयी . दरअसल ये सदस्य निलंबित किये जा सकते थे लेकिन प्रतिद्वंदिता की भावना से ही सदन के भीतर राजनैतिक रोष उत्पन्न हुआ और जल्दबाजी में सदस्यों को बर्खास्त किया गया यहाँ तक कि चुनाव आयोग ने उनकी सदस्यता शून्य मानते हुए विधानसभा सीट रिक्त मान ली. उखड़े हुए सदस्य माफीनामा देने को तैयार हो गए और समूची विधानसभा ने ताबड़तोड़ खास बुलाए सत्र में सर्वसम्मति से बर्ख़ास्तगी से बहाली मान्य कर ली . जब दो सर्वसम्मति के बीच बड़े निर्णय होते है तो माना जाना चाहिए कि यह प्रतिद्वान्दिक विरोध और समझौता है .
प्रदेश के सी एम् शिवराजसिंह ने इसे राजनैतिक वा मानने से इंकार किया है यह राजनैतिक था भी नहीं यदि आचरण दोनों पक्षों का अपने अपने स्टेंड पर बना रहता क्योंकि वैधानिक मर्यादा और आसंदी के प्रति आचरण की वस्तु परिवर्तित नहीं की जा सकती, उसकी दृष्टि नहीं बदली जा सकती और उसके अपने मायने भी नहीं बनाये जा सकते , लेकिन हमारी विधानसभा के भीतर ऐसा हुआ है यह न स्वस्थता है , न पारंपरिक बाध्यता है और न ही एतिहासिक है .यह हमारे चुने हुए प्रतिनिधियों के अपने मायने , अपनी दृष्टि ,अपनी वस्तु अपना निर्णय है इसलिए कोई इसे माने या ना माने यह राजनैतिक प्रतिद्वंदिता और राजनैतिक समझौते की ही उपज है .यह इनका अपना रास और अपना व्दंव्द है .
सुरेन्द्र बंसल