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Sunday, December 30, 2012

जागते रहो ! पुकार ,ललकार और धिक्कार



जागते रहो !
पुकार  ,ललकार और धिक्कार 

पञ्च तत्व में विलीन हो चुकी एक बेटी का शोक हर घर - परिवार में रहा 
,लोग पुकार रहे हैं ,ललकार रहे हैं धिक्कार रहें हैं .दरिंदों की हरकतों को .व्यवस्था को और कमज़ोर कानून को . असहनीय पीड़ा से त्रस्त होकर सदा के लिए सो जानेवाली एक बेटी ने देश जगा दिया है . यह एतिहासिक है कि अत्याचार पर रोषित लोगों ने  मानवीय मूल्यों के लिए स्वमेव इच्छा से , अंत; भाव से आंदोलित होकर नेतृत्व विहीन एक ऐसा आन्दोलन खड़ा किया है जो अब से पहले कभी न देखा गया और न ही किया गया . देश के युवा पथ भ्रष्ट नहीं हैं और अपने अधिकार ,रक्षा , मूल्यों के लिए कितने  सजग हैं यह उन्होंने सिद्धः कर दिया है ऐसी युवा पीढ़ी  को भी सलाम .

गेंग रेप की शिकार लड़की के प्रति संवेदनाओं ने ऐसा जागरण किया हैं कि लोग स्वमेव यह पुकार करने लगे की एकजुट हो जाओ और अत्याचार का प्रतिशोध फांसी से करो , इंडिया गेट इससे बेहतर जगह नहीं हो सकती थी जो लोगों को प्रेरित रख सके , युवा बच्चों ने दिखाया कि  उन्हें सोशल साईट के दुरूपयोग के लिए बदनाम किया जाता है लेकिन इसका वे ऐसा उपयोग भी कर सकते है जो जनमत बना दें , विचार बना दे और राष्ट्र के लिए एक राह बना दे .लोग देखते देखते इस पुकार पर इंडिया गेट पर एकत्र हो गए ,कारवां बनता गया . यह एक ऐसी शुरुवात थी जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती , कैसे एक सोता हुआ देश करवट लेगा और एकजुट होकर चल पड़ेगा .

भावनाएं जब आहत होती है तो विचार पनपता है और जब विचार बनता है और समग्र रूप से जब वह बाहर आता है तो वह जज्बा बनकर ललकार के लिए तैयार हो जाता है . सैकड़ो नहीं हज़ारों के ज़ज्बें ने इस ललकार को खड़ा किया और उसकी तेज़ प्रतिध्वनि से साऊथ ब्लोक के भीतर बैठे लोगों को झकझोर दिया इस ज़ज्बे को जितना सेल्यूट किया जाए कम है .वह जीना चाहती थी इस कथ्य ने परावर्तन का काम किया और यह ज़ज्बा परावर्तित होकर इतना फैला कि सारा देश हुंकार भरने लगा,ललकारने लगा .यह ललकार उन लोगो के लिए थी और है जो देश को अपना यंत्र समझ कर भीतर बैठे उसे अपने ढंग से संचालित कर रहे थे . इसे युग का परिवर्तन कहा जा सकता , जन के योग से बनती बड़ी ताकत कहा जा सकता जो मतान्ध सत्ताधीशों के लिए एक चेतावनी भी है .

अंग्रेज़ देश की भावनाओं और ललकार से जब उत्तेजित हो जाते थे तो बहशियाना जुल्म पर उतर आते थे , यही सब कुछ निर्दोष लोगों के साथ हमारे तंत्र ने भी किया , बहन बेटियों को पर लाठी ! थू है ऐसी हरकत पर , धिक्कार है . सारे  देश ने एक साथ इस अंग्रेजियत होती सत्ता को  धिक्कारा ,लताड़ा, दो दिन तक वे देश की बहन बेटी और भाइयों को पिटते रहे .लाठियां चलाते रहे और जब धिक्कार की गूंज सारे देश से उन्हें सुनाई देने लगी तो उनके कसे बंधे नाडे  ढीले पड  गए और उन्हें समझ आया कि उनका सड़क पर निकलना दूभर हो जाएगा . देश तो जाग चुका  सत्ता के कुम्भकर्ण भी जाग गए और उन्हें भी दुःख होने लगा , समझ आया कि  उनकी कितनी बहन बेटियाँ हैं . जब आप सही कर्म नहीं कर रहे हैं तो दुष्कर्म कर रहे हैं .देश की सत्ता ने यह दुष्कर्म किया है लोगों की भावनाओं को कुचलने का दुष्कर्म .इसलिए धिक्कार है .

सही मायने में आत्म-स्फूर्त होकर शुरू हुए इस आन्दोलन का सूत्र ही पुकार,ललकार और धिक्कार है। इस सूत्र ने लोगो को स्वयं एक नेतृत्व दिया विचार दिया और ज़ज्बा दिया . देश को दिखा दिया की नेतृत्व के बगैर  किस तरह कोई आन्दोलन  लोगों को प्रेरित रखकर सत्ता को भी झकझोर सकता है पुकार सकता है ,ललकार सकता है और धिक्कार सकता है ,अब समय जागते रहने का है मुद्दों को जाया करने का नहीं अंजाम तक पहुंचाने का है . जो लोग सोच रहे है सिर्फ फांसी देने से कुछ नहीं होगा वे उत्तेज़ना की पराकाष्ठा  नहीं समझ रहे हैं ऐसे उत्तेजना जो स्व- रोष भाव, स्व दर्द से उपजी हो उसकी शांति इसी तरह होना चाहिए एक सन्देश देती हुई .
surendra.bansal77@gmail.com

Sunday, December 23, 2012

न वजूद बढ़ा न मान



गुजरात में मोदी एक बार फिर सत्ता पर शोभित हो गए हैं।कांग्रेस ने यहाँ मत खाई है यह कहना गलत होगा , इसलिए भी कि नरेन्द्र मोदी 2007 के चुनाव से दो कदम पीछे हैं .वहीँ कांग्रेस दो सीटें ज्यादा लेकर कुछ आगे बड़ी है . फिर भी भाजपा और कांग्रेस दोनों पार्टियां नफे-नुकसान में नहीं है . लेकिन राजनैतिक विश्लेषण करने पर यह जाहिर  होता है कि दोनों ही राजनैतिक दल अपना वजूद और मान नहीं बढ़ा सके हैं . 
2007 में बीजेपी जब यहाँ जीती थी तब उसे 117 सीटें मिली थी , पांच साल गुजरात में नरेन्द्र मोदी का राज रहा जिसे सुराज,सुशासन कहा जाता है ,और बढ़ता हुआ गुजरात मोदी की बढ़ती ताकत भी कही जाती है लेकिन बावजूद इतने विशेषणों के नरेन्द्र मोदी बीजेपी की कुल सीट और अपनी लोकप्रियता में  आंकलित इजाफा नहीं कर सके हैं . उन्हें हल्का घाटा हुआ और बड़ा फायदा यह हुआ कि वे पुन; मुख्यमंत्री बन गए लेकिन उस नकारे वोट को सकारे वोट में नहीं परिवर्तित कर सके जिसे वे 2007 में भी हासिल नहीं कर सके थे . यदि ऐसा होता तो नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता सर चढ़ती तथा समर्थन व्यापक होता तो बीजेपी की जीत 2007 से बढ़कर होती . जो व्यक्ति पीएम की दौड़ में दिल्ली की तरफ जाता दीख रहा हो उसे 2012 के परिणाम यह आशा नहीं बंधाते कि वे अपनी सतत जीत से लोकप्रिय राजनैतिक व्यक्तित्व बनकर प्रधानमंत्री पद के भरी भरकम दावेदार हैं।
दरअसल मोदी की जीत उस मांग को प्रमाणित  नहीं करती जो उन्हें प्रधानमंत्री पद की सम्पूर्ण यिग्य्ता के अंक प्रदान करे। उन्होंने अपनी और बीजेपी की जीत बरकरार रखी है, इसलिए कहा जा सकता है वे गुजरात के कुशल राजनेता हैं , जिनके विरोध के लिए प्रतिपक्ष ( कांग्रेस) इतनी मज़बूत नहीं हो सकी कि वे नरेन्द्र मोदी को हार के लिए मजबूर कर सके .
जाहिर है गुजरात में कांग्रेस बीते पांच सालों से अपना जनधार तैयार नहीं कर सकी है।नरेन्द्र मोदी को सांप्रदायिक जताने वाले बयान देकर कांग्रेस ने उन्हें मज़बूत ही किया है .कांग्रेस के किसी नेता ने अपना राजनैतिक अंदाज़ ऐसा नहीं दिखाया जिससे नरेन्द्र मोदी पर मुश्किलें आयें . यह कमजोरी कांग्रेस के भीतर रही उनकी तैयारियां चुनाव जीतने की ललक वाली कभी नहीं रही लिहाज़ा कांग्रेस गुजरात में 2007 से सिर्फ दोसीटें ही आगे बढ़ सकी .यह जरुर उसने अपनी सीटें नहीं खोई , इससे साफ़ लगता है कांग्रेस कुछ तैयारी कर अपना जनधार बढ़ाती तो उसकी सीटों में और इजाफा हो सकता था .
इस चुनाव के परिणाम किसी के लिए आशाजनक हों यह कहना बेमानी होगा , दोनों हो राजनैतिक दलों ने अपनी अपनी लुटिया को डूबने से बचा रखा है। 
सुरेन्द्र बंसल 

Sunday, December 16, 2012

लाबिंग के भ्रष्ट तत्व



वालमार्ट ने भारत में एफडीआई के प्रमोशन पर 125 करोड़ रुपये खर्च किये , यह लाबिंग पर किया गया वह खर्च है जो भारत में रिश्वत समझा जाता है .अमेरिका में इसे विधि का हिस्सा मानते हैं इसे हम अमेरिका में रिश्वत का विधिक स्वरुप  भी कह सकते है और भारत में इसे खुली याने सफ़ेद रिश्वत खोरी कहा जाना चाहिए . वालमार्ट ने यह खर्च अपने वित्तीय आंकड़ों में दिखाए भी है और विवाद पर यह साफगोई भी दी है कि  राजनेताओं और अफसरों पर इसे नहीं खर्च किया गया  .

यूएस  में लाबिंग को कम्पनियां  निवेश की तरह लेती हैं और सरकार से  अपनी बात मनवाने के लिए हर उस  फेक्टर को वे प्रभावित करते हैं जो इससे जुड़े होते हैं.अमेरिका से नीतिगत पक्ष का निर्माण करने के लिए भारत भी अंतर्राष्ट्रीय  कूटनीति के तहत वहां लाबिंग कर चुका है .लाबिंग मतलब धन का ऐसा निवेश जो आपके पक्ष में माहौल बना सके। कई देशो में लाबिस्ट सक्रिय हैं और वे लाबिंग का ही व्यापार कर रहे हैं, लाबिंग का मतलब रिश्वत था ही नहीं इसका मतलब सिर्फ सही स्थिति को पुख्ता ढंग से समझकर अपने लक्ष्य  में परिवर्तित करना था , लेकिन इसका बेजा इस्तेमाल हुआ और इसके तत्व भ्रष्टता से मेल खाने लगे .भारत में वालमार्ट द्वारा किये गए लाबिंग पर 125 करोड़ जैसे भारी भरकम खर्च का तत्व भ्रष्टता से संदर्भित लगता है .

भारत में लाबिंग जैसी कोई चीज़ नहीं है फिर भी लाबिंग होती है , एनरान से वालमार्ट तक करोडो की लाबिंग की गयी लेकिन लाबिंग पूर्ण देशी स्तर पर भी होती रही है  बहुत सी बड़ी कमपनिया अपने स्तर पर अपनी बात रखने ,मनवाने और बदलने के लिए लाबिंग करती रही है . संसद में प्रश्न के बदले पैसा भी इसी लाबिंग का हिस्सा है। कंपनिया मनोरंजन , ट्रेवल्स आदि पर जो खर्च करती है वह भी लोबिंग का ही हिस्सा है . अपना प्रोडक्ट बेचने , सौदा लेने ,सप्लाय करने पर जो खर्च करती है वह भी लाबिंग है , कंपनिया कई सीधे और सच्चे काम के लिए भी जो खर्च करती वह भी लाबिंग है .चुनाव चंदे में दिए जाने वाले पैसे को आप क्या कहेंगें ,यह भी एक तरह से लाबिंग है इसके बदले में चुनी गयी पार्टी को सरकार के  भीतर और बाहर से भी उस दानदाता कंपनियों के फायदे के लिए काम करना होता है, नीति  बदलना होती है , नए काम निकालना होते हैं . 2जी और कोल आवंटन में भी क्या हुआ ,उसमे जो नीतिगत बदलाव किया गया वह भी किसी के फायदे के लिया किया गया वह भी लाबिंग का ही हिस्सा है . 

सीधा और सच्चा अर्थ है लोबिंग मतलब खुली रिश्वत . इसके सारे तत्व भ्रष्टता  से मिलते हैं और भारत में इसे रिश्वत ही मान जाता है और यही सच भी है .
surendra.bansal77@gmail.com

Saturday, December 8, 2012

राजनीति की धत्त दशा .....



एफडीआई  से माया और मुलायम मुनाफा कमाने वाले पहले ग्राहक हैं , इस मुद्दे पर उन्होंने राजनीति की नीति को बेचकर सरकार की ममता और अपनापन खरीद लिया है .इससे उन्हें  क्या मुनाफा होने वाला है यह वक़्त बतायेगा लेकिन सपा और बसपा का जो रवैया  लोकसभा और राज्यसभा में रहा है उससे यही संकेत आ रहे हैं कि  एफडीआई  से मुनाफा कमानेवाले ये ही पहली दो पार्टिया हैं . 

वक़्त अब यह भी कह रहा है उत्तरप्रदेश के दो सशक्त राजनेता आखिर कैसी और किसलिए नेतागिरी कर रहे हैं , किस नीति से कर रहे हैं और उस नीति का क्या फायदा उनके वोटरों को मिलेगा ? क्या राजनीति की यह भद पीटने वाली घटना नहीं हैं ,जब आप पुरजोर विरोध करो देश और जनता को बताओं कि आप क्यों इसके विरोध में हैं और फिर चोर दरवाजे से जैसे खिसक जाओ , क्या भलमनसाहत है यह ? किस तरह का उपकार है , क्यों किया गया परोपकार है ये ? क्या अब राजनीति यही है . यह तो धत्तनीति है  जिसकी जितनी धिक्कार की जाए कम है . 

भारतीय राजनीति जिस तरह बदल रही है उसमे कहीं मूल्यों को ढूँढना  बेमानी है .इस मूल्यविहिनता का नतिज़ा यह है कि देश की सबसे बड़ी पार्टी इस बात की ख़ुशी मना रही है की उन्हें बेइंतहा गाली देने वाले आकामक  लोगों ने उनकी जान और साख बचा ली है . कौन कह सकता है मूल्य अब भी बाकी है जब सबसे जिम्मेदार दल अपनी रीती नीति के लिए अनैतिक समझौते  कर ले तो उसे मूल्याधारित नीति नहीं कहा जा सकता लेकिन राजनीती में सब जायज़ है की चल रही रीति ने राजनेताओं को मूल्यों से मीलों दूर कर दिया है।  

जब मूल्यविहीन राजनीति चल रही हो  तो जनता और वोटर किस पर विश्वास करें और क्यों करें . किस नीति और मुद्दे पर अपनी सहमती जताए और विरोध जाहिर करें ,यह दुविधा वर्तमान राजनीती की दशा से उभर रही है ,यह चलता रहा और देश का वोटर निरुत्साहित होता गया तो इसका सीधा असर लोकतंत्र के उस सबसे बड़े उत्सव पर पडेगा जिसे आम चुनाव कहा जाता है . तब निरुत्साहित  मतदाता मतदान करने से कोताही करने लगेगा , जबकि  उसे प्रेरित करने के प्रयास किये जा रहे है और इसे उसका अधिकार जताया जा रहा हैं। राजनीति की यह धत्त दशा है . 

Sunday, November 11, 2012

रोशनी के पर्व पर दमकते काले लोग ..

दीपों के पर्व दीपावली पर कितना ही प्रकाश फैले लेकिन इस बार अँधेरा और कालापन ज्यादा नज़र आ रहा है,जो दीख रहा है वह जाहिर  है कि इस उत्साह के प्रकाश को धोखे  के स्याह बादल ढकें हुए है और काले चेहरे सत्ता की चमक से कितने दमक रहे हैं। इस दीपावली पर जब लोग  लक्ष्मी के शुभागमन के लिए घर के बाहर दीप प्रज्ज्वलित करेंगें तो उन्हें सबसे पहले वे काले चेहरे नज़र आयेंगें जिन्होंने राष्ट्र की लक्ष्मी को बेहिसाब लूटा है  लेकिन  इस लुट से चमकते काले चेहरों का ही सवाल  नहीं है शुभता के बोल भी इस उत्साह के उत्सव पर फीके पड़े हैं . दीपावली की पहली प्राथमिकता शुभवचन है जो बधाइयों के सिलसिले से रूपांतरित और हस्तांतरित होते हैं .लेकिन इस शुभ मौके पर राजनेताओं के काले बोलों ने भी दीप पर्व की शुभता को गन्दला दिया है . 

अरविन्द केजरीवाल मीडिया में सबसे ज्यादा चमक रहे हैं और वे रोज़ ही फटाके -बम छोड़ रहे हैं लेकिन उनके बमों से जो धुंआ निकल रहा है  उसने चमक-दमक वाले बहुत से लोगों के चेहरे स्याह कर दिए हैं, रिलायंस,बिड़ला,जेट और भी ऩामी कंपनिया उनके लोग , नेता ,अफसर सब के सब आम लोगों की रोशनी को छिनने के अपराधी नज़र आ रहे हैं  लग रहा है आम लोगों की दिवाली जो  दिन-ब-दिन बेहतर ,उत्साह से परिपूर्ण और चमक से भरपूर उदित सूरज सी होना चाहिए थी उसका यह हक मार लिया जा रहा है .स्विस बैंकों में किसका कितना कला धन जमा है उससे ज्यादा प्रामाणिकता  इस बात की है कि  जिस किसी के भी हो स्विस बैंक में भारतीयों का काला धन तो है, कितना है स्वाभविक है करोड़ों में है , यह सरकार को भी पता है ,अरविन्द केजरीवाल ने इसी को खुलासा करते हुए बताया है कि  सिर्फ एक चीनी बैंक में ही 700 भारतीयों के ऐसे अकाउंट हैं जिसमे काला धन  हवाले की तरह स्विटज़रलेंड भेज दिए गये हैं और यह अपराध सरकार की नज़र में है फिर भी कोई बात है नहीं क्योंकि  यहाँ सब चलता है .सरकार  को काले चेहरे नज़र आ रहे हैं फिर भी कालिख घट नहीं बढ़ रही है, क्यों ? यहाँ उन घोटालों को दोहराने की अब जरुरत नहीं है जिनसे इस राष्ट्र का आमजन लुटा ठगा गया है .

आम जन के हक की रोशनी छिनने  वाले लोगो के साथ चर्चा में फिलहाल ऐसे लोग भी आ गए हैं जो सत्ता  में ऊँचें पदों पर हैं और हल्की नीची बातें कर दीपावली के शुभ मौके पर कर रहे हैं . ये लोग महिलाओं को लेकर ज्यादा संवेदनशील हो गए हैं . जहाँ त्यौहार के मद्देनज़र बधाई और शुभ वचनों की बातें होना चाहिए वहां ये बड़े लोग छोटी ओर निम्न बातें करने की प्रतिस्पर्धा  कर रहे हैं  उन बातों को भी दोहराने की जरुरत नहीं है और न हीं ऐसे हलके वाचाल वृत्ति के लोगो को नामज़द करने की जरुरत है . जरुरत यह समझने की है कि  दीपावली का त्यौहार शुभ बातों के लिए ही जाना जाता है और वही दोहराया जाता है लेकिन बहुत  ही हलकी बातें इन दिनों की जा रही है कुछ लोग तो इसमे पारंगत हो गए है तो कुछ लोग इसमें मीर बनने जा रहे हैं .

लेकिन दीपावली रोशनी का त्यौहार है किसी तरह का रंज नहीं करते हुए इस त्यौहार को शांति, सौहादृता और उत्साह से ही सबको मनाना है इस उम्मीद के साथ कि  काले चेहरे और काले बोलों के बदनाम लोग दीप पर्व की  रोशनी में इस तरह पहचान लिए जाय्रेंगें कि उनकी हिम्मत फिर आम लोगो की रोशनी को छिनने की कभी न हो , दीपावली पर्व की आप सभी को शुभकामनाएं और शुभवंदन !

Tuesday, October 30, 2012

100 करोड़; हैरत की अजीब डील



दो की बदनामी में एक बात तय है कि डील 100 करोड़ की हो रही थी और वह भी बचने या बचाने जैसे बद  काम के लिए .अपना मिशन स्वरूपी मीडिया इसमें है इसलिए दर्द अपने को भी है .क्यों ,मीडिया खरीदी के धंधे में व्यस्त हो रहा है . सच और झूठ  क्या है अब इसके ज्यादा मायने नहीं है . जिस चैनल ने 100 करोड़ मांगें या जिस चैनल को 100 करोड़ की पेशकश की गई दोनों में पैसा गलत रास्ते का था और गलत काम के लिए था यह पत्रकारिता का मिशन नहीं है यह धंधेबाजों का धंधा है और इस धंधे में दो बड़े ग्रुप सामने आयें हैं दोनों की राह गलत है और दोनों का कृत्य गलत है .

पहले बात अपने लोग याने मीडिया की . बीते चुनाव से जो चल पडा है उसे पेड न्यूज़ कहा जा रहा है याने खबर की एवज में पैसा बनाना नाम विज्ञापन का और खजाना काले कामों का . पेड़ न्यूज़ के बढ़ते चलन ने पाठकों के विश्वास को रौंधकर पैसों के पेड़ लगाना शुरू किया है .बड़े मीडिया घराने इस धंधे में लिप्त रहे हैं कुछ हद तक चुनावी सर्वे के चलन ने इसे शुरू किया है , सर्वे के बहाने झूठे - सच्चे आंकड़ों से घट और बढत का जो खेल शुरू हुआ था बाद में वही पेड़ न्यूज़ में तब्दील हुआ और अब उसे बिजनेस डील  की तरह लिया जा रहा है सीधे सौदे हो रहे हैं यह पत्रकारिता का कालिख चेहरा है और सीधे सीधे पत्रकारिता की जड़ों को कमज़ोर करने का काम है . जो लोग इसमें लिप्त हैं लगता है उन्हें पत्रकारिता संस्कार में नहीं मिली है वे फिजूल में थोपे गए ऐसे लोग हैं जो सिर्फ धंधा व्यापार करने की नियत से पत्रकारिता में आयें हैं . बात बहुत गहन है और इस पर चिन्तन -विचार की  बहुत ईमानदारी से जरुरत है . बीते चुनाव में पेड़ न्यूज़ का धंधा खुले आम चला था पत्रकारिता तब भी बदनाम हुई थी ,खराब नीयत के लोगों ने खबर के लिए खुलकर सौदे किये थे अब जो हो रहा है उससे हैरत हो रही है .

क्या 100 करोड़ की डील खबर रोकने के लिए हो सकती है , आकडे तो इतने ही आये है और ये पुष्ट आंकडें है इसलिए की दोनों पक्षों ने यह तो पुष्टि की है कि  100 करोड़ मांगें गए थे या 100 करोड़ पेशकश  किये गए थे . इसलिए बहरहाल जब हम मीडिया की जवाबदारी और कृत्य की बात कर रहे हैं तो हमें पहला सवाल यही समझ लेना चाहिए कि आखिर इस अनैतिक और बेईमान काम की ओर आप अग्रसर ही क्यों हुए ? जब 25 करोड़ पेश किये गए तब भी वह खबर थी फिर उसे बढ़ाकर  100 करोड़ तक की बात करने जाना वह भी आपने दो वरिष्ठ संपादकों के साथ आखिर खराब नीयत तो दर्शाता ही है . जिस आरोपित व्यक्ति पर आप  खबर बना रहे है वही मीडिया की तरह काम करके आपको कटघरे में खड़ा कर दे, आपका स्टिंग कर दे तो समझ लीजिये आपकी नाक , कान और आँख जो मीडिया की पहली जरुरत है वह बंद है काम नहीं कर रही है , याने आप पत्रकारिता करना ही नहीं जानते बस धंधा कर रहे हैं . यह बचाने और एवज में भुनाने का खेल है .

लेकिन जो बचने के लिए पेशकस कर रहे थे चाहे 25 करोड़ या 100 करोड़ वे भी कुछ गलत और अनैतिक ही कर रहे थे उनकी बात मनमाफिक बन जाती तो शायद इस कलि खबर का बाहर आना मुश्कील था ,जाहिर है जो व्यक्ती खबर दबाने के लिए पासों की पेशकश करता है वह काले धंधों में लिप्त होता है और अपने को छुपाने और बचाने के लिए इस तरह से इन्वेस्ट करता है .तब उसकी केलकुलेशन उससे रिटर्न  मिलने की होती है .इस मामले में रिटर्न का फिगर  उन्हें नुकसान दिखा रहा था तो उनने इसे जाहिर कर दिया यह भी बदनीयती है और यह जतलाती है कि कहीं न कहीं गड़बड़ है .

जाहिर है एक पक्ष  ने बचाने का खेल किया तो दूसरे ने बचने का खेल किया और इस खेल में लड़ लिए तो बेईमानी के आरोप एक दूसरे पर लगा दिए .नुक्सान पत्रकारिता की विश्वसनीयता क हुआ है ,विश्वास का हुआ है उसके मिशन का हुआ है यह हैरत करने वाला भी है और अजीब भी .

Saturday, October 20, 2012

भय अरविंदम !

भय  अरविंदम !
अरविन्द केजरीवाल जो कुछ कह रहे हैं ,कर रहे हैं वह कितना सही ,कितना गलत , कितना तथ्यात्मक है और उसके कितने मायने हैं इससे ज्यादा महत्वपूर्ण  यह है कि  अपनी सरकारी नौकरी छोड़कर आया एक बेहद साधारण सा आम आदमी  भारतीय राजनीति के धुँरधरों की नाक में दम किये हुए है . सबसे बड़े राजनैतिक दल कांग्रेस की हालत सबसे ज्यादा खराब है जहाँ उसके सभी बड़े खिलाडी अरविन्द केजरीवाल से निबटने के लिए लगे हुए हैं . वहीँ बीजेपी भी अब केजरीवाल का सामना करने में लगी है  जबकि बहुतेरे   राजनातिक दल या तो केजरीवाल के पक्ष में है या विपक्ष में लेकिन  लेकिन राजनीती के इस विशाल मैदान के हर भाग में आज जहाँ देखो वहां केजरीवाल ही केजरीवाल है .

अरविन्द केजरीवालके पास इन दिनों ऐसे कागजातों की भीड़ है जिसमे अनेक घोटालों का पर्दाफाश है या गड़बड़ियां हैं या खराब नियत से किये ऐसे काम हैं जिससे देश का नुकसान हुआ है . लोग अरविन्द के दफ्तर आकर खुद बता रहे हैं कहाँ ,कब और कैसे किसने कितनी गड़बड़ ,लफड़ा किया है किसने कैसे मामूली निम्न मध्यम वर्ग से वाले- वाले उच्च वर्ग में स्थान पा  लिया ,ये अचानक ऊंची छलांग लगाने वाले लोग कौन है . इन बातों से सबसे ज्यादा राजनीति आहात हुई है . क्यों ? बात समूची राजनीति  की कहीं नहीं है उस राजनैतिक व्यक्ति की है जिसने अपने पद पर रहते हुए या अपने प्रभाव से वह गैर कर्म किया है जिससे राष्ट्र  और राष्ट् के लोगों का  नुकसान हो रहा है .कह सकते कि  जोश के अतिरेक में अरविन्द से किसी तरह की चुक भी हो रही हो .यह समझना जरुरी है कि  बहाव में बहुत सी चीज़ें ऐसी भी बह जाती है जो जिनका किनारे पर रहना जरुरी है.अरविन्द की टीम सतर्क हो जब तक ऐसा हो जाए यह मुमकिन है , इसलिए इस जोश में कुछ तथ्य बिगड़ सकते हैं, कुछ सही -गलत ,बेमायने  की बातें भी हो सकती है यह चलता रहेगा लेकिन मूल यह है कि  अरविन्द केजरीवाल और उनके संगी साथी आज राजनीति  को हिलोरें दे रहे हैं और हर कोई इससे आहत नज़र आ रहा है .

अरविन्द केजरीवाल ने जब अन्ना  टीम से बाहर आकर राजनीति करने की बात की थी तब उनकी बहुत आलोचना हुई , हालांकि संसद के भीतर से ही तब अन्ना टीम को यह चुनौती राजनैतिक लोगों ने ही दी थी कि वे राजनीति आयें और संसद में बैठकर संवैधानिक बात  करें अब जब अरविन्द केजरीवाल ने राजनीति  के चुनौती पूर्ण विशाल मैदान में घुसने का मन बनाया और आगे बढ़े तो इन्हीं राजनैतिक दलों को पेट का दर्द शुरू हो गया . अरविन्द की ख़ास बात यह है कि वे बेबाक और निर्भयता से अपनी बात रखते हैं .यही वजह है कि कई लोग न केवल उनके दुश्मन हो जाते हैं बल्कि दुश्मनी भी शुरू कर देते है . दिग्विजय सिंह का पहले पत्र फिर 27 सवाल , सलमान खुर्शीद की धौंस डपट , और तीखे लहजे , बीजेपी नेताओं की खुननस ये सब अरविन्द को राजनीति में ख़ास बना देती है .

अरविन्द केजरीवाल  राजनीति के धुरंधर नहीं हैं वाकई वे  बिगड़ी व्यवस्था से रुष्ट ,खिन्न और क्रोधित एक आम आदमी हैं लेकिन इसी बिगड़ी व्यवस्था का नाम ही राजनीति है और इसी राजनीति  ने उन्हें आम से ख़ास बना दिया है उन्होंने यह दिखा दिया है कि  एक आम आदमी जब राजनीति में  आ जाता है तो वह  कितना भय उत्पन्न कर सकता है . अभी राजनीति  में "भय अरविंदम" चल रहा है यह भय हर किसी राजनैतिक दल को सता रहा है आप देखिये हर खबर में ,और हर चैनल में ,हर चर्चा में , राजनैतिक लोग ,उनके राजनैतिक दल अरविन्द केजरीवाल से लड़ते , उन पर आरोप लगाते और उन्हें कोसते नज़र आ जायेंगें यही है " भय अरविंदम " !
सुरेन्द्र बंसल 

Sunday, October 14, 2012

उन्हें लज्जा क्यों नहीं आती



घोटालों और घपलों की रोज़ रोज़ ख़बरों से अब उकताहट होने लगी है .हफ्ते में ऐसी दो बड़ी ख़बरें निराश करती है यह सोचकर की कहीं लज्जा है ही  नहीं। आरोप हमेशा की तरह आयेंगें और आरोपी नहीं आरोप लगाने वालो को गालियाँ मिलेगी यह एक ट्रेंड की तरह चलता रहेगा , टीवी चैनल एक मसाले की तरह इसे चलाते रहेंगें अखबारों के पाने भी इसी तरह भरे जायेंगें। आखिर हज़ारो करोड़ के घोटाले और घपलों के कोई मायने है कि नहीं .  .

अरविन्द केजरीवाल अब जब राजनीति में आकर उन मसलों को उठा रहे हैं तो उसका स्वस्थ प्रतिकार करने से ज्यादा राजनैतिक लोग उनसे लड़ाई पर आमादा नज़र आ रहे हैं .यह कैसा लोकतंत्र है और कैसी व्यवस्था है  केजरीवाल सही हैं या गलत लेकिन जो  मामले वे सामने ला रहे हैं उसके कुछ निहित अर्थ तो होंगें , इस पर भी यदि कुछ अनर्थ है तो वह तार्किक दृष्टि से ही कटा जाना चाहिए .महालेखा परीक्षक की रपट को गलत करार देने से कोई आरोप मितथ्या  नहीं हो जाते  ऐसे आरोपों पर तथ्यों ओर प्रमाणों  से काट की जाना चाहिए, लेकिन समय बहुत नाज़ुक चल रहा है और राजनीति दुश्मनी तब्दील होती दिख  है .

दुश्मनी में राजनैतिक दुश्मनी भी एक प्रकार है इसे राजनीति से ही निबटा जाता है ज्यादातर राजनैतिक दुश्मनी दिखने की होती है अन्दर से दोस्त और घालमेल के पार्टनर होते हैं .ऐसा अब सामने भी आ रहा है . भिन्न भिन्न राजनेता भिन्न भिन्न विचार से आकर पेशेगत राजनीति  के मित्र हो गए हैं और मिलकर काम निबटा रहे हैं .राजनीति  में आज नीचे से ऊपर तक भ्रष्टता का आलम है . 2012 में आये अब तक के सभी घोटालों की  रकम हजारो करोड़ की है जिनमे लगभग हर घोटाले में राजनैतिक संलिप्तता प्रत्यक्ष जाहिर हो रही है जाहिर है राजनीति  में इस आरोप और फ़सने फ़साने के खेल से दुश्मनी बढ़ भी रही है और कहीं दोस्ती निभाई भी जा रही है .लेकिन इस समय इने राजनातिक पार्टी को  की घोषणा करने वाले अरविन्द केजरीवाल बहुतों के सबसे रजनैतिक दुश्मन हो गए है रॉबर्ट वाड्रा  के बाद सलमान खुर्शीद से दुश्मनी लेकर केजरीवाल अब राजनीति  का सबसे बड़ा निशाना है . राजनैतिक पार्टियाँ उन्हें राजनेतिक मानने को तैयार नहीं है ज्यादातर को लगता है वे राजनीति  में नासूर है जो लग गया तो जायेगा नहीं खा जायेगा . बीजेपी उनके साथ नहीं है लेकिन उन मामलों पर  बीजेपी ही ज्यादा प्रखर विरोध कर रही है .केजरीवाल उन्हें भी नहीं छोड़ रहे हैं इसलिए कि जनलोकपाल  पर बीजेपी ने   संसद में दोहरी नीति अपनाई थी . 

सवाल दुश्मनी का नहीं लज्जा का है . राजनैतिक दुश्मनी लोकतंत्र को मज़बूत करती है यह स्वस्थ ढंग से  रहे .लेकिन उन मुद्दों   को अनदेखा  नहीं किया जाना चाहिए जो आपके विश्वास को,विचार को और पहचान को तोड़ते हों .   अभी यही हो रहा है लगभग हर राजनैतिक दल अपना विचार और विश्वास खोते जा रही है रजिस्टर्ड राजनैतिक दलों की संख्या  बहुतेरी है लेकिन देश के  लूटे जाने के मुददे पर सब एक मत नहीं है और न ईमान से विरोध कर रहे है सब  अपने को बचा  कर राजनीति कर रहे है यह लज्ज़ाजनक है और अस्तित्व को नकार रहे हैं .आखिर कहाँ खड़े ये लोग हैं, इन्हें क्यों लज्जा नहीं आती .
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JADU 
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महाराष्ट्र सिंचाई घोटाले - हानि के बारे में 72,000 करोड़ रुपये (13.61 अरब डॉलर) के. [17] वर्तमान में मामला / भारत की खुफिया एजेंसियों की जांच की जांच के दायरे में है.
काइनेटिक फाइनेंस लिमिटेड घोटाले - बैंकों के बारे में 200 करोड़ रुपए (37.8 लाख डॉलर) को खो दिया. [18] वर्तमान में मामला / भारत की खुफिया एजेंसियों की जांच की जांच के दायरे में है.
अल्ट्रा मेगा पावर परियोजनाओं घोटाले - केंद्र सरकार 29,033 करोड़ खो दिया (5.49 अरब डॉलर) के कारण अनुचित अनिल अंबानी के नेतृत्व वाली रिलायंस पावर के पक्ष में [1] [19].
इंदिरा गांधी अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे के घोटाले - केंद्र सरकार जीएमआर के नेतृत्व वाली डायल करने के लिए अनुचित पक्ष में 166,972.35 करोड़ रुपये (31.56 अरब डॉलर) को खो दिया. डायल (दिल्ली इंटरनेशनल एयरपोर्ट लिमिटेड) जीएमआर समूह (50.1%), फ्रापोर्ट एजी (10%), मलेशिया (10%) हवाई अड्डों, भारत विकास कोष (3.9%), और भारतीय विमानपत्तन प्राधिकरण (26% के एक संघ है ) [20]. [21]
आंध्र प्रदेश भूमि घोटाले - 1,00,000 (18.9 अरब डॉलर) करोड़ [22]
विदेशी मुद्रा derivates घोटाला 32,000 करोड़ रुपये (6.05 अरब डॉलर) [23] [24]
तमिलनाडु में ग्रेनाइट घोटाले - [25]
सर्विस टैक्स और सेंट्रल एक्साइज ड्यूटी धोखाधड़ी - १९,१५९ करोड़ रुपये (3.62 अरब डॉलर) करोड़) [26] [27]
गुजरात पीएसयू वित्तीय अनियमितताओं - 17,000 करोड़ रुपये (3.21 अरब डॉलर) [28] [29]
महाराष्ट्र स्टाम्प ड्यूटी घोटाले - 640 (120.96 मिलियन अमेरिकी डॉलर) करोड़ [30] [31]
महाराष्ट्र भूमि घोटाले [32] [33] [34] [35] [36] [37] [38]
एमएचएडीए मरम्मत घोटाले - 100 (18.9 लाख अमेरिकी डॉलर) करोड़ [39]
राजमार्ग घोटाला - 70 करोड़ (13.23 लाख डॉलर) [40] [41] [42]
विदेश उपहार घोटाले [43] के मंत्रालय [44] [45]
हिमाचल प्रदेश पल्स घोटाले [46] [47]
फ्लाइंग क्लब धोखाधड़ी - 190 (35.91 मिलियन अमरीकी डॉलर) करोड़ [48]
आंध्र प्रदेश के शराब घोटाले [49] [50]
जम्मू और कश्मीर क्रिकेट संघ के घोटाले - लगभग 50 करोड़ रुपए (9.45 लाख अमेरिकी डॉलर) [51] [52]
जम्मू और कश्मीर पीएचई घोटाले [53]
जम्मू और कश्मीर भर्ती [54] घोटाला
जम्मू और कश्मीर examgate [55] [56]
जम्मू और कश्मीर दंत [57] घोटाला
पंजाब धान घोटाला - 18 करोड़ रुपए (3.4 मिलियन डॉलर) [58] [59]
एनएचपीसी सीमेंट घोटाले [60]
हरियाणा वन घोटाले [61] [62] [63] [64] [65] [66] [67] [68] [69] [70]
(पुणे) Girivan भूमि घोटाले [71] (पुणे जमीन घोटाला है जो 2011 के दौरान प्रकाश में आया के साथ भ्रमित होने की नहीं)
शौचालय घोटाला [73] [72]
उत्तर प्रदेश स्टाम्प ड्यूटी घोटाले - 1200 (226.8 मिलियन अमेरिकी डॉलर) करोड़ [74]
उत्तर प्रदेश बागवानी घोटाले - 70 (13.23 मिलियन अमरीकी डॉलर) करोड़ [75]
उत्तर प्रदेश हथेली वृक्षारोपण घोटाला - 55 करोड़ रुपए (10.4 लाख डॉलर) [76] [77] [78]
उत्तर प्रदेश बीज घोटाला - 50 करोड़ रुपए (9.45 लाख डॉलर) [79] [80]
उत्तर प्रदेश हाथी प्रतिमा घोटाले [81] [82] [83] [84] [85]
पटियाला भूमि घोटाले - 250 करोड़ (47.25 लाख डॉलर) [86] [87] [88] [89]
कर वापसी घोटाले - 3 करोड़ रुपए (567,000 डॉलर) [90] [91]
बेंगलुरु मेयर निधि घोटाले [91]
रांची अचल संपत्ति [92] घोटाला
दिल्ली सर्जिकल दस्ताने खरीद [93] घोटाला
Aadhar घोटाले [94] [95] [97] [96]
बीईएमएल हाउसिंग सोसाइटी घोटाले [98] [99] [100]
एमएसटीसी सोने निर्यात घोटाले - 464 (87.7 लाख अमेरिकी डॉलर) करोड़ [101]
टिन घोटाले [102] [103]
Nayagaon   (पंजाब) भूमि घोटाले [104]

Saturday, October 6, 2012

घोटालों से बड़े घालमेल ..

घोटालों  से बड़े  घालमेल ..
सुरेन्द्र बंसल 
रॉबर्ट वाड्रा  सोनिया गांघी के दामाद न होते तो शायद इतना शोर न होता . वाड्रा की कुछ सालों में बनी अथाह सम्पति कोई घोटालों से बनी नहीं दिखती है और घोटालें हों भी कैसे जब सरकार की कोई एजेंसी शामिल न हों फिर वाड्रा ने क्या अपराध किया है . कोई व्यापार के लिए ब्याज मुक्त पैसा दे तो किसे बुरा लगता है , कम्पनी चलाने वाले जानते हैं दायित्वों की जितनी कमी होगी कम्पनी को उतना ही मुनाफा होगा , इसमें वाड्रा सफल रहे और उनने एन केन प्रकारेण इन परिस्थितियों का फायदा उठा लिया जो उन्हें तात्कालिक मिल रही थी ,समझदार बिजनेसमेन ऐसे अवसर कभी नहीं छोड़ते, यह जरुर वाड्रा को ज्यादा और बड़े अवसर मिले जो उन्हें चंद सालों में उंचाई पर ले गए .

अरविन्द केजरीवाल ने इसे राजनैतिक मुद्दा बनाया है अगर यह भ्रष्टाचार का मुद्दा होता तो वे यह भी बतलाते कि रॉबर्ट वाड्रा को फायदा देने वाली डीएलऍफ़ को कितना फायदा हुआ है. दरअसल यह अधपका मुद्दा है जब तक किसी गड़बड़ी को आप जाहिर नहीं कर सकते तब तक कोई इलज़ाम नहीं बनता है .डीएलऍफ़ को कितना फायदा इसके एवज में हुआ तथ्य ये बाहर आने चाहिए थे लेकिन जल्दबाजी में केजरीवाल  की टीम  वाड्रा तक सीमित रह गई , शायद यह सोच कर कि यह सोनिया गाँधी के परिवार  से जुड़ा मामला है इससे अच्छा धमाका होगा , उन्हें मीडिया में धमाकेदार जगह भी मिल गयी लेकिन जो लोग उसूलों से चलते हैं उन्हें मान से और मर्यादित भाव से संयमित आचरण दिखाना चाहिए . यह इसलिए कि इससे उनके विश्वास का निर्माण होता है . केजरीवाल तैश में बोलते हैं फिर भी उनके आचरण ने अब तक उनके प्रति विश्वास का निर्माण किया है राजनीति में आकर उन्हें यह विश्वास नहीं खोना चाहिए . दरअसल जिस पूंजी पर खड़े होकर केजरीवाल राजनीति में आयें हैं वह नैतिक विश्वास की पूंजी और उससे निर्मित वह धरातल है  जिस पर खड़े होकर वे देश को नई राजनैतिक दिशा देने की तैयारी कर रहे हैं.

घोटालों  और घालमेल में बहुत बड़ा अंतर है . सब मान रहे हैं यह घोटाला नहीं है क्योंकि इसमे सरकार की कोई एजेंसी शामिल नहीं है लेकिन जब यह माना जाता है कि अप्रत्यक्ष रूप से इसमे सरकारी एजेंसी , सरकार या सरकार के नुमाईन्दे शामिल हो सकते है तो इसे घालमेल माना जाता है ,लोग इसी बदबू को सूंघने में लगे हैं मान रहे हैं इसके बदले में डीएलएफ को अप्रत्यक्ष मुनाफा पहुंचाया गया होगा  यह शक इसलिए जाहिर हो रहा है कि  मामला सोनिया गाँधी के दामाद रॉबर्ट वाड्रा से जुडी कंपनियों के हैं . लेकिन बात घालमेल की  है तो मान लीजिये ये घालमेल हर सरकार और कंपनियों के बीच बरसों से चल रहे है और बड़े स्तर पर चल रहे हैं .

राजनीति के बड़े पेटू पेट के भीतर और उसकी भूख आज पैसा ही है. चंदे से करोड़ों उपजा लेने वाली हर नामी गिरामी राजनैतिक पार्टी  के साथ नामीगिरामी कंपनियों का दिया चंदा जुडा है . कोयला घोटाले से कितने काले चेहरे सामने आये हों लेकिन कंपनियों के चंदे से काली हुई राजनैतिक पार्टिया आज देश में और हर राज्य में  राज़ कर रही है . कोई सोच सकता है राजनैतिक दलों को मिला ये चंदा सिर्फ एक सहयोग या समर्थन है .ये भी उसी तरह का घालमेल है जो घोटालों तक जाता है . जितने बड़े घोटालें हुए हैं उनमें सिर्फ राजनीतिज्ञ ही नहीं राजनैतिक दल भी अप्रत्यक्ष शामिल हैं . राजनैतिज्ञ घोटालें कर रहे हैं और राजनैतिक  दल घालमेल कर रही हैं . यह जांच हो कि किस राजनैतिक  दल ने किस कम्पनी से कितना  चंदा लिया , कहाँ लिया और उससे कालांतर में कितना फायदा हुआ आपको निश्चित तौर पर घोटालों  से बड़े घालमेल नज़र आयेंगें जो रॉबर्ट वाड्रा के मामले से ज्यादा बड़े और संगीन होंगें . अरविन्द केजरीवाल वाड्रा के मामले से ज्यादा राजनैतिक दलों पर छानबीन  कर घालमेल जाहिर करते तो कई लोगों के आँखे खुलती और यह भी जाहिर होता देश की नामचीन कंपनिया किस तरह देश को कैसे खरीद ले रही है . 
सुरेन्द्रबन्सल७७@ग मेल .कॉम 
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Tuesday, October 2, 2012

बीजेपी ; बेटिकट का सफ़र



सुरेन्द्र बंसल 

बीजेपी के वरिष्ठ नेता लाल कृष्ण आडवाणी ने बहुत कुछ हद तक सच कहा है , उसे सत्ता में वापसी करनी है तो एक जुट रहना पड़ेगा ,एक आवाज़ में बोलना पड़ेगा .यह बीजेपी के कमज़ोर नब्ज़ की ऐसी गिनती है जिससे बीजेपी बीमार और लाचार नज़र आती है . सत्ता से बाहर रहते हुए बीजेपी को आठ साल से ज्यादा हो गए हैं .२०१४ में चुनाव हैं और तमाम विरोधी नेता मध्यावधि की आस लगाए बैठे हैं ऐसे में बीजेपी सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी होकर भी कितनी तैयार है इसके प्रतिलक्षण आडवानी ने बीजेपी के कन्वेंशन में दिखाए हैं .


दरअसल बीजेपी बीते आठ सालों में क्या कर पाई , उसके प्रतिनिधित्व का दायरा कितना बड़ा और उसका कितना असर हुआ यह बीजेपी का आत्म मंथन होना चाहिए था . लेकिन ऐसे कन्वेन्शनों में पार्टी उन राजनैतिक मुद्दों को उठाती और चर्चा करती है जो  पहले से ही चर्चित और चालित हैं. चर्चा कामयाबी पर ही नहीं नाकामी पर भी होना चाहिए . जनलोकपाल बिल पर बीजेपी की लचरता से पार्टी डेमेज्ड हुई इसका लोगों पर गलत प्रभाव पड़ा . मंहगाई और एफडीआई  पर बीजेपी कितनी कारगर रही और क्या कमी रही . ईधन की कीमतों पर कितना कर पाए और घोटालों पर पार्टी कितनी ईमानदार रहीं और कितना नैतिक दायित्व निभाया यह सब चर्चा  पार्टी के भीतर पर खुलकर होना चाहिए . इसलिए भी कि बीजेपी एक सर्व लोकतान्त्रिक  पार्टी है
जहाँ ज्यादातर फैसले सामूहिक होते हैं इसका फायदा पार्टी को होना चाहिए लेकिन वह नहीं हो रहा है .

ऐसा इसलिए की तमाम बड़े मुद्दे हाथ में आने के बावजूद बीजेपी  का अपना दायरा नहीं बड़ा . उत्तरप्रदेश जैसे बड़े प्रान्त जहाँ से चुने गए सांसदों की संख्या किसी भी सरकार को बना और बिगाड़   करने की कूवत रखती है वहां बीजेपी इन आठ सालों में कुछ भी नहीं कर पाई . जहाँ जैसी राजनैतिक परिस्थितियां होती है उसके अनुरूप तैयारियां करना होती है लेकिन बीजेपी इस बड़े राज्य में राज़ करने के बाबजूद  बेहद कमज़ोर साबित हुई. उत्तराखंड  में आपसी विवादों के चलते सत्ता उसके हाथ से फिसल गई , झारखण्ड में भी पार्टी कमज़ोर ही हुई है ,राजस्थान में भी पार्टी राजनैतिक हालातों से नहीं निबट सकी और सत्ता गवां बैठी . गुजरात में विवाद चल रहे हैं जहाँ पार्टी का संभावित पीएम्  राज़ कर रहे हैं . कर्णाटक में विवाद येदियुरप्पा के साथ ही इतना बाद गए की अब वापस सत्ता में लौटना ना मुमकिन हो सकता है  . ये हालात तो पार्टी  के उन राज्यों के है जहाँ बीजेपी का राज़ है या रहा है . 

लेकिन जहाँ बीजेपी कहीं नहीं है वहां भी बीजेपी ने बढने के लिए कुछ हासिल करने के कुछ भी नहीं किया है .पूर्वोत्तर बीजेपी का सपना  है वह उसे हासिल करने का मंसूबा बनाती है लेकिन अंजाम  नहीं दे पाती , जम्मू- कश्मीर तो एक प्रतीक है सिर्फ नीतिगत विरोध का पार्टी वहां कुछ नहीं कर सकती .लेकिन महाराष्ट्र जैसे बड़े प्रदेश में बीजेपी जितनी सिमटी हुई है बस उतनी ही है, शायद सिमटी हुई इसलिए है की वह वहां ज्यादा सहमी हुई है , शिव सेना से आगे वह बढना नहीं चाहती और कांगेस से मुकाबिल भी नहीं होना चाहती , बीजेपी यहाँ एक आत्म संतोष में है जितना उसे चाहिए उतना उसे मिल रहा है लेकिन ये स्थिति उसे केंद्र की सत्ता तक नहीं पहुंचा सकती .दक्षिण के अन्य राज्यों में बीजेपी इसी तरह केम्प में अलसाती सी सेना है जिसे आगे बढना ही नहीं है. एन डी  ए  के घटक दलों के राज्यों में भी वह अपनी ताकत नहीं बढाना चाहती क्योंकि शुचिता की राजनीति के चलते उसे निभाने की बड़ी जिम्मेदारी है .
 इन हालातों में जहाँ बीजेपी पास बड़े मकसद हों , बड़े मामले हों , लोक नाराजी का साथ हो और बहुतेरे मौकें हों तब भी बीजेपी यदि वही खडी नज़र आती है इस इंतज़ार में कि राजधानी एक्सप्रेस आती ही होगी और उसमे बैठ कर केंद्र में पहुँच जायेगी  तो यह गलत फहमी है ट्रेन में बैठने के लिए टिकट कटाना जरुरी है . राजनीति में यह टिकट उन तैयारियों से ही बन सकता है जिसका उल्लेख आडवाणी कर रहे हैं. 

Tuesday, September 18, 2012

बेस्वाद बर्फी और इत्ती सी ख़ुशी इत्ती सी हँसी


याद नहीं आखरी फिल्म थियेटर में कब और कौनसी देखी थी , थ्री इडियट्स भी यूँ ही घर पर देख ली थी ,अच्छी फिल्मों का शौक जरुर है लेकिन फिजूल की फिल्मों में कभी मन लगा नहीं, इसलिए टेस्ट ही ख़त्म सा हो गया। आज बरसों बाद लगा चलो थियेटर चलते हैं .रणबीर कपूर की बर्फी का कुछ  स्वाद ले लेते हैं , इसलिए भी कि कपूर खानदान का सबसे जवाँ हीरो फिल्म में है तो यह भी देखना है कि  राजकपूर की विरासत का कोई हीरो अब भी है कि नहीं।अचानक बने प्रोग्राम से पीवीआर में सीट मनपसंद मिलना नहीं थी , मित्र आदित्य ने वीआयपी  सीट का इंतजाम कर दिया था।
फ्लेश बैक से फिल्म शुरू हो गयी। जब कोई फिल्म फ्लेशबैक से शुरू होती है तो माना जाता है  की फिल्म की कहानी कसावट भरी और दृश्य कथानक के मुताबिक लाजवाब होंगें लेकिन शरू का एक घंटा मध्यम गति से यूँ ही निकाल दिया , हीरो हलकी -फुलकी कलाबाजियों से एक कामेडियन पात्र -सा उछलकूद करता रहा।लग रहा था इस संवादहीन  फिल्म की कमजोरी इसके पात्र नहीं इसका डायरेक्शन है।समीक्षाओं और रिव्यूव में अनुराग बसु के निर्देशन को कमाल का बताया जा रह है , टुकड़ों में यह निर्देशन अच्छा लगता है इसलिए की कुछ दृश्य अच्छे बन पड़े है लेकिन  फ्लेशबैक के दृश्यों का कहीं तारतम्य नहीं था और न ही पटकथा की इस तरह की मांग थी। फिर क्यों और किसलिए  फिल्म फ्लेश बैक में टुकड़ों में चलती रही, यह दर्शकों को कन्फ्यूज्ड करने  के लिए काफी था। मूक बधिर  हीरो और मेंटली रिटायर्ड हेरोइन से जो करवाया गया वह उन्होंने किया। इससे ज्यादा कुछ करने के लिए उनके पास कुछ था भी नहीं , दो प्रमिकाओं से  प्यार और भावनाओं की खातिर अपराध हिंदी फिल्मों के घिसेपिटे किस्से हैं इन्हें जोड़ लेना और निशक्तजन पर केन्द्रित फिल्म बना देना कोई कलात्मकता नहीं है .
कसी हुई कहानी और सटीक निर्देशन से यह फिल्म लाजवाब बन सकती थी . लेकिन अनुराग बसु ने आत्मकेंद्रित होकर फिल्म का निर्माण किया , फिल्म में स्टार कास्ट के लिए ज्यादा कुछ छोड़ा नहीं . रणबीर कपूर और प्रियंका चोपडा शुरू से अंत तक एक सधी हुई लाइन पर ही एक्ट करते रहे क्योंकि इससे ज्यादा उनके लिए अनुराग ने कुछ छोड़ा भी नहीं था . कुल मिलकर पूरी फिल्म में इत्ती सी हँसी और इत्ती सी ख़ुशी ही दर्शकों को मिल पायी है समय जैसे तैसे कट जाता है यह सोचकर की अब कहानी में कुछ नयापन होगा और आता ही होगा लेकिन अंत तक कुछ खास नहीं जो फिल्म की बद्चाद कर तारीफ़ कर रहे हैं पता नहीं किस नज़र से वे देख रहे हैं . 

Sunday, September 9, 2012

आपका ईमान राष्ट्र की शान है



इसे  संसद  के भीतर चले हंगामे की इतिश्री कहिये या हंगामे की परिणिति लेकिन चुप रहने वाले प्रधान मंत्री अब मुखर हो गए हैं और आखरी दिन उन्होंने राष्ट्र के नाम सन्देश देकर कम और नपेतुले  शब्दों में कुछ कायदे की बाते कह दी . आप याद कीजिये २६ अगस्त के ब्लॉग  " ईमान से ढूंढें बेईमान " जिसमे कहा गया था  'अपने अपने पक्ष रखने से कौन रोकता है. प्रधानमंत्री ने अपना पक्ष तैयार कर लिया है लेकिन संसद के भीतर ही वे बोलना चाहते हैं उन्हें बोलने नहीं दिया जा रहा तो चुप रहने की भी क्या जरुरत है   राष्ट्र के नाम सन्देश में ही अपनी इमानदारी जतला दो . सम्पूर्ण राष्ट्र भी एक सर्वोच्च संस्था है और राष्ट्र के लिए ही संवैधानिक संस्था संसद है . फिर भी जहाँ मौका मिले अपनी बात कह दो और अपना ईमान बचा लो यह तो होना ही चाहिए , पीएम साहब आपकी प्रतिष्ठा ईमान की है और उसे बचाए बनायें रखना आपका धर्म है , इसे अविरल निभाएं ' प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह को शायद  यह बात जाँच गयी और शुक्रवार को वे अपनी शांत छबि को तोड़कर कुछ मुखर हो गए और उन्होंने राष्ट्र के नाम सन्देश में राष्ट्रवासियों से बात की या यूँ कहें कि  संसद नहीं चलने देने के लिए देश के नागरिकों से विपक्ष खासकर बीजेपी की शिकायत भी की .

प्रधानमंत्री ने सन्देश में स्पष्टता से बात की लेकिन अपनी प्रतिष्ठा के अनुरूप वह ईमान नहीं जताया जिसकी देश के नागरिकों को जरुरत थी . प्रधानमंत्री ने यह जरुर कहा कि लोकलेखागार की रपट से निकले निष्कर्षों पर संसद के भीतर बहस होना चाहिए इसके लिए उन्होंने सही सोच रखनेवालों का समर्थन भी माँगा . प्रधानमंत्री ने यह सही किया कि उन्होंने देश के लोगों का मान रखा और उन्हें सर्वोपरि मानकर उठ खड़े होने की अपील की कि वह बीजेपी से कहें कि लोक्संस्थाओं में  कामकाज चलने दें. पी एम् साहब अच्छा बोले, सही बोले, नपातुला बोले लेकिन पूरे ईमान से नहीं बोले . जब बेईमान को पकड़ना है तो ईमान का इज़हार करना पड़ेगा , एक लाख छियासीं लाख  करोड के कथित महा घोटाले पर नपी - तुली के साथ सधी हुई सीधी बाते भी होना चाहिए और वह भी जब आप देश को संबोधित सन्देश दे रहे हों . मनमोहन सिंह को गर्ज़ाने की जर्य्रत नहीं थी केकिन जो जरुरत थी वह इस सन्देश से पूरी नहीं हुई . उन्हें अपनी बढती हुई आंच पर कुछ विश्वसनीय तथ्य कहना थे, सच से देश का सामना कराना था ,कुछ उस बेईमानी का खुलासा करना था जो हल्ले की वजह बना , आखिर कौन लोग हैं इस महा घोटाले के पीछे इसका  उन्हें कुछ संकेत देना था ,  यह सब  आखिर है क्या जाहिर करते तो एक विश्वास का महास्वरुप आप देश को दिखा सकते थे .

ईमान आत्मा से निकलता वह कथ्य है जिसका सत्व  कोई जाने या न जाने एक आत्मसंतुष्टि जरुर देता है कि जो कुछ सही था वह मैं ईमान से कह चूका हूँ . कोयला घोटाले पर इसी ईमान की जरुरत है , बेईमान को पकड़ना और दूध पानी को छानकर अलग करना है तो प्रधानमंत्री जी को अभी कुछ और इमानदारी दिखाना है इसलिए कि  समूचा राष्ट्र उन्हें एक ईमानदार व्यक्तित्व मानता रहा है . राष्ट्र आपकी बात पर विश्वास करना चाहता है अपनी बात कहें और खुलकर पूरे साहस से कहें , प्रतिकार भी करें तो साहस से करें ,किसी तरह का पेच न रखें इसलिए कि आपका ईमान राष्ट्र की शान है इसे बनायें रखें .COPY RIGHTS @RESERVED FOR SURENDRA BANSAL KEE KALAM SE 
surendra.bansal77@gmail.com

Sunday, September 2, 2012

फांसी का बेहतर विकल्प




नरोदा पाटिया के दंगों पर कोर्ट  ने जो सजा मुक्कमल की है उससे जाहिर होता है दंगे कितने भयावह थे . जरा विचार करें कि माया कोदनानी और बाबू बजरंगी की सजा तय करते वक़त  माननीय न्यायाधीश के मन  में  किस तरह की भावनाएं आ रही होंगीं , किस तरह वे इंसानियत को तार तार होते देख उद्वेलित हुए होंगें .आखिर माया कोदनानी को २८ साल और बाबू बजरंगी को मरते दम तक जेल में पड़े रहने की सजा सुनाई गयी है . यह सजा फांसी से कम नहीं है हालाँकि कोर्ट ने माना है कि दुनिया के देशों में फांसी की सजा को इंसानियत की खातिर छोड़ा जा रहा है इसलिए वे भी फांसी सुनाने के पक्ष में नहीं है . 

दरअसल "फांसी" को किसी सजा का अंतिम छोर माना गया है ,जब कोई  क्रूरता इतनी भयावह हो कि कोई सजा उसके मियाद में नहीं आये तो फांसी ही एक मात्र विकल्प होती है . अक्सर फांसी की सजा को दया पर लंबित छोड़ दिया जाता है याने वह क्रूरतम व्यक्ति जिसने कोई दयाभाव और इंसानियत नहीं रखी हो वह इंसानियत की खातिर खुद दया की चाहत रखता है . राष्ट्रपति  के पास ऐसी बीसियों याचिका लंबित है जिसमें अफजल गुरु और कसाब जैसे तमाम लोग हैं .जो इनके कृत्य हैं उन पर  अदालत ने फांसी याने अधिकतम सजा मुक़र्रर  की है. कई मामले ऐसे होते हैं जब दया पर छोड़ना होता है लेकिन अदालत कोई इंसान नहीं है वह न्याय की ऐसी संस्था है जिसे भावनाओं को दूर रखकर आँखों पर पट्टी बांधकर न्यायिक दृष्टि से फैसला करना होता  है. फांसी सुनाते  वक़्त अपराधी के दुष्कर्म ही जज के सामने होते हैं .

फिर भी "फांसी " की सजा को इंसानियत का दुश्मन माना गया है और दुनिया के तमाम देशों में यह चल पड़ा है कि यह सजा ख़त्म होना चाहिए .इस सजा जिसका अर्थ मौत है उसे सुनाने के लिए सिर्फ मज़बूरी ही होती है .इंसानियत की खातिर इस सजा को छोड़ा जा रहा है . कई कट्टर देशों में पत्थर मारने, गोली मारने और सरे राह फांसी  दिए जाने का भी प्रावधान है.  लेकिन अब सौ से ज्यादा देश ऐसी क्रूर सजा को छोड़ चुके हैं वैसे भी जिसे फांसी होने को होती है उसके लिए यह त्रास उतना ही होता जबतक फांसी नहीं दी जाती जबकि उसे यह संताप और त्रास लम्बे समय तक होना चाहिए .

इसलिए नरोदा पाटिया दंगों पर विशेष अदालत का  फैसला फांसी की अमानवीयता पर इंसानियत की नज़र से किया गया सटीक फैसला है . गौर करें अदालत के उस फैसले पर जिसमे बाबू बजरंगी को कोर्ट ने दोषी मानते हुए कहा  है कि बजरंगी दंगाईयों का सरगना था .इसने कानून का मखौल बना दिया उसका गुनाह इतना बड़ा है कि उसके केस में आजीवन कारावास की सजा जेल में प्राकृतिक मृत्यु हो जाने तक है .दरअसल माया कोदनानी ५७ साल की है औरबाबू बज़रंगी ४७ साल के इन दोनों की सज़ा बनी रही तो इन्हें ता -उम्र जेल में ही रहना पड़ेगा . अदालत चाहती तो इन दोनों को फांसी की सज़ा सुना सकती थी लेकिन अदालत ने फांसी की सज़ा का बेहतर विकल्प ढुंढ लिया और उसे आजीवन कारावास से बढकर सज़ा सुनाई जो तारीफ -ए-काबिल है .कोई आजीवन सजा से १४ साल में जेल से बाहर आ जाए इससे बेहतर है उसे पूरी सजा मिले ,पूरा जीवन मिले और अपने कर्म पर पश्चाताप यह सोच कर करता और जीता रहे कि काश में यह दुष्कृत्य नहीं करता तो तो नैतिक पारिवारिक जीवन अपनों के साथ जीता . फांसी का इससे बेहतर कोई विकल्प नहीं हैं .

Sunday, August 26, 2012

ईमान से ढूंढें बेईमान



पीएम् की जुबां पर विपक्ष ताला लगाना चाहता है ,सरकार विपक्ष को धता बताना चाहती है यह आखिर क्यों चल रहा है . दोनों ही स्थिति में वक़्त बर्बाद हो रहा है ,पैसा बर्बाद हो रहा है और उससे ज्यादा कोई नतीजा आता नहीं दीख रहा है . कोयले की कालिख  कितनी गहरी है यह जानना इसलिए जरुरी है कि आशंका अब तक के सबसे बड़े घोटाले की है . सच मानिए इस समय देश दुखी: और निरुत्साहित है .लोगो का राजनीति से विश्वास टूट रहा है हर तरफ उतने ही काले लोग नज़र आ रहे हैं जितना कोयला काला है.घोटाला क्या है कितना है इससे ज्यादा इस घोटाले का उपजना उस कालिख की तरह है जिसे तत्काल साफ़ किया जाना  चाहिए.

इस घोटाले पर सरकार के कुछ नुमाइंदों ने बोलना शुरू किया है ,२जी से साफ़ बचे पी चिदंबरम भी शुरू हो गए हैं  बीजेपी के नेता भी संसद के बाहर बोल रहे हैं लेकिन संसद के भीतर सिर्फ शोर चलता रहा है बीजेपी शोर कर रही है इसलिए कि प्रधानमंत्री इस्तीफा दे और सरकार चाहती है कि शोर चलता रहे दरअसल यह ऐसी चक्करदार राजनीति है जिसमें निर्थकता ज्यादा है .सब देश को बर्बादी की तरफ जाने दे रहे हैं वह भी  भले बनकर , यह समय बडा  दुर्योग का है जिसमें जनता को लूटा जा रहा है देश को लूटा जा रहा है . लगता यही है कोई ईमानदार कोशिश करनेवाला अब राष्ट्रीय राजनीति में नहीं है 

प्रधानमंत्री के मुंह पर ताला लगाकर उन्हें घर (सरकार) से बाहर करना कहीं से भी इमानदारी नहीं है उनकी बात सुनी ही जाना चाहिए, उसका आकलन बहस और प्रत्यक्ष नतीजे तो आना ही चाहिए सर्वोच्च संवैधानिक संस्था संसद  के भीतर यदि गंभीरता से चर्चा हो सके तो इससे बेहतर और कुछ नहीं हो सकता.लेकिन अब तक सत्ता पक्ष भी संसद के भीतर गंभीर मसलों पर गंभीर नहीं रहा है और उसने भी पूरी कोशिश करके हर महत्वपूर्ण मामले को दबाने, छुपाने ,टालने और बरगलाने का ही काम किया है. जहाँ सरकार की विश्वसनीयता पर ही सवाल खड़े हो वहां किसी बेहतर नतीजे की उम्मीद करना बे-मायने है. 
जाहिर  है राजनीति के पक्ष विपक्ष की नीतियाँ घोटालों  के तार खोलने की बजाय मुद्दे को उलझाएँ रखना है, कांग्रेस और बीजेपी दोनों अपने अपने पर अड़े हैं,खड़े हैं और लड़ते दिख रहे हैं .लेकिन हो कुछ नहीं रहा है यूँ अब तक भी कुछ नहीं होता रहा है. बातें बेईमानी की चल रही है घोटाले में जो दिख रहा है उससे सत्ता बेईमान दीख रही है इसलिए वह यह जता रही है कि बेईमान तो बीजेपी और समर्थितों की राज्य सरकारें हैं जिन्होंने नीलामी से इंकार किया था सब तरफ चोर चोर का शोर ही सुनाई दे रहा है ,पर यह है कौन ?

इस कौन को ढूंढ़ने के लिए इमानदारी की जरुरत है . इमानदारी के लिए पहले स्वयं को ईमानदार होना चाहिए सो दोनों ही पक्षों का प्रयास ईमान का हो. जब तक राजनैतिक ईमान नहीं होगा बेईमान और बेईमानी पकड़ी नहीं जा सकेगी . प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह के पास वह कोयला मंत्रालय था जब यह बेईमानी हुई , राज्यों में दूसरी सरकारें थीं जब यह बेईमानी हुई इसलिए अब ईमान की जरुरत है. आप ईमानदार हैं तो अपनी बात पूरी इमानदारी से रख दो , अपने अपने पक्ष रखने से कौन रोकता है. प्रधानमंत्री ने अपना पक्ष तैयार कर लिया है लेकिन संसद के भीतर ही वे बोलना चाहते हैं उन्हें बोलने नहीं दिया जा रहा तो चुप रहने की भी क्या जरुरत है   राष्ट्र के नाम सन्देश में ही अपनी इमानदारी जतला दो . सम्पूर्ण राष्ट्र भी एक सर्वोच्च संस्था है और राष्ट्र के लिए ही संवैधानिक संस्था संसद है . फिर भी जहाँ मौका मिले अपनी बात कह दो और अपना ईमान बचा लो यह तो होना ही चाहिए , पीएम साहब आपकी प्रतिष्ठा ईमान की है और उसे बचाए बनायें रखना आपका धर्म है ,इसे अविरल निभाएं . यही विपक्ष को भी करना चाहिए अड़ियलबाज़ी छोड़ कर ईमान पर चलने का उन्हें भी प्रयास करना चाहिए बेईमान अपने आप सामने आ जायेगा , शोर से तो अस्थिर माहौल तैयार होता है और इसमें बेईमानों को भागने का मौका भी मिल जाता है इसलिए संसद के भीतर रोकटोक के बजाए ईमान जताएं और इमानदारी से बेईमान को पकड़ने का प्रयास करें सुने बहस करें और लम्बी लड़ाई पूरी इमानदारी से लड़े यही होना चाहिए , सब ईमान से चलेंगें तो बेईमानी सामने आ जाएगी .  

Saturday, August 18, 2012

नीरो की बांसुरी दिल्ली में नहीं बजेगी , जागो पीएम् साहब ...



तीन घोटाले और तीन लाख करोड़ रूपए यह कोई बच्चों को बहलाने का झुनझुना नहीं है कि आप इसे मामूली में उड़ा दें . श्री प्रकाश जायसवाल  जिस तरह प्रवचन की मुद्रा में मीडिया से बात कर रहे थे लगता था वह भारतीय मीडिया को बचकाना समझते हैं जिसे अपने तर्कों के झुनझुने से  बहला लेंगें. कैग का काम उन अनियमितताओं और गलतियों को परखना  और उसकी समीक्षात्मक व्याख्या, विश्लेषण करना है सो उसने किया है . अब सरकार जिसके भीतर और बाहर व्यवस्था के भिन्न भिन्न गठित संस्थाएं  है वे कोई निजी कृत्य नहीं कर रहीं  हैं और न ही वे मनमानी चलाने और लोकतान्त्रिक सरकार को चुनौती देने का उपक्रम है . लेकिन सरकार के प्रतिनिधि कह रहे हैं कैग की गणनाएं गुमराह करने वाली और गलत है और लगे हाथ उसे चेता भी दिया है कि कैग अपने दायरे को लांघ रही है .

क्या महालेखानियन्त्रक  का काम इतना गुमराह करने वाला हो सकता है कि कोयले के खदानों की आवंटन प्रक्रियाओं को भी न समझ सके . कैग ने जब कहा है कि ५७ ब्लोक के आवंटन में प्रक्रिया का नियमानुकूल पालन नहीं हुआ है तो यह बहुत ही सिम्पल और सीधी व्याख्या है लेकिन इसके विश्लेषण से मालूम पड़ता है कि इस चूक से जो जानकार की गयी होगी उससे देश का एक लाख ८६ हज़ार करोड़ रूपया निजी पावर कम्पनियों को सीधे मुनाफ़ा दे गया है तो चौकना लाज़मी है और पड़ताल भी जरुरी है .लेकिन सरकार झुनझुना बजा रही है जैसे रोम जल रहा है और नीरो बांसुरी बजा रहा है . 

सरकार कि यह झुन्झुनाई बांसुरी इतना झकझोर रही है कि आज रोज़ रोज़ बड़े घोटालों की ख़बरों से जनता का रोम -रोम  जल रहा है ...लोग हतप्रभ हैं कि उनका पैसा उनके देश के काम नहीं आ रहा है  उनके चुने हुए चंद लोगों के हाथों ही लुटाया जा रहा है .कोयले में १.८६ लाख करोड़ . विमानन में ८८.३३  हज़ार करोड़ और पॉवर में २९ हज़ार करोड़  के बाद   २ जी स्पेक्ट्रम और कामन वेल्थ गेम्स को इन घोटालों के आगे भूल जाना बेहतर है .   2जी स्पेक्ट्रम में १.७६ लाख करोड़ ,कामन वेल्थ में ७० हज़ार करोड़ , तेलगी स्टेम्प में २० हज़ार करोड़ , सत्यम कंप्यूटर  में १४ हज़ार करोड़, चारा घोटाले में ९०० करोड़ के अलावा हवाला,आय पी एल,स्टोक मार्केट स्केम घोटालों  की ऐसी लम्बी फेहरिस्त  है जो सरकार की नज़रों में बेबुनियाद है या कोई ख़ास बात नहीं है . देश से ज्यादा पैसा देश के मलाईदारों के पास जा रहा है . 

ये मलाईदार कौन है , टाटा, अम्बानी,जिंदल जैसे तमाम लोग जो देश की अर्थ व्यवस्था के बड़े हिस्सेदार माने जाते हैं और इज्ज़तदार हैं , इनके  पैसे से हो रहे विकास का आम आदमी कर्ज़दार है लेकिन अब क्या ये ही  लोग देश को और देश के लोगों को चूस रहे हैं ऐसा जो आ रहा है ख़बरों  में दिख रहा है और संवैधानिक संस्थाओं  के सवालों के भीतर दिखाई दे रहा है वह देश के नामचीन बड़े लोगों को नज़रों से झुका रहा है इसलिए यह वक्त शर्म करने का है . बढता हुआ बरगद ऊँचा और अच्छा दिखाई देता है लेकिन वह आसपास की जमीं की उपज खा जाता है . आज देश में यही हो रहा है ऊँचे लोग देश को खाने में लगे हैं और  बेईमानी से नीचा काम कर रहे हैं . 

बड़े लोगों  की बेईमानी में भी ईमान होता है वे ईमान के रास्ते बेईमानी का रास्ता छुपे छुपे  पार कर लेते हैं और कुछ पता ही नहीं चलता , अपने लिहाज़ से सब कुछ तैयार करवा लेते हैं बदलवा देते है और साफ़ चट दिखाई देते हैं  सरकार के नुमाईन्दे इनके दलाल की तरह काम कर रहे होते हैं आज देश इन्हीं दलालों के हाथों में है कौन पकड़ेगा इन्हें और कैसे पकड़ेगा , जब सारी बेईमानी विधि से की जाए चाहे वह वैधानिक न हो पर बचे रहने का रास्ता बना देती है .

श्रीप्रकाश जायसवाल ने जता दिया है कि कुछ नहीं है सब गुमराह की  बातें है तो मान लो अब कुछ होना नहीं है जहाँ तक दलाली बंट सकती है बंट जायेगी और सब चुप हो जायेंगें . विपक्ष से भी उम्मीद ज्यादा मत करिए . साफ़ खरे दिखाई देने वाले प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह से एक सवाल तो फिर भी है कि यदि आपको कुछ गलत दीख रहा है तो आप सीट पर क्यों बने हुए हैं ... लालबहादुर शस्त्री ही क्यों इस समय याद किये जाते हैं जो महज एक रेल दुर्घटना पर पद छोड़ देते हैं यहाँ खरबों के घोटालों की  घटना पर भी आप बने रहते है तो संशय तोडिये और अपनी प्रतिष्ठा को स्थापित रखने के लिए ही यह तथ्य बता दीजिये  कि घोटाले है ही नहीं . क्योंकि पीएम् साहब कैग के  पीएम् ( पोस्टमार्टम ) में आप भी हैं ....और जरुरी यही है कि नीरो की बांसुरी दिल्ली में नहीं बजेगी न जनता का रोम जलेगा  इसलिए जागो .....!!
surendra bansal

Sunday, August 12, 2012

पूर्वोत्तर से पश्चिम साजिश की हवा



असम के नस्ली दंगों का असर फैलाव लेने लगा है . मुंबई जैसे अति व्यस्त शहर में शनिवार को हुई हिंसक घटना ने इसके चिंताजनक संकेत दे दिए हैं . जाहिर है नस्ली बैरभाव अब पूर्वोत्तर से चलकर पश्चिम की तरफ आता दिख रहा है . मुंबई में हिंसा के अभी तो यही अर्थ नज़र आ रहे हैं क्या कोकराझाड की प्रतिहिंसा की कोई  सुनियोजित  साज़िश है ?

मुंबई में जो घटा वह प्रतिहिंसा का ऐसा प्रतीक है जो साज़िश की ओर इशारा कर रहा है लगता है समाज विरोधी तत्व अपने गैर सामाजिक इरादों की योजना पर काम कर रहें हैं .आखिर असम की हिंसा का असर मुंबई में ही क्यों हुआ , यह बंगाल में होता तो समझ में आता लेकिन पूर्वोत्तर से हज़ारों किलोमीटर चल कर जो गुस्सा दिख रहा है वह किसी साज़िश की पूर्व तैयारी का रिहर्सल भी हो सकता  है. 

मुंबई के आज़ाद मैदान पर असम के मुद्दे पर हज़ारों लोगो का एकत्र होना यह दिखलाता है  कि आयोजक रज़ा अकेडमी ने नस्ली हिंसा के प्रतिरोध की आड़ में भावनाओं को भड़काने का सुनियोजित काम किया है . आखिर किसी भाषण की उत्तेजना इस कदर क्यों फैली कि लोग यकायक हिंसक हो गए ,आगजनी को उतारू हो गए .इससे ज्यादा यह कि लोगों ने उनकी व्यवस्था में लगी पुलिस को ही निशाना बनाया और उन्हें चुनचुन कर मारा .

दो लोगों की मौत और बीसियों के घायल होने  का जिम्मेदार कौन है, जो बुरी तरह घायल हुए है उसकी किन पर जिम्मेदारी है .यह पड़ताल ही नहीं उन्हें सज़ा सुनाने का वक़्त  है. सरकार यह नहीं कर सकी तो मुंबई  जैसा विशाल और देश की शान समझे जाने वाला शहर  आपसी वैमनस्य , कट्टर दुश्मनी और खुराफातियों की नित करतूतों की तरफ अग्रसर हो जाएगा . मीडिया भी घटना की निशाना बनी और उसे असम की घटना का दोषी बताकर लोगो को उकसाया गया .

मुंबई की आग उस तरफ भी इशारा करती है कि क्या कुछ ऐसे तत्व मुंबई में आगे बढ़ रहे हैं जो हिंसा के लिए तैयार हैं . इनमें  इतनी हिंसक भावनाएं क्यों बढ़ रही है , क्या तैयारी  है और कौन लोग इन्हें बढ़ावा दे रहे हैं . यह भी पड़ताल किया जाना चाहिए कि कोकरझाड की घटना को एक समुदाय विशेष में कौन लोग बढ़ा रहे हैं और  किस तरह भड़का रहें हैं . समय रहते महाराष्ट्र शासन को सचेत होना चाहिए यह एक खतरनाक  तैयारी का संकेत है .इसका पूर्वोत्तर से पश्चिम  में आना आग में घी का ऐसा काम करना है जिसकी नीयत सामाजिक भाव और आपसी सौहाद्रता को भस्म करना है .इसे सिर्फ साजिश की हवा ही कहा जा सकता है जो पश्चिम में मुंबई तक आ गयी है .

Sunday, August 5, 2012

स्वागतम अन्ना !

स्वागतम अन्ना ! 
देश इन दिनों इस बात की बहस में पड़ा है कि अन्ना हजारे व्यापक जन समर्थन के बाद राजनीति में क्यों उतर रहे हैं ? एक नया विचार देश के सामने आया है तो इसका मूल्यांकन होना ही चाहिए. लेकिन इसे जिस तरफ और जैसे बढाया जा रहा है  वह ठीक नहीं है . अन्ना की हर हरकत से पेट में उन लोगों को मरोड़े आती रही है जिन्हें अन्ना के आन्दोलन का प्रत्यक्ष सामना करना पड़ा है . ऐसे लोग और इनके लोग आज देश में इस बात का माहौल तैयार कर रहे हैं मानो अन्ना ने राजनीति में आने का फैसला कर  कोई बड़ा अपराध कर दिया हो .

लोकशाही की सबसे बड़ी  ताकत और उसे संचालित रखने का सबसे बड़ा कृत्य राजनीति ही है . स्वस्थ राजनैतिक विचार देश को स्वस्थ और खुशहाल रखते हैं .राजनीति सिध्दांतों और विचारो के अनुरूप चलाई जाने वाली ऐसी प्रतिद्वंदिता है जो अपनी नीति के अनुरूप राष्ट्र को विकसित ,प्रतिष्ठित और सुरक्षित  रखने का राज़-यत्न करती है और जब ऐसे विचारों और मूल्यों  के लोग सामूहिक हो जाते हैं तो वह एक संस्था बन जाती है ,यही संस्था  राजनैतिक दल कहलाती है .

किसी आन्दोलन और अनशन को राजनीति से अलग  रखना बेमानी है , हर आन्दोलन राजनीति  का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष हिस्सा होते हैं . क्योंकि जब कोई गैर राजनैतिक आन्दोलन आप कर रहे होते हैं तब भी आप राजनीति को प्रभावित करते हैं .लोकतंत्र में राजनीति को प्रभावित किये बिना कोई नीति बन नहीं सकती . अन्ना हजारे और उनकी टीम यही चाहती थी कि राजनीति इतनी प्रभावित हो कि देश की राजनीति की दिशा पलटे और राष्ट्र फिर एक नई दिशा से उन्नत होकर आगे बढ़े . राष्ट्र का सबसे बढ़ा अवरोध इस समय इसके अंतर में समाहित व्यापक भ्रष्टाचार है . जन के लिए तैयार हुआ राज़ आज इसी भ्रष्ट आचरण से जन जन और राष्ट्र को खा रहा है . इसी मुद्दे को लेकर अन्ना हजारे और उनके साथी आगे बढ़े देश को एकत्र किया एक व्यापक माहौल तैयार किया तो उन्होंने क्या अपराध किया . लेकिन देश कि सरकार और राजनीति ने इसे अपराध माना और इस व्यापक जन मुद्दे के साथ बड़े स्तर पर राजनीति की गयी . जो लोग साथ थे  उन्होंने भी और जो खफा थे उन्होंने ने भी कुटिल राजनीति कर आन्दोलन को ख़त्म करने का पूरा प्रयास किया . संसद के भीतर कैसे लोग हैं इसे जब अन्ना के लोगों ने मुद्दा बनाया तो सभी राजनैतिक लोग भड़के . लेकिन किसी ने यह नहीं कहा कि हाँ ऐसे लोग संसद के भीतर हैं जो संसद की गरिमा को ठेस पहुंचाते है . ऐसे लोगो पर चल रही राजनीति ने ही कहा कि चुने हुए लोगों के बारे में ऐसा कहाँ लोकतंत्र और संसद का अपमान है . लेकिन किसी ने यह नहीं कहा कि इन लोगो को राजनीति में लाने कि हमने गलती की  है और हम अब राजनैतिक शुचिता को बनाने का यत्न करेंगें . दरअसल इतनी हिम्मत देश की राजनीति में बची नहीं है इसलिए राजनीति में शुद्धता ,स्वस्थता ,नैतिकता और वैचारिकता ही नहीं है और जब तक राजनीति के ये शुध्द तत्व नहीं होंगें राजनीति न बदलेगी और न देश बदलेगा .  इन्हीं मुद्दों को लेकर अगर कोई राजनीति में आता है तो उसका स्वागत किया जाना चाहिए 

अन्ना हजारे और उनके लोग अपने जमे हुए विश्वास की पूंजी पर राजनीति में आ रहे हैं उनके लिए चुनौतिया ज्यादा है ,और समय भी कम है  यदि वे सफल हो गए तो देश कि राजनीति नए मोड़ पर होगी और खुद फिसल गए तो हमेशा के लिए वे  उनके सारे रस्ते बंद हो जायेंगें . खुले दिमाग खुली सोच और पक्के इरादे से उन्हें आगे बढ़ना होगा उनकी संख्या संसद के भीतर भले कम हो लेकिन पक्के इरादे और नीतिगत लोग यदि संसद के भीतर दिखने लगेंगें तो यह देश की राजनीति के लिए और लोकतंत्र के लिए नई सुबह होगी . इसे जीवंत रखना होगा रष्ट्र के भले के लिए इसलिए फिलवक्त सभी को कहना  चाहिए स्वागतम अन्ना !

Sunday, July 29, 2012

अपना रास और अपना व्दंव्द



म.प्र. विधानसभा ने उन दो विधायकों को फिर बहाल कर दिया जिन्हें आसंदी के प्रति बदसलूकी के आरोप में बर्खास्त कर दिया था , यह करते हुए विधानसभा ने दावा किया कि उसने ऐसा नैतिक काम किया है जो अब से पहले कभी नहीं हुआ और इससे एक  एतिहासिक परम्परा की  शुरुआत हुई है . लेकिन  विधानसभा के भीतर जो  कुछ हुआ क्या  वह एतिहासिक है .यह सवाल संवैधानिकता के साथ नैतिक मूल्यों के अलग मायने भी खड़े कर रहा है .

दरअसल  विधानसभा  के भीतर जो कुछ घटित हुआ था वह एक राजनैतिक प्रतिद्वंदिता थी परिणाम  स्वरुप बिगड़ते मामले में सर्वसम्मिति  से दो विधायकों की बर्खास्तगी हो गयी और बाद में जो कुछ हुआ वह एक राजनैतिक समझौता था ऐसा समझौता  जो कुछ गलतियों के अहसास से निर्मित किया  था और दोनों पक्षों ने उसे मान्य भी किया इससे बहाली की सर्वसम्मति भी निर्मित हुई अब इसे एतिहासिक माना जा रहा और इसे स्वस्थ परम्परा  की शुरुआत भी कहा जा रहा है . स्वस्थ और सहज परंपरा तो वह होती है जो संवैधानिक संस्था और उसके संचालन के लिए प्रतिस्थापित आसंदी के निर्मित मूल्यों का प्रतिपालन करे . हमारे सम्मानित सदस्यों ने ऐसा किया होता तो बर्खास्तगी होती ही नहीं . यदि बर्खास्तगी हुई है तो जाहिर है आसंदी और संवैधानिक मूल्यों का अपमान हुआ है . यदि  ऐसा नहीं हुआ तो सर्वसम्मति से बर्खास्तगी क्यों की गयी .उस आचरण का क्या हुआ जिसे असंसदीय और अमर्यादित माना गया था .क्या ऐसा था यह सवाल अब पूछा जाना चाहिए .

क्यों यह सवाल खड़ा हुआ है ? इसलिए कि संवैधानिक संस्था की मर्यादा आपकी राजनैतिक प्रतिद्वंदिता और समझौते का कारक नहीं हो सकती. बर्खास्तगी और बहाली से सवैधानिक मर्यादा की  पुनर्स्थापना नहीं हो जाती  और न ही स्थापित प्रक्रियाओं का पालन हो जाता है. इसके लिए विशेष सत्र बुलाकर  पांच मिनट में सदस्यों के पुन; बहाली करना जनता का पैसे की सर्वथा बर्बादी है . जितनी जल्दबाजी में सदस्य बर्खास्त किये गए उतनी ही जल्दबाजी  में उनकी बहाली की गयी . दरअसल ये सदस्य निलंबित किये जा सकते थे लेकिन प्रतिद्वंदिता की भावना से ही सदन के भीतर राजनैतिक रोष उत्पन्न हुआ और जल्दबाजी में सदस्यों को बर्खास्त किया गया यहाँ तक कि चुनाव आयोग ने उनकी सदस्यता शून्य मानते हुए विधानसभा सीट रिक्त मान ली. उखड़े हुए सदस्य माफीनामा देने को तैयार हो गए और समूची विधानसभा ने ताबड़तोड़ खास बुलाए  सत्र में सर्वसम्मति से बर्ख़ास्तगी  से बहाली मान्य कर ली . जब दो सर्वसम्मति के बीच बड़े निर्णय होते है तो माना जाना चाहिए कि यह प्रतिद्वान्दिक  विरोध और समझौता है .

प्रदेश के सी एम् शिवराजसिंह ने इसे राजनैतिक वा मानने से इंकार किया है यह राजनैतिक था भी नहीं यदि आचरण दोनों पक्षों का अपने अपने स्टेंड पर बना रहता क्योंकि वैधानिक मर्यादा और आसंदी के प्रति आचरण की वस्तु परिवर्तित नहीं की जा सकती, उसकी दृष्टि  नहीं बदली जा सकती  और उसके अपने मायने भी नहीं बनाये जा सकते , लेकिन हमारी विधानसभा के भीतर ऐसा हुआ है यह न स्वस्थता है , न पारंपरिक बाध्यता है और न ही एतिहासिक है .यह हमारे चुने हुए प्रतिनिधियों के अपने मायने , अपनी दृष्टि ,अपनी वस्तु अपना निर्णय है इसलिए कोई इसे माने  या ना माने यह राजनैतिक प्रतिद्वंदिता और राजनैतिक समझौते की  ही उपज है .यह  इनका  अपना  रास  और  अपना  व्दंव्द है . 
सुरेन्द्र बंसल

Sunday, July 22, 2012

राष्ट्र -पद की सर्वोच्चता


प्रणब  दा रायसीना हिल्स पर चढ़ कर देश के उस शिखर पर पहुँच गए जहाँ से समुचा देश उन्हें अब उठी हुई नज़रों से देखेगा ऐसा इसलिए कि इससे बड़ी  जगह और सम्मान कोई नहीं है . अपने राजनैतिक जीवन  का तप और जप को प्रतिफलित होते वे देख रहे हैं दरअसल राष्ट्रपति पद ऐसे ही तपे हुए लोगों के लिए हो तो लगता है देश ने उन्हें पलट कर उपहार दिया है .विवाद तो हर किसी के जीवन में हैं और व्यक्ति जब सार्वजनिक होता है  तब बहुत सी उंगलियाँ उस तरफ से आती है जो आपको अपनी सजग जिम्मेदारी पर बने रहने की चेतावनियाँ  देती हैं .हो सकता है ऐसा बहुत कुछ प्रणब दा के साथ भी हो पर वे एक कुशल राजनीतिज्ञ और कर्मठ नेता रहें हैं इसलिए आज हम कह सकते हैं यह निर्वाचन योग्यता  की पदस्थापना है.

यूपीए  जो बेहतर दे सकता था वही उसने किया है हालाँकि पूर्णो संगमा भी उतने ही सशक्त थे और अच्छा यह था कि दोनों ही राजनीतिज्ञ थे , इस बार निर्वाचन बेहतर ही होना था और वोटिंग मूल्यों के आधार पर प्रणब दा का मूल्याँकन अधिक था और वे निर्वाचित हो गए . लेकिन यह परंपरा बनना चाहिए की राष्ट्रपति पद जैसे सर्वोच्च पद पर राजनैतिज्ञ व्यक्ति का तप सामने आये जो उसने  सम्पूर्ण राजनैतिक जीवन में खप कर तैयार किया है . राष्ट्रपति होना किसी राजनीतिज्ञ के लिए राष्ट्र की राजनीति से प्रदत्त वह अलंकरण है जो लोकतंत्र के मूल्यों को और अधिक   मज़बूत करता है .

बीते एक दशक में राजनीति जितनी गन्दला गई है उससे यह संशय होने लगा है कि राजनीति अब देश का विशेष नहीं अवशेष होते जा रही है . अच्छे  लोग राजनीति में बचेंगें ही नहीं तो तब इन महत्वपूर्ण पदों पर कौन स्थापित होगा और क्या तब लोकतंत्र की  ऐसी स्थिति हो जाएगी कि लोक के सामने कोई विकल्प ही नहीं बचेगा . यह बहुत चिंतनीय विषय है आखिर लोकतंत्र मजबूरी से चलने वाला तंत्र नहीं होना चाहिए इसकी सशक्त व्यवस्थाएं इसे मजबूत और कारगर बनाने की है और यह तंत्र इन्हीं व्यवस्थाओं के अनुरूप चले इसकी जिम्मेदारी हर राजनीतिज्ञ की है .कैसे हो राजनितिक प्रदूषण  से मुक्ति  इसके प्रयास राष्ट्रपति निर्वाचन के साथ ही शुरू हो जाना चाहिए . अब वक़्त सिर्फ प्रतिस्पर्धात्मक  राजनीति का ही  नहीं स्वस्थ और राष्ट्रानुरूप व्यवस्थाओं के प्रतिमान बनाने का भी है .

दरअसल राज़ करने के उपाय बनाते हुए हर राजनैतिक दल आज अपनी उपस्थिति को सैध्दांतिक नहीं रखते  हुए समझौते और शर्तों  के आधार पर चला रहे हैं यह परिस्थिति बना दी  गयी है जो राजनैतिक विकेंद्रीकरण हम देख रहे है वह लोकतंत्र की बेहतरी का नहीं सत्ता में  बने रहने का है .इसलिए चिंता और चिंतन दोनों जरुरी है . राजनीति से बिदाई के साथ प्रणब दा रायसीना हिल्स पर इन तमाम विषयों पर चिंतन कर सकते हैं और अनौपचारिक चर्चा कर उन सभी से यह चिंता भी जाता सकते हैं की अब आखिर राजनीति कैसे चले . राष्ट्रपति पद संवैधानिक पद है जहाँ राजनीति का कोई स्थान नहीं है , लेकिन राजनीति  इस देश के संविधान के संरक्षण और संचालन के लिए है  . चिंताएं राष्ट्रपति की भांति भले न कर सके एक लोकपति की भांति कर अपनी नेक अहमियत से कुछ शुधि का प्रयास तो किया ही जा सकता है .यह पद  सिर्फ बड़े बह्वन में रहने और वैदेशिक दौरों के इस  आनंद का ही नहीं है यह प्रणब दा अच्छा समझते हैं और इस पद से राष्ट्र की सर्वोच्चता कैसे बनी रहे यह चिंता जरुर होना चाहिए आखिर यह सर्वोच्च राष्ट्र-पद है.
सुरेन्द्र बंसल 
blogspot.com/anna ka sapna sabka apna

Sunday, July 8, 2012

सयानी सीबीआई क्यों गच्चा खा गयी


सुप्रीम कोर्ट ने मायावती के मामले में तो टूक फैसला दिया है , यह फैसला मायावती को कोई क्लीन चिट नहीं देता लेकिन सीबीआई के कामकाज और तौर तरीकों पर गहरे प्रश्नचिंह लगाता है. मायावती प्रसन्न है उनके समर्थकों की दी सम्पति जैसे मान्य हो गयी लेकिन कोर्ट ने कहा है उनके आदेश में आय से अधिक सम्पति का कोई मामला था ही नहीं जिस पर मामला दर्ज करने का आदेश दिया हो . दरअसल कोर्ट ने ताज कोरिडोर मामले पर प्राथमिकी दर्ज करने को कहा था और सीबी आई ने आय से ज्यादा सम्पति का मामला दर्ज कर लिया .

जाहिर है सीबीआई मनमाने ढंग से काम करने का आदी हो गया है .यह हद है कि देश के सबसे बड़े कोर्ट के आदेश को भी समझे बिना या उसके भिन्न अर्थ लगा कर सीबीआई अपने ढंग से केस तैयार कर लेती है . सीबीआई पर पहले से यह तोहमत है कि वह दवाब में और राजनैतिक उदेश्यों के अनुसार काम करती है .लेकिन कोर्ट के आदेश को समझे बिना उसे आधार बनाकर किसी मामले को दर्ज कर लेना ऐसी ना समझी है जो राष्ट्र के बड़े महकमे द्वारा की गयी है . वह भी ऐसा महकमा जिसकी जिम्मेदारी राष्ट्र को व्यवस्थित और नियमानुकूल चलने देने के लिए निगरानी करने और जिम्मेदार लोगो को दण्डित करवाने की तैयारी करने की है . अदालत ने जैसी लताड़ सीबीआई को लगायी है उससे इस बड़े विभाग के अर्थ पर ही सवालिया लग गया है . राजनीति तौर पर काम करने की पहले ही सीबीआई को बदनामी मिली हुई है अब जब सुप्रीम कोर्ट ने मायावती के मामले में फैसला दे दिया है इससे सीबीआई के लिए शर्मिंदगी के अलावा कुछ नहीं बचा है .

ताज कोरिडोर मामले में मायावती भले न बची हो लेकिन वह अब आय से ज्यादा सम्पति एकत्र करने की बदनामी से साफ़ बच गयी है , आयकर का न्यायधिकरण जब यह कह चूका था कि उनकी सम्पति आय से ज्यादा नहीं है और यह उनके समर्थकों की दी हुई है तो सीबीआई किस तरह इस मामले को इस अंजाम तक ले गयी . बसपा के लोग जश्न माना रहे है , आखिर क्यों न मनाये जश्न. उनकी नेता को इससे मसले से कई लाभ एक साथ हुए हैं . एक- अब आय से ज्यादा सम्पति का मामला लगभग ख़त्म , दो - अब तक लग रहे कई गंभीर आरोपों से भी कुछ छुटकारा तीन - कम से कम सीबीआई अब कुछ लचीला और नरम रवैया रखेगी चार- इस फैसले का उपयोग अपनी छवि साफ़ बताने के लिए उपयोग किया जा सकेगा . इस तरह मायवती बहुत से शिकंजों से स्वत:बाहर आती दिखायी दे रही है .

मायावती के मामले में सीबीआई का भले राजनैतिक इस्तेमाल नहीं हुआ हो लेकिन सीबीआई ने दिखा दिया कि उसके यहाँ बहुत सी ऐसी लेतलालियाँ हैं जो सीबीआई के कामकाज को पक्षपातों से भरा दिखलाती हैं .जहाँ सरकारी हुक्मरानों के बड़े अफसर बैठते हों वहां इस तरह की गलतियां तात्कालिक नहीं होती साजिश और जानकर की गयी भी हो सकती है. सीबीआई इसलिए बदनाम भी है और उसे स्वायत्त करने की मांग भी इन्हीं कारणों से जबतब उठती रही है. देखना है इस मामले को महज़ एक गलती की तरह लिया जाता है या इस भद के लिए जिम्मेदार लोगों पर कोई कारवाई भी होगी ? आखिर सयानी सीबीआई कैसे गच्चा खा गयी और उससे यह गलती क्यों हुई ?


सुरेन्द्र बंसल


surendra.bansal77@gmail.com