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Sunday, June 24, 2012

यह राजनैतिक उद्दंडता है ...



राजनैतिक शिष्टाचार की बातें अब बे- मायने हो गई है .यह शिष्टाचार जब ख़त्म हुआ तो राजनैतिक अराजकता बढ़ने लगी ,नतीजा यह हुआ कि कई क्षेत्रीय दलों का उदय हुआ और वे राजनीति से नीति दूर कर राज़ करने कराने में कामयाब हो गए .अब जो चल रहा है वह राजनैतिक उद्दंडता का दौर है . इन उद्दंडताओं   के लिए राजनैतिक दलों में प्रवक्ताओं का पद स्थापित किया है , जो पद पर नहीं है पर वाकई उद्दंड  है वे भी जिम्मेदारी निभा रहे है . लगभग हर राजनैतिक  दल में ऐसे लोग  काम पर राजनैतिक उद्दंडता के लिए लगाये गए हैं .नाम विशेष की चर्चा इसलिए नहीं कि यह सबको जाहिर है किस दल में कौन राजनैतिक उद्दंडता का काम बखूबी निभा रहा है. 
हरहाल ताज़ा मामला नीतीश - मोदी विवाद है . क्या इस मामले के कोई नैतिक मायने हैं .इस पूरे मामले में राजनैतिक नैतिकता कहीं नहीं दीखती. बहुत से विवाद ऐसे खड़े हो रहे हैं जैसे कल ही कोई राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री विपक्ष के खेमे से आकर स्थापित  हो जाएगा जबकि देखा जाए तो आज विपक्ष के पास ऐसा कोई दमदार नाम ही नहीं है जो पीएम और राष्ट्रपति के लिए दमदारी से रखा जा सके .  नीतीश  ने बे - समय पीएम की चर्चा क्यों की.  नीतीशकुमार  एनडीए के प्रमुख और बड़े नेता हैं राजनीति के समझूं हैं लेकिन नरेन्द्र मोदी का नाम चला तो वे एकदम फिसल पड़े ,गोया कल ही कोई नरेन्द्र मोदी पर सहमति बन जाएगी और वे पीएम् हो जायेंगें . सहमति की राजनीति जब आप कर रहे हैं गठबंधन के गठजोड़  में हैं तो आप बाहर आकर कैसे फूफकार सकते हैं ,ऐसा कोई कर रहा है तो इसमे न कोई नीति है , न शिष्टता है और न सहमति है . जो है तो वह सिर्फ नाराजी है, गुस्सा है  या चाल है लेकिन यह सब भी उद्दंडता तक पहुँच गया है .राष्ट्रपति के लिए भी असहमति भीतर से नहीं निकली है  बाहर से भीतर गयी है ,आखिर यह सब क्या है ?  नीतीश  के बाद शिवानन्द तिवारी यदि मुखर हुए हैं तो किस राजनीति के चलते ?
संघ ने हिंदुत्व की वकालत की तो कोई नया नहीं किया इसलिए कि उनका  अजेंडा ही हिंदुत्व है और यह उनका खुला अजेंडा है , यह कहना भी गलत है कि संघ ने मोदी का बचाव किया है . संघ ने सिर्फ अपनी नीति का बचाव किया है और चर्चा में मोदी थे इसलिए यह मोदी का बचाव दीख रहा है . मीडिया के जो लोग यह हल्ला मचा रहे हैं कि संघ ने मोदी का बचाव कर मोदी के प्रति समर्थन जाहिर किया है वे सब कच्ची  पत्रकारिता कर हैं और रीति नीति की व्याख्या कर ही नहीं रहे हैं . दरअसल आज पत्रकारिता भी राजनैतिक उद्दंडता का हिस्सा बन गयी है इसमे समझ कम और उत्तेजना ज्यादा है ऐसा माहौल न विकास कर पाता है और न ही दिशा तय कर पाता है .
रअसल गठबंधन आज तात्कालिक मायनों से चल रहे है इसमे वफ़ा का स्थान है ही नहीं .सबकुछ निजी स्वार्थ और हित के अनुसार चलाया जा रहा है और लोग अपनी अपनी राजनीति कर रहे हैं इससे राजनीति का नुकसान हो  रहा है . नीतियों की गहराई कहीं नहीं है और सतह पर बढ़ती उद्दंडता इसे ख़त्म करने पर तुली है आश्चर्य  यह है कि  इस अनैतिक काम में बड़े राजनेता भी जुटे हैं .
surendra.bansal77@gmail.com

Sunday, June 17, 2012

प्रणब का राजनैतिक रिटायर्मेंट



अब यह तय है कि राजनैतिक हुनरबाज़ प्रणब मुखर्जी देश के तेरहवें राष्ट्रपति हो सकते हैं , यूपीए ने उनके नाम पर मोहर लगा कर उन्हें देश का प्रथम नागरिक होने की मान्यता दे दी लेकिन इसके साथ ही यह भी तय हो गया कि २०१४ में उनकी संभावित  प्रधानमंत्री की अंतर्उपजती भावना लगभग समाप्त हो गयी है,जाहिर है देश का प्रधान होने का राज़  दायित्व अब उनके पास नहीं आ सकेगा .

प्रणब मुखर्जी १९६९ में जब राज्य सभा के लिए चुने गए तब से आज तक उन्होंने केंद्र सरकार में विभिन्न पदों पर रहकर महत्वपूर्ण  मंत्रालयों और आयोगों का काम संभाला है . वे रक्षा मंत्री भी रहे ,विदेश मंत्री भी और वित्त मंत्री भी रहे हैं . और यह मामूली नहीं है इसलिए भी कि उनका यह तजुर्बा ५३ वर्षों के राजनैतिक जीवन से तैयार हुआ है . हालाँकि राजनीति में विवाद  न हो ऐसा होता नहीं है और आरोप भी लग जाते हैं . उनके साथ भी ऐसा ही हुआ है . इंदिरा गाँधी की मौत के बाद १९८४ में उन्हें राजीव गाँधी ने अलग थलग कर दिया था वे कांग्रेस से हटकर राष्ट्रीय  समाजवादी कांग्रेस  के नाम से नई पार्टी भी खड़ी कर चुके थे लेकिन जब नरसिम्हाराव आये तो उन्होंने प्रणब दा को योजना आयोग में अध्यक्ष बना कर फिर कांग्रेस  में शामिल कर लिया . जाहिर है वे कांग्रेस के बागी रहे हैं और राजीव से उनके मतभेद भी रहे हैं और सोनिया गाँधी भी इस बात को जानती हैं फिर भी उन्हें राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाया है तो इससे कांग्रेस  को कुछ फायदे है . 
पहला तो यह कि कांग्रेस  के पास उनकी पार्टी के भीतर प्रणब मुखर्जी से बेहतर कोई उम्मीदवार था ही नहीं , दूसरा फिर उन्हें उस नाम पर विचार करना होता जो प्रणब से बेहतर तो होता लेकिन पार्टी से बाहर से होता , तीसरा डॉ अब्दुल कलाम जो सर्वसम्मत उम्मीदवार हो सकते थे वे पार्टी से बाहर और एनडीए के समर्थन से राष्ट्रपति हो चुके हैं .इसलिए हर हाल में कांग्रेस के लिए फायदेमंद यही था कि प्रणब मुखर्जी का नाम आगे लाया जाए ,इससे कांग्रेस को सबसे बड़ा फायदा यह हुआ है कि उसका एक बड़ा नेता प्रधानमंत्री की दौड़ से बाहर हो गया है , इससे पार्टी संभावित विवाद से भी बच गयी है . मनमोहनसिंह दो कार्यकाल पूरे कर रहे है तीसरी मर्तबा वे शायद ही बनाये जाते ऐसे में किसी ऐसे  नाम को विचार में लाना ही होता. कांग्रेस के भीतर प्रणब मुखर्जी के नाम पर चर्चा करना और उन्हें ही मंज़ूर करना एक मजबूरी होती , शायद वे ही अगले प्रधानमंत्री होते , इस पर अब विराम लग गया है . अब मनमोहनसिंह तीसरी बार प्रधान होने का इतिहास बना सकते है या कोई और के लिए जगह बन गयी है यह साफ़ हो गया है .

देश का सर्वोच्च होना गौरवमयी हो सकता है लेकिन देश का प्रधान होना उस राज़ तंत्र का प्रमुख होना है जो लोकतंत्र से चलता है , इसलिए लोकशाही का राजा तो प्रधानमंत्री ही होता है जो  कभी गुमनाम नहीं होता अपने नैतिक राजधर्म से देश को संचालित करनेवाला वह प्रमुख व्यक्तित्व होता है , प्रणब मुखर्जी के लिए यह अवसर लगभग चला गया है वे सर्वोच्च तो हो जायेंगें लेकिन फिर भी देश के प्रधान होने का  राजनैतिक कर्म अब वे शायद नहीं कर पायेंगें .इसे उनका राजनैतिक रिटायर्मेंट कहे तो अनुपयुक्त नहीं होगा ,जिसे कांग्रेस पार्टी ने उन्हें प्रदान कर दिया है .

Sunday, June 10, 2012

अस्तित्व के लिए मिशन २०१४



भाजपा में यह  अस्तित्व का दौर चल रहा है .पहचान तो भाजपा में बहुत से लोगों की बनी हुई है लेकिन अस्तित्व बहुत  से लोगों का बचा नहीं है ,जो कुछ है वह खंडित है या उसे चुनौती है . कुछ लोग अतिमहत्वाकान्क्षाओं  के हिलोरे खा रहे हैं . लग रहा इन सबके चलते देश की सबसे बड़ी राजनैतिक विपक्षी पार्टी हाशिये पर चली गई है .
दरअसल नरेन्द्र मोदी और नितिन गडकरी की नव युगल सरकार ने बहुत से लोगों को पार्टी के भीतर हिलाया है . लोग समझ गए हैं पार्टी अध्यक्ष और प्रधानमंत्री पद के दावेदार के बीच गठजोड़ लाइन में खड़े लोगों को सरकाकर आगे बढ़ने की कवायद है. पार्टी के दो बड़े नेता जब अपने अपने अस्तित्व के लिए गठजोड़ कर लें तो यह उन लोगों के लिये बड़ी चुनौती है जो  पार्टी के भीतर व्यवस्था के अनुरूप कार्य कर रहे हैं .बहाना चाहे संजय जोशी बने हों लेकिन संजय जोशी को पार्टी से हलाल करना एक रेजिमेंट को तबाह कर देना है . संजय जोशी कोई मामूली हस्ती नहीं थे उनकी पार्टी के भीतर मौजूदगी एक तरह से संघ की मौजूदगी थी . संजय जोशी कभी मॉस लीडर नहीं रहे उनका काम दफ्तरी रहा है और नीति नियंता  पर संघ की दृष्टि  की तरह भी रहा है .

वैसे नितिन गडकरी संघ की मेहरबानी से ही पार्टी अध्यक्ष पर काबिज़ हुए थे और जब वे अध्यक्ष बने तो कोई सोच नहीं सकता था कि वे पार्टी अध्यक्ष बन भी सकते हैं उनका डील डौल भी वैसा नहीं था जिसमे एक  राजनेता लोकनेता की छवि दिखाई दे.लेकिन वे अध्यक्ष बने और समय भी उन्हें पूरा मिला . फिर भी पार्टी ने उनके नेतृत्व में २०१४ की चुनावी तैयारी  का मजबूत खाका तैयार नहीं किया और उनका टर्म पूरा होने आ  गया . अब मोदी के भरोसे ही उनकी दूसरे टर्म की बुनियाद तैयार हुई है लेकिन यह उनकी योग्यता का सबूत नहीं है . एक तरह से पार्टी अध्यक्ष भावी प्रधानमंत्री की गोद में जा बैठे हैं .

नरेन्द्र मोदी गुजरात को चमकाने और मुख्यमंत्री रहते हुए अग्रिम  राष्ट्रीय नेता  की तरह उभरने वाले राजनीति के फिलवक्त इकलौते शख्श  हैं अपनी बनती हुई पहचान  को मोदी भी भुनाना चाहते हैं .और वे भी जो कर रहे हैं  जिस तरह कर रहे हैं वह भाजपा को बचाने ,बनाने और उभारने का काम नहीं हैं, उनकी चुनौती पार्टी के सबसे बड़े नेता लालकृष्ण आडवाणी से लेकर गुजरात के केशुभाई पटेल और संजय जोशी तक है . मोदी इन चुनौतियों से निबटने की तैयारी में जुट गए हैं , मुंबई  में राष्ट्रीय कार्यकारीणी से लेकर गुजरात की प्रांतीय कार्यकारिणी तक मोदी ने अनेक कवायदें की हैं और उनकी हरकतों से हताहत होने वालों की संख्या ज्यादा है . आज पार्टी के भीतर एक आग सुलगती नज़र आ रही है जो सुषमा स्वराज , अरुण जेटली जैसे अनेक नेताओं तक है , इस मसले पर बहुत से नेता और संघ के कर्ता भी अब बंटते  नज़र आ रहे हैं .

जाहिर है भाजपा के भीतर यह लड़ाई चालू हो चुकी है २०१४ के लिए पार्टी तैयार हो या न हो जो दिख रहा है वह यह है कि अस्तित्व के लिए मिशन २०१४ का दौर चल रहा है इसमे पार्टी कहीं नहीं दीख रही  है शायद २०१४ में सरकार बनाना उनका अजेंडा नहीं है . ऐसा है तो कांग्रेस के लिए यह अच्छा संकेत है .