राजनैतिक शिष्टाचार की बातें अब बे- मायने हो गई है .यह शिष्टाचार जब ख़त्म हुआ तो राजनैतिक अराजकता बढ़ने लगी ,नतीजा यह हुआ कि कई क्षेत्रीय दलों का उदय हुआ और वे राजनीति से नीति दूर कर राज़ करने कराने में कामयाब हो गए .अब जो चल रहा है वह राजनैतिक उद्दंडता का दौर है . इन उद्दंडताओं के लिए राजनैतिक दलों में प्रवक्ताओं का पद स्थापित किया है , जो पद पर नहीं है पर वाकई उद्दंड है वे भी जिम्मेदारी निभा रहे है . लगभग हर राजनैतिक दल में ऐसे लोग काम पर राजनैतिक उद्दंडता के लिए लगाये गए हैं .नाम विशेष की चर्चा इसलिए नहीं कि यह सबको जाहिर है किस दल में कौन राजनैतिक उद्दंडता का काम बखूबी निभा रहा है.
बहरहाल ताज़ा मामला नीतीश - मोदी विवाद है . क्या इस मामले के कोई नैतिक मायने हैं .इस पूरे मामले में राजनैतिक नैतिकता कहीं नहीं दीखती. बहुत से विवाद ऐसे खड़े हो रहे हैं जैसे कल ही कोई राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री विपक्ष के खेमे से आकर स्थापित हो जाएगा जबकि देखा जाए तो आज विपक्ष के पास ऐसा कोई दमदार नाम ही नहीं है जो पीएम और राष्ट्रपति के लिए दमदारी से रखा जा सके .
नीतीश ने बे - समय पीएम की चर्चा क्यों की.
नीतीशकुमार एनडीए के प्रमुख और बड़े नेता हैं राजनीति के समझूं हैं लेकिन नरेन्द्र मोदी का नाम चला तो वे एकदम फिसल पड़े ,गोया कल ही कोई नरेन्द्र मोदी पर सहमति बन जाएगी और वे पीएम् हो जायेंगें . सहमति की राजनीति जब आप कर रहे हैं गठबंधन के गठजोड़ में हैं तो आप बाहर आकर कैसे फूफकार सकते हैं ,ऐसा कोई कर रहा है तो इसमे न कोई नीति है , न शिष्टता है और न सहमति है . जो है तो वह सिर्फ नाराजी है, गुस्सा है या चाल है लेकिन यह सब भी उद्दंडता तक पहुँच गया है .राष्ट्रपति के लिए भी असहमति भीतर से नहीं निकली है बाहर से भीतर गयी है ,आखिर यह सब क्या है ?
नीतीश के बाद शिवानन्द तिवारी यदि मुखर हुए हैं तो किस राजनीति के चलते ?
संघ ने हिंदुत्व की वकालत की तो कोई नया नहीं किया इसलिए कि उनका अजेंडा ही हिंदुत्व है और यह उनका खुला अजेंडा है , यह कहना भी गलत है कि संघ ने मोदी का बचाव किया है . संघ ने सिर्फ अपनी नीति का बचाव किया है और चर्चा में मोदी थे इसलिए यह मोदी का बचाव दीख रहा है . मीडिया के जो लोग यह हल्ला मचा रहे हैं कि संघ ने मोदी का बचाव कर मोदी के प्रति समर्थन जाहिर किया है वे सब कच्ची पत्रकारिता कर हैं और रीति नीति की व्याख्या कर ही नहीं रहे हैं . दरअसल आज पत्रकारिता भी राजनैतिक उद्दंडता का हिस्सा बन गयी है इसमे समझ कम और उत्तेजना ज्यादा है ऐसा माहौल न विकास कर पाता है और न ही दिशा तय कर पाता है .
दरअसल गठबंधन आज तात्कालिक मायनों से चल रहे है इसमे वफ़ा का स्थान है ही नहीं .सबकुछ निजी स्वार्थ और हित के अनुसार चलाया जा रहा है और लोग अपनी अपनी राजनीति कर रहे हैं इससे राजनीति का नुकसान हो रहा है . नीतियों की गहराई कहीं नहीं है और सतह पर बढ़ती उद्दंडता इसे ख़त्म करने पर तुली है आश्चर्य यह है कि इस अनैतिक काम में बड़े राजनेता भी जुटे हैं .
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