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Sunday, December 22, 2013

निर्लज्ता एक असभ्य कृत्य है


सुरेन्द्र बंसल 

देवयानी प्रकरण में भारत और अमेरिका दोनों की भृकुटियां तनी हुई है, भारत के लिए उसकी इज्जत का सवाल है और अमेरिका अपने कानून की दुहाई दे रहा है। बीते चार पांच दिनों में इस मामले पर बहुत कुछ हो चुका है,लेकिन यह पहली बार हुआ है कि भारत ने अमेरिका को आँखें तरेर कर दिखाई है , अमेरिका ने सोचा  था खेद जाहिर कर बात बन जायेगी लेकिन ऐसा हुआ नहीं और भारत ने माफ़ी की मांग कर दी. अब अमेरिका अपने बचाव पर है और कह रहा है वह देवयानी पर से मुकदमे वापस नहीं ले सकता।  खैर अमेरिका अपने आचरण में सुधार के पुख्ता इंतज़ाम तो कर सकता है। 

अमेरिका में देवयानी के साथ जो कुछ भी हुआ , वह एक घटना मात्र नहीं है ,भारतीय संस्कारों और संस्कृति पर भी आघात है, अमेरिका अपने कानून के मुताबिक जो न्यायसंगत हो वह करे इस पर कोई आपत्ति होगी तो हम जवाब देंगें लेकिन इस भले देश को यह तो सोचना चाहिए कि वीसा नियमो पर कारवाई करते हुए वह बदसलूकी और पड़ताल के नाम पर बेहुदी जांच का क्या औचित्य है। नौकरानी को कानून सम्मत मेहनताना नहीं देने की जांच शरीर के भीतर तक कैसे जाती है ,कपड़ों के भीतर वह कौनसी चीज़ छिपी होती है जिसे अमेरिकी कानून के मुताबिक यह सिध्द कर दे कि संगीता रिचर्ड को दिया जा रहा मेहनताना इतना कम है कि वह कानूनन अपराध है। आश्चर्य हैं हर अपराध पर क्या अमेरिका में एक जैसी जाँच होती है। 

निर्लज्ता  एक असभ्य कृत्य है , महिलाओं के सन्दर्भ में या महिलाओं के प्रति आचरण में इस सम्बन्ध में बेहद संजीदगी होना चाहिए , लेकिन अमेरिका का कानून उसे निर्लज्ज बनाता है. महिलाओं के प्रति उसका आचरण असभ्य और अपमानजनक है।  देवयानी प्रकरण पर नियमों के मुताबिक चाहे जो हो लेकिन देवयानी के साथ जो सलूक अमेरिका ने किया है वह भारतीय संदर्भ में बेहद निर्लज्ज कृत्य है जिसे माफ़ नही किया जा सकता। एक भारतीय राजनयिक जो देश के मिशन पर , कर्तव्य पर है उसके खिलाफ कारवाई करने के पूर्व उस देश को भी शिष्टाचार में सूचित किया जाना चाहिए यहाँ भी अमेरिका अशिष्ट व्यवहार का दोषी है। अमेरिका चाहे जो दलील दे , अपने को सही ठहराए लेकिन उसकी निर्लज हरकत उसे असभ्य करार देने के लिए काफी है।  

दुःख इस बात का है कि इस मामले पर सख्ती करने वाले एक भारतीय मूल के प्रीत भरारा हैं , क्या भारतीय होने के नाते उनमें महिलाओं के प्रति आचरण का संस्कारित गुण नहीं मिला है ? और क्या दुनिया का सबसे बड़ा देश इतना असभ्य है कि महिलाओं के बेइज्जत करने में भी नहीं चुकता , शर्म करो अमेरिका और अमेरिकियों ,अतिथि देवो भव: के कुछ संस्कार हमसे लेते जाओ।  
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Wednesday, December 18, 2013

शिव राज़ में हरि पूजा का महत्व

शिव  राज़ में हरि पूजा का महत्व 

शिवराजसिंह को मनो शपथ कि रफत पड़ती जा रही है उन्होंने तीसरी बार मप्र के मुख्मंत्री की शपथ ली है। शपथ लेते हुए वे अत्यंत भावुक हो चले , सीधे सरल स्वभाव के शिवराज राज़ को धर्म की  तरह ही चलाते रहे हैं सो उन्होंने कहा भी कि जनता उनकी भगवान् है और मप्र उनका मंदिर। लिहाज़ा वे मुख्मंत्री के नाते इस मंदिर के पुजारी हो ही गए , उन्हें बधाई इस बात की कि उन्होंने इस सर्वोच्च प्रादेशिक प्रतिष्ठा को सरल और साधारण भाव से अंगीकार किया।

शिवराज की विशेषता है कि वे अपनी ऊंचाई को कभी नापते नहीं और दूसरों को बराबरी या अपने से ऊंचा ही देखते हैं सो परिणाम भी उन्हें मिल रहे हैं और जनता उन्हें ऊंचाई पर स्थापित कर रही है , कह सकते हैं इसमे उनके अपने भाग्य का भी स्थान है और उनका भाग्योदय होना था तो उमा भारती फिर बाबूलाल गौर को  समय ने चलता कर उन्हें मप्र का भाग्य विधाता बना दिया। शिवराज सिंह १२ दिस २००८ को पहली बार मुख्यमंत्री बने तब लगता था एक नवयुवक से दिखने वाले को बीजेपी ने शायद भरपाई के लिए ही फिलवकत  का मुख्यमंत्री  बना दिया था तब बाबूलाल गौर से वह छबि नहीं उभर रही थी जो बीजेपी चाहती थी। बीजेपी का दांव सफल रहा और प्रदेश को एक ऐसा मुख्यमंत्री मिल गया जिसने न केवल खुद को स्थापित कर लिया बल्कि लोकप्रिय सरकार को भी स्थापित कर बीजेपी को मज़बूत आधार दिया। वे आज मप्र में सर्वाधिक दिन तक राज़ करने वाले नेता दिग्वियजय सिंह को पीछे छोड़ने की स्थिति में है और उनसे ज्यादा लोकप्रिय भी।

शिवराज सिंह ने आते ही अपनी महिमा दिखाई एक रु किलो चावल , गरीबो को जमीन के पटटे ,किसानो को फसलों का मुआवजा तत्काल घोषित कर दिया। घोषणापत्र के प्रति कटिबध्दता इसे कहते है और यही किसी भी नेता पहला गुणी कृत्य भी होना चाहिए। कह सकते हैं शिवराज २०१४ को देखते हुए तत्काल कदम उठा  रहे हैं मक़सद साफ़ है मोदी के लिए उनका अपना काम शुरू हो चूका है। लेकिन ठीक है न, काम करेंगें तब ही पुरस्कार मिलना चाहिए और वे तो उन्हें मिले अवसरों को पुरस्कार में बदल रहे हैं जो उनका हक़ और उनकी  नैतिक नीति की  उपज है।  शिव कि इस महिमा से उनके विरोधियों में बौखलाहट उपजेगी भी लोग उन्हें मंदिर नहीं मठ  का मठाधीश भी बतायेंगें और पुजारी कि जगह पंडा कहकर भी पुकारेंगे लेकिन काम तो उन्हें करना ही है और पुजारी बनकर करें या  किसी भी तरह उनका भगवान् उनसे खुश रहना चाहिए , भगवान् ने भी उन पर भरोसा जताया है सेवा का फिर अवसर मुहैय्या करवाया है तो उनके गुण और समपर्पण को देख कर ही।

शिवराजसिंह इस मध्य -मंदिर  के बड़े पुजारी हैं आने वाले दिनों में वे सह पुजारियों की नियुक्ति करेंगें तो उम्मीद कि जाना चाहिए मंदिर का सुशासन इस तरह का होगा कि कोई भी सह-पुजारी भगवान् के चढ़ावे में कोई हेरफेर नहीं कर सकेगा , जन भगवान् का चढ़ावा , भोग ,उपहार और गहने सब उन्हें सम्पूर्ण ईमान के भाव से अर्पण होंगें , देखना होगा कि किसने ऐसे हेरफेर किये हैं और उन्हें अब मॉयका नहीं मिले।  फिर भी ऐसा हुआ भगवान का विश्वास छीन जाने का का कारन तो होगा ही साथ ही भगवान् कि कुदृष्टि का भय भी।  इसलिए शिव के राज़ में हरि (जनता) की पूजा का अपना महत्व है और वह शुरू हो चूका है
सुरेन्द्र बंसल
इंदौर 

Sunday, December 8, 2013

जो खास है वह आम है



चार राज्यों के चुनावों में परचम बीजेपी का दिख रहा है लेकिन जो खास है वह आम है।आम याने बेहद झोला छाप आदमी जो सांसारिक भौतिकता से परे बस एक इंसान की तरह जिए।लेकिन कोई आम आदमी पार्टी बनकर सियासत को उलट दे तो इस राजनैतिक विहंगमता को सृष्टि की रचना नहीं दृष्टि (सोच) की उज्जवलता ही कहा जाएगा। जिस तरह से अरविन्द केजरीवाल ने सत्ता में भागीदारी की चुनौती को स्वीकार कर पूरे ज़ज्बे से मैदान में डटकर हर परिस्थिति का मुकाबला किया यह ऐतिहासिक राजनैतिक विहंगमता ही है। हालाँकि दिल्ली के साथ चार राज्यो में चुनाव हुए हैं लेकिन दिल्ली के बदलते दिल ने कई राजनैतिक पार्टियों के दिल की धड़कन अवश्य बढ़ा दी है।

जो लोग सियासत को एक धंधे का उपक्रम समझते हैं उनके लिए विधानसभा चुनाव एक तमाचा है। देख लीजिये स्थापित राजनैतिक पार्टियां आज प्रोफेशनल पार्टियां बन गयी है और लाभ हानि के सारे व्यवसायिक गणित के लिहाज़ से संचालित हो रही है ऐसे में कोई आम दल बेहद संजीदा तरीके से मैदान में आता है और अपनी नयी अस्मिता बना लेता है तो समझिये आम लोग न केवल बदलाव को आतुर है अपितु नए और आशान्वित लोगो को आगे बढ़ने का मौका देना चाहते हैं ,जाहिर है दिल्ली ने जताया है कि लोग उम्मीदों को लेकर जी रहे हैं और मौके की तलाश कर रहे हैं।

यह चेतावनी लोकतंत्र से सबके लिए है। कोई यह न समझे कि घोटालों और महंगाई की मार से मरी कांग्रेस इसका शिकार थी , हो सकता है आम लोग मप्र , राजस्थान और छत्तीसगढ़ में होते तो कुछ हद तक यहाँ भी खेल बिगाड़ देते। इसलिए लाइन पर चलने की चेतावनी और झोला छाप आम होने का अब सबको इशारा है , सीख ही न जाएँ कुछ संभल भी जाएँ राजनैतिक दल। उन्हें यह जाता हुआ २०१३ बहुत कुछ सीख देकर जा रहा है। कोई जश्न की बात ऐसे किसी दल के लिए नहीं है जो पहले से या बरसों से स्थापित है। हालांकि हो सकता दिल्ली में आम पार्टी नहीं होती तो बीजेपी के लिए साफ़ मेंडेन्ट होता लेकिन यहाँ यह भी सोच सकते हैं दिल्ली में बीजेपी न होती तो शायद आम आदमी पार्टी ऐतिहासिक सरकार का निर्माण कर लेती जो स्वतंत्र भारत में पहली बार चुनाव लड़कर सरकार बनाने वाली होती।

बात कुछ अन्ना हज़ारे की भी करें। उन्होंने उस अरविन्द केजरीवाल को बहुत हलके से लिया जिसने लोकतंत्र के सबसे बड़े न्यायालय में में शीला दीक्षित जैसे १५ साल पुराने बरगद को २२ हज़ार वोटों से हराकर ठूंठ बना दिया। अन्ना अब कह रहे हैं वे संविधान अनुसार किसी का पक्ष नहीं ले सकते लोकतंत्र की चुनाव प्रणाली भी संवैधानिक है और अरविन्द ने कोई ज़ज्बा दिखया है तो उसका समर्थन भी साफ़ दिख रहा है। हालाँकि अन्ना भी सोच रहे होंगें उन्होंने गलती की है लग रहा ठंडा पड़ गया उनका जोश अब परिणामों से कुछ गर्म हो चला है।

जाहिराना तौर पर इस चुनाव ने दिखा दिया है जो खास है वह आम है। लोग जरुर नतीज़ों से उत्साहित होंगें और २०१४ की पटकथा इस चुनाव से ही लिखी जायेगी।


जो खास है वह आम है
सुरेन्द्र बंसल

Saturday, November 30, 2013

उजले चेहरे पर कालिख

उजले चेहरे पर कालिख 
सुरेन्द्र बंसल 

यह समय कलियुगी  है , साल बीत रहा है सिर्फ तीस दिन बाकी है लेकिन गिनेंगे तो शायद तीस ऐसे लोग मिल जायेंगें जिनके चेहरों पर इस साल कालिख पुती है इनमे दो तरह के लोग ज्यादा चर्चित रहे।  एक- जो लोग लाखों करोडो के घोटालों में चर्चित रहे दो- वे लोग जो चारित्रिक रूप से लंगड़े हैं , अफ़सोस इनमें नया नाम तरुण तेजपाल का है जो मीडिया बिरादरी से है ,बेशर्म घोटालेबाज़ तो आज भी इज्जतदार बने हुए फिर रहे हैं कुछ जेल में हैं लेकिन जिनकी इज्जत तार तार हुई है चरित्र भंग हुआ है ऐसे नामचीन लोगों के बारे में क्या कहें और इज्जत की दुहाई देने वाले लोगों के चेहरे जब कालिख से पुत जाएँ तब उनके बारे में क्या कहें?

ऐसा नहीं है कि अभी समय बहुत खराब हो गया है अचानक चरित्र का पतन होने लगा है।  पहले भी इतने ख़राब लोग रहे हैं जो उत्पीड़न के ऐसे काम करते रहे हैं लेकिन तब बातें  बाहर  नहीं आती थी।  कारण एक तो तब  मीडिया इतना पहुँच के भीतर नहीं था दूसरा पीड़िता भी लोकलाज और सामाजिक बदनामी के भय से इतनी निडर नहीं थी।  आज जब बहुत से मामले बाहर आ रहे हैं  तो प्रतिकार करने की क्षमता और   निर्भयता में वृद्धि होना है। लोग कहेंगें मामले झूठे भी हो सकते हैं लेकिन कितने झूठे होंगें १५-२० फीसदी। तब ८० फीसदी मामलों की अनदेखी नहीं की जा सकती।  

लेकिन मामलों की  गम्भीरता इस बात की है कि अभी ऐसे उजले चेहरे सामने आये हैं जिनकी तरफ ऊँगली उठाने में हाथ कांपते है क्या ऐसे समझदार,चमकदार और असरदार लोग इतने काले , झूठे और गिरे हुए हो सकते हैं? चरित्र से ये लोग इतने गरीब हो चुके है जो इज्ज़त  लुटते हुए स्वयं इज्ज़त से डूब गए खाली हो गए। आसाराम से लेकर तरुण तेजपाल तक जिनका चरित्र फट चूका है गिर चूका है अपनी कालिख को कैसे भी साफ़ करने का प्रयास करे उनका चेहरा अब कभी उजला नहीं हो सकता।  काला रंग कभी अपना स्वाभाव नहीं बदल सकता वह हमेशा उजालों में कमी कर अंधकार की ओर ही जाता रहेगा।  

जो चेहरे इन दिनों काले हो गए है वे उनके उजले तप के नहीं हैं, मेहनत की  गर्मी से नहीं है वे सब बदनाम कृत्यों से और चारित्रिक रोग के उभर आने के स्वमेव लक्षण हैं। ये सब वासनाओ के वशीभूत अन्धत्व्  के शिकार हैं और अपनी चमक ,उजालो से इतने चकाचौंध हैं कि गिर कर अपनी बेटी जैसी से भी काले काम कर रहे हैं इन्हें कितना धिक्कार करें। तरुण तेजपाल जो पत्रकारिता के साहसिक इंसान की तरह स्थापित थे उन्होंने इतना दुःसाहस कर कालिख से भरा पूरा डिब्बा अपने उजले चेहरे पर उलट लिया।  मीडिया का कोई शख्स  इस तरह बदनाम होता है तो हैरत होती है।  मीडिया का काम ही हाथ में टॉर्च लेकर उजाला बांटना है फैलाना है आखिर क्या कर रहे हैं लोग। कब तक उजले चेहरे काले होते रहेंगें ऐसा चलता रहेगा तो अंधेरों से ही नहीं उजालों से भी डर लगने लगेगा। 

एक बात और मैं यह सोच रहा हूँ मीडिया में और कितने तरुण तेजपाल हैं , क्या तरुण तेजपाल तहलका में ही है या बहुत से तरुण तेजपाल कई जगहों पर है , कुछ खोजिये सोचिये कितने उजले चेहरों पर कालिख कहा कहाँ है ?

Saturday, November 16, 2013

सच है सचिन !

सच है सचिन !
सुरेन्द्र बंसल 

यह सच है कि रत्न की  तरह भारत में और विश्व क्रिकेट में चमकते रहने वाले   सचिन अब क्रिकेट खेलते हुए नहीं दिखेंगें लेकिन यह भी सच है कि उनके करोडो फेंस कि आँखों से बरबस छलक पड़े आंसू भी उनसे भावनात्मक लगाव का जीवंत सच है। सचिन क्रिकेट की  एक ऐसी  सच्चाई रहे जिस सच का सामना सबने किया और सब उस सच से आनंदित होते रहे एक दो नहीं पूरे चौबीस साल तक।  सौ शतक, सैकड़ो रिकॉर्ड ,अद्भुत खेल , क्या नहीं था सचिन के पास।  यही वजह थी जब सचिन 74 रन बनाकर पवेलियन लौटे तो बरबस ही अपनी आँखें गीली हो गयी , उस व्यक्ति के लिए जिसे मैंने कभी भगवान् नहीं माना और न ही कभी भारत रत्न दिए जाने कि तरफदारी की।  दोनों ही बाते अपने को जायज नहीं लगी।

क्यों ? मेरा कहना है सचिन को एक सच रूप में देखो।  जैसा वह दिख  रहा है जैसा वह खेल रहा है ,जैसा वह कर रहा है सब कुछ इस जीवन का ऐसा सच है जिसे हम  महसूस कर रहे हैं ,आनंदित  हो रहे हैं और एक यथार्थ के रूप में देख रहे हैं फिर जब हम  सचिन को देख रहे हैं तो उसे सचिन ही रहने दो यही सच है।  किसी भगवान् को हमने कभी नहीं देखा है लेकिन सचिन को क्रिकेट खेलते इस तरह देखा है कि हमारा रोमांच चरम हो जाता है, सर गर्व से ऊंचा हो जाता है इसलिए सच यही है कि सचिन सचिन है जो सबसे बढ़कर  है। 

यह भी सच है कि सचिन अमोल रत्न है ,जिस तरह का क्रिकेट सचिन ने खेला है वह क्रिकेट की दुनिया के अनमोल रत्न है लेकिन भारत रत्न एक राष्ट्रीय अवार्ड है जो कई विधाओं और परिप्रेक्ष्य , अपरिमित राष्ट्रीय योगदान ,कला और विशिष्ठता के लिए ही दिया जाना चाहिए ,खेल महज एक हिस्सा है उसमे इतना बढ़ा सम्मान देखना शायद भारत रत्न की  महता को कम करना है , पद्म भूषण ,विभूषण ,खेल रत्न अवार्ड आदि सब हैं जो दिए ही जा रहे हैं ,दरअसल भारत रत्न को मैं  एक विशिष्ठ दर्ज़ा देता हूँ और उसके मापदंड बाहर सख्त और दृढ होना चाहिए इसलिए मेरा समर्थन कभी सचिन को भारत रत्न देने का नहीं रहा।  पर अब जब उन्हें इस सर्वोच्च भारतीय सम्मान से पुरस्कृत किया गया है तो समूचे देश के साथ जश्न मनाया जाना चाहिए। 

लेकिन सचिन में मौज़ूद एक अद्भुत खिलाडी की  सचाई को हम कभी नहीं नकार सकते ,सचिन ने खेल को जिस तरह जिया और जिस तरह प्रदर्शित किया यह हैरत की  बात है।  सचिन ने क्रिकेट से दिखाया कैसे कब आक्रामक होना चाहिए  , कब सुरक्षात्मक होना चाहिए , किस तरह का प्रबंध अपनी टीम के लिए अपने प्रदर्शन से करना  चाहिए और किस तकनीक से खेलना चाहिए , इतनी सचाई से रुबरु होना सचिन की  महानता है अब जब सचिन क्रिकेट में नहीं होंगें मैं सोचता हूँ वे तब भी क्रिकेट कि सेवा करते रहेंगें और देश के लिए अपने जैसे खिलाडी तैयार करने का एक और महँ काम शुरू करेंगें।  अलबिदा  नहीं कहेंगें सचिन , क्रिकेट सदा तुम्हारे साथ रहेगा और हम सब भी तुम्हारे साथ क्रिकेट जियेंगें। 

Sunday, September 15, 2013

नीति सही रीति गलत

नीति सही 
रीति गलत 

देश के राजनैतिक माहौल में इस समय अजीब गंध है।  नरेन्द्र मोदी का डंका बज़ रहा है महाशोर है ,जोर है,गूंज है और कौतुहल है ,उम्मीदें हैं,विश्वास है और कहीं भय भी है।  लेकिन बावजूद इन सबके नरेन्द्र मोदी देश की विपक्षी राजनीति के सिरमौर नेता नामज़द हो गए हैं। यह सब तब हुआ जब बीजेपी के या संघ के सत्तर साली कार्यकर्ता लालकृष्ण आडवाणी के प्रबल विरोध और दबे छुपे कुछ नेताओं के विरोधों के बाद। कहा जा रहा है नरेन्द्र मोदी प्रधान मंत्री पद के उम्मीदवार हैं और राजनाथ सिंह ने उन्हें बाकायदा कंडीडेट घोषित किया है मीडिया भी उन्हें उम्मीदवार ही कह रहा है ,यह समझ से परे है मोदी न प्रत्याशी हैं न उम्मीद्वार है. देश की संवैधानिक प्रक्रिया प्रधानमंत्री के सीधे चुनाव की कहीं इज़ाज़त नहीं देती हमाँरे यहाँ की चुनाव प्रणाली में प्रधानमंत्री का पद चयनित पद है जिसे निर्वाचित सांसद चुनते है। लोकतंत्र में लोकमत यह जानने  के लिए होता है कि क्षेत्र की जनता किसे निर्वाचित कर संसद में प्रतिनिधित्व करने भेजती है और निर्वाचित सांसद अपना प्रधानमंत्री बहुमत के आधार पर चयनित कर सरकार का निर्माण करते हैं। 

नरेन्द्र मोदी  को उम्मीदवार कहने से लग रहा है कि  गोया प्रधानमंत्री का सीधा चुनाव होने जा रहा है। दरअसल यह नीति ही गलत है और संवैधानिक नहीं है।  मोदी प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार हो नहीं सकते और न ही इसकी घोषणा की जाना चाहिए वे प्रधानमंत्री पद के दावेदार बीजेपी की तरफ से है और बहुमत की स्थिति में वे प्रधानमत्री होंगें , इसलिए जिस रीति से उन्हें उम्मीदवार घोषित किया जा रहा है वह गलत ही है। यहाँ लालकृष्ण आडवाणी सही कह रहे है उन्हें पार्टी अध्यक्ष की कार्यप्रणाली ठीक नहीं लग रही है।  नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री घोषित करने के लिए जो रीति अपनाई गयी उसमे और भी खामियां है। प्रधानमंत्री का पद एक राष्ट्रीय पद है जिसकी विशेषताएं भी हैं और वह अहम् योग्यताएं भी है। यह दीगर है कि कांग्रेस ने कभी प्रधानमंत्री पद को अहम् योग्यताओं के आधार पर चयन नहीं किया लेकिन सुशासन के आधार पर राज़  करने की नीति वाली बीजेपी को मोदी केंद्र में लाने के लिए कुछ जल्दी और त्वरित कदम उठाये जाना चाहिए थे। 

मसलन उन्हें गुजरात चुनाव के बाद ही केन्द्रीय राजनीति  में सक्रीय किया जाना चाहिए था पार्टी के उन नेताओं के साथ जो पहले से बीजेपी की केन्द्रीय राजनीति में सक्रियता से पार्टी के लिए काम कर रहे है।  मोदी प्रदेश आने वाले क्षेत्रीय नेता रहे उनकी लोकप्रियता  व्यापक जरुर हुई लेकिन इसे कभी परखा नहीं गया।  वे कभी संसद में नहीं गए ,राष्ट्रीय  नीतियों के हिस्सेदार नहीं बने , कुछ महीनो से जरुर वे राष्ट्रीय राजनीति के हिस्सेदार हो रहे है लेकिन मोदी में पार्टी कोई प्रधानमंत्री पद की संभावना देख रही थी तो उन्हें प्रदेश से दिल्ली लाना चाहिए था और सक्रियता से आगे बढ़ाना चाहिए था।  बीजेपी के जो नेता प्रदेश छोड़ केन्द्रीय राजनीति में सतत लगे है , संसद के भीतर और बाहर पार्टी की नीतियों के अनुरूप काम  कर रहे हैं संघर्ष कर रहे उनकी योग्यताओं का आकलन कम करना है।  मोदी ने यदि उनकी योग्यताओं के आधार पर केन्द्रीय राजनीति में हिस्सेदारी की होती तो  हो सकता है बीजेपी ज्यादा आक्रामक दिखती और यूपीए  के लिए ज्यादा मुश्किलें हो सकती थी । 

फिर भी बीजेपी की नीति सही है।  उसके पास बहुत से प्लस पॉइंट इस बार है , यूपीए  घोटालों से बदनाम सरकार है ,भ्रष्टाचार  से बदनाम है , मंहगाई से बदनाम है ,आर्थिक दुर्दशा से बदनाम है ,ये हालत सत्ता परिवर्तन के लिए अच्छा माहौल तैयार कर रहे हैं लोग क्रुद्ध है और विकासशील,ईमानदार और लड़ाकू नेता की ओर देख रहे है ,विपक्ष में नरेन्द्र मोदी से बेहतर इन आधारों खरा और कोई नहीं दीखता इसलिए उन्हें प्रधानमंत्री की तरह प्रोजेक्ट करना सही नीति हो सकती है।  लेकिन नीति के साथ रीति भी खरी और सच्ची होना चाहिए। 
सुरेन्द्र बंसल

मोदी आये तो ये गए

साठ  पार मोदी के आने पर साठ पार नेताओं की होगी छुट्टी 
मोदी आये 
तो ये गए    

देश की प्रमुख विपक्षी राजनैतिक पार्टी बीजेपी में जश्न है कि मोदी आ गए हैं और वयोवृद्ध नेता लालकृष्ण आडवाणी  के नैतिक विरोध के बावजूद। लेकिन सच यह है की मोदी  अभी आये नहीं है अभी उनकी यात्रा शुरू हुई है यह यात्रा एक कवायद है २०१४ में सीट संख्या बढ़ाने की जिसका मोदी को महज नेतृत्व मिला और इस कवायद में मोदी कामयाब हो गए. यदि उन्होंने उतनी सीटें जुटा ली जिससे केंद्र में बीजेपी सत्ता पर काबिज़ हो जाए तब मोदी निश्चित तौर पर प्रधानमंत्री होंगें लेकिन इस तरह मोदी वाकई आ गये तो बीजेपी की वर्तमान फ्रंट लाइन के नेता रसातल में चले जायेंगें याने उनकी उम्मीदें ख़त्म हो जायेगी ,ऐसे नेता साठ पार के हैं जबकि नरेन्द्र मोदी स्वयं भी साठ पार हैं। 

 लाल कृष्ण आडवाणी  १९२७ में  जन्में और ८६ साल के होने जा रहे हैं ,सुषमा स्वराज  का जन्म 1952 को हुआ और वे  61साल की हो चुकी हैं ,१९५१ में जन्मे बीजेपी अध्यक्ष राजनाथ सिंह ६२ पार हो गए हैं ,मुरली मनोहर जोशी भी १९३४ में जन्मे और ८० पर पहुँच रहे हैं ,यशवंत सिन्हा १९३७ में जन्मे है और वे ७६ पार हो गए हैं ,१९५४ में जन्मे  रविशंकर प्रसाद जरुर मोदी से छोटे है पर साठ पर जल्दी हो जायेंगें , वेंकैय्या नायडु १९४९ के हैं और ६४ के आगे जा चुके हैं।  ये सब बीजेपी के फ्रंट लाइन नेता है जाहिर है बीजेपी का मोदी मिशन सफल होता है तो  यह  भी साफ़ है कि इन नेताओं के नेतृत्व के आसार हमेशा के लिए ख़त्म हो जायेंगें , यह स्थिति मोदी के प्रधानमंत्री बनने से उत्पन्न  होगी क्योंकि उनके पी एम् बनाने से ये सभी नेता कोई सत्तर पार तो कोई अस्सी पार पहुँच जायेंगें और सब तब आज के लालकृष्ण आडवानी की स्थिति में आ जायेंगें। दिख रहा है मोदी के मनोनयन से बीजेपी की एक पौध नहीं ख़त्म हो रही बल्कि ऐसे ऊँचें पेड़ राजनैतिक कट जाने वाले हैं जिनकी ऊँची महत्वाकांक्षा हमेशा के लिए समाप्त हो जाएगी। तब ये नेता सिर्फ मोदी के केंद्र में सत्तासीन होने पर या तो राष्टपति ,उपराष्ट्रपति ,राज्यपाल  जैसे गैर राजनैतिक पदों तक सीमित हो जायेंगें या मोदी के अधिनस्थ काम करने को मजबूर होंगें। यह बीजेपी के लिए चुनौती भले न हो लेकिन एक सक्षम नेतृत्व की पूरी लाइन का ख़त्म होना जरुर है। 

इनकी उम्मीदें है बरकरार 

 बीजेपी के पास दूसरी लाइन के नेताओं की कोई कमी नहीं है और उसके पास नवागत नेतृत्व के लिए मोदी के बाद के लोग अभी से है जिसमे अधिसंख्य साठ  के नीचे है , इन नेताओं में मप्र के सी एम् शिवराज सिंह चौहान जो फिलवक्त ५४ के हैं और १९५९ में जन्में हैं , राजीव प्रताप रूडी १९६२ के नौजवान नेता हैं सिर्फ ५२ साल के हैं ,शाहनवाज़ हुसैन भी सर्वाधिक तेजतर्रार और ४४ साल के युवा है ,नितिन गडकरी विवादित , आरोपित नेता जरुर हैं लेकिन महज ५७ साल के हैं उनका जन्म १९५७ का है कर्णाटक के नेता अनंत कुमार भी सिर्फ ५४ साल के के हैं  और शिवराज की तरह १९५९ में जन्मे हैं। वहीँ अनुराग ठाकुर , वरुण गाँधी ,स्मृति ईरानी , सुशील मोदी , शत्रुघ्न सिन्हा और भी नेताओ की लम्बी फेहरिश्त है जो न केवल आज मोदी की विकास फौज के अधिकारी हो सकते हैं बल्कि भविष्य में नेतृत्व के लिए भी तैयार हो सकते हैं।
मोदी के लिए ये चुनौती है 

नरेन्द्र मोदी चुनाव में बीजेपी की सत्ता बनाने में कामयाब होंगें तब ये स्थितियां बनेगी , लेकिन बड़ी चुनौती यही है कि  कैसे मोदी ११६ से २७२ के पार ले जायेंगें बीजेपी को. यह एक कठिन काम है हालाँकि मोदी को यूपीए की घोटालेबाज़ी वाली बदनामी से आसान दिखती है लेकिन समीकरण इतने ही होते तो बीजेपी मोदी की ताजपोशी की जल्दबाजी नहीं करती , हिन्दुत्व इसमे बीजेपी का छुपा हुआ मुद्दा है लेकिन मोदी शैली का विकास बीजेपी का खुला मुद्दा है , सेक्युलर मोदी की छबि पेश करने की कोशिश कर मुस्लिम मानसिकता में बदलाव लाना बीजेपी का दूसरा मुद्दा है और इस मुद्दे पर संघ भी काम कर रहा है।  तमाम  कोशिशों के बाद यदि मोदी कामयाब हो जाते है तो अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवानी के बाद बीजेपी में मोदी युग की शुरआत हो जायेगी। और असफल रहे तो बड़े नेताओं में पुराने चावल की तरह महक फिर कामयाब हो जाएगी ,नरेन्द्र मोदी आज एक प्रयोग बन गए हैं इसे राजनाथ की प्रयोग शाला कहें या संघ प्रमुख मोहन भगवत की लेकिन इसके परिणाम बीजेपी को बेहद असर करने वाले हैं। 

आम चुनाव में बीजेपी का अब तक प्रदर्शन 

 साल आम चुनाव सीट जीती परिवर्तन  % वोट वोटों का झुकाव 
19807वीं  लोकसभा 0000
19848वीं  लोकसभा2+27.74%+7.74%
19899वीं  लोकसभा85+8311.36+3.62
199110वीं  लोकसभा120+3720.11+8.75
199611वीं  लोकसभा161+4120.29+0.18
199812वीं  लोकसभा182+2125.59%+5.30
199913वीं  लोकसभा182023.75–1.84
200414वीं  लोकसभा138-4422.16%-1.69
200915वीं  लोकसभा116-2218.80%-3.36%
 201416thवीं  लोकसभाTBDTBDTBDTBD

Monday, August 12, 2013

रज़ा ने की मुराद पूरी


हो सकता है यह अनहोनी में हुआ हो ,लेकिन कांग्रेस के लिए ईद पर रजा मुराद बड़ा काम कर गए। शिवराज की मौज़ूदगी में मोदी पर कटाक्ष किसी उपहार से कम नहीं है और तब जब प्रदेश अध्यक्ष समेत तमाम नेता वहाँ मौजूद हो। मुख्यमंत्री ईद मिलन के लिए आये हों और तारीफ़ के रास्ते से विवाद की गेती से यदि गड्डे खोद दिए जाएं तो लगता है यह किसी की रजा से मुराद पूरी करने का उपक्रम है।   

रज़ा मुराद ने कितना अभिनय किया और किसलिए किया इससे ज्यादा महत्वपूर्ण  है किसके लिए किया। हालाँकि रज़ा कह रहे है उन्होंने कुछ नहीं किया वे तो सिर्फ गुजरते हुए ठहर गए और जो समझ पड़ा कह गए लेकिन जाहिराना तौर पर यह कांग्रेस के लिए एक तोहफा है तो बीजेपी के लिए भीतर आग सुलगाने वाला भी। रज़ा मुराद की लगायी चिंगारी ने मीडिया चैनलों पर जमकर आग बरसाई और वे दिन भर  भागते भागते अपनी सफाई देते रहे और कहीं तो वे उठकर भाग चले। 

सवाल यह है की रज़ा ने इतना कूटनीति से  बयान क्यों दिया  जिससे एक जगह आग दूसरी जगह राहत महसूस हुई। आखिर रज़ा ने किसकी मुराद पूरी की ,कांग्रेसियों की या बीजेपी के मोदी विरोधियों की। दरअसल राहत बीजेपी के भीतर आडवाणी समर्थकों को भी मिली है लेकिन इससे बीजेपी के भीतर मामला सुलगा , इसे नरेन्द्र मोदी पर आक्रमण बताया गया और चूँकि शिवराज चौहान वहां मौजूद थे इसलिए यह चिंगारी तेज़ भड़की।  सवाल उठे कि क्या शिवराज ने टोपी जानकार पहनी ? रजा  की हरकत से शिवराज नाहक बदनाम हो गए और उन्हें मोदी से भिड़ने , मोदी को टक्कर देने का औजार बना दिया गया. यह इसलिए भी की जिस वक़्त रजा यह मुराद पूरी कर रहे थे शिवराज उनसे सटे वहीँ खड़े थे   शिवराज ने जब टोपी पहनी तो उन्होंने भी मुस्लिम वोटो को रिझाने का उपक्रम किया था रज़ा  ने इसे अपरोक्ष रूप से मोदी की टोपी विवाद से जोड़कर  इस पर पानी फेर दिया और आग लगा दी। 

यह कहीं नहीं लगता कि  यह रज़ा  की मुराद थी।  जाहिर होता है यह किसी की रज़ा से पूरी की गयी मुराद थी ,रजा मुराद घबराए से दीखते रहे इसलिए कि  वह राजनीतिज्ञ नहीं है बोल गए कहने से और बे-सोचे , सफाई उनसे बनी नहीं और मिठास में कडवाहट डालने का काम ईद पर कर गए। उन्होंने मुस्लिमों में यह सन्देश दे दिया की नरेन्द्र मोदी ने टोपी नहीं पहनी थी इसे याद रखो वहीँ शिवराज की तारीफ़  कर यह दिखलाया कि यह टोपी में असलियत कितनी है और अल्पसंख्यकों की रहनुमाई कितनी है , बहुत गहरे और विषम अर्थो वाला कटाक्ष राजा मुराद ने किया । बीजेपी की दृष्टि  से इसे नकारात्मक ही कहा जा सकता है जबकि कांग्रेस के लिए सकारात्मक।  इसलिए कह सकते है रजा ने मुराद तो कांग्रेस की पूरी की ईद के उपहार की तरह और बीजेपी की मीठी सिवैय्याँ को वही शिवराज सिंह के सामने ढोल दिया।  

Sunday, August 4, 2013

कई दुर्गाओं को अवतरित होना है

वह भवानी है इसलिए उसने राज़ से टक्कर ली है  नाम भी दुर्गा और शक्ति भी.यथा  नाम तथा काम की चरिथार्थक आएएस अफसर दुर्गा शक्ति नागदेव। यूपी की इस महिला अधिकारी को राज्याधिकारियों के मंसूबे  तो पता होंगें , यह भी पता होगा कि यूपी के राजनेता कितने दबंगई हैं फिर भी दुर्गा ने भवानी रूप धारण किया और अपने काम को नीतिगत ढंग से अंजाम दिया।  नीति दरअसल दो सम्मत व्याख्या करती है। एक राज़  सम्मत दूसरा कानून सम्मत।  अलबत्ता राज़ सम्मत  नीति किसी भी बाध्यता में कहीं न कहीं कानून से अलग नहीं हो सकती , उसकी अवहेलना नहीं कर सकती।  दुर्गा का निलंबन दरअसल राज सम्मत नीति और कानून सम्मत नीति का टकराव है। 

दुर्गा शक्ति ने जो किया वह कानून सम्मत है। किसी भी अधिकारी का प्रथम कर्तव्य कानून सम्मत नीति से कार्य करना है दुर्गा ने वही किया है। अतिक्रमित जमीन पर मस्जिद का निर्माण कानून सम्मत प्रक्रिया नहीं है यह तो इस निलंबन कांड का एक हिस्सा है इसका पर्दे के पीछे का हिस्सा भी जाहिर हुआ है बताया जा  रहा है सारी साज़िश के पीछे खनन माफिया है जिसके लिए दुर्गा एक चुनौती बनी हुई थी और इससे निबटने के लिए साम्प्रदायिकता को आधार बनाया गया। यह है तो यह नीति राज़ सम्मत भी नहीं है ,यह राजनेताओं का राज्य से दुराचार है. 

आज राज्य व्यवसाय  का आधार बनते जा रहे हैं राजनेता अब कॉर्पोरेट नेता हो गए हैं सारे घोटाले और करतूतें  राजनैतिक फायदों के साथ व्यावसायिक फायदों से जुडी होती है ,इसके लिए विधि को तोडा जाता है , नया बनाया जाता है रोका  जाता है और खंडित किया जाता है, सबके मूल में बेशुमार पैसा है ,लालच है और धनराज होने की कामना है। यह कॉर्पोरेट राजनीति और कॉर्पोरेट राज़ है इसमे लोकराज़ भी नहीं है और लोकलाज भी नहीं है।  इन सबसे परे जो हो रहा है चल रहा है सब अनीति है। कौन रोकेगा उसे और किस तरह रोकेगा।  कोई दुर्गा कहीं उठ खड़ी होती है तो उसे राजनैतिक गन्दगी दरिंदगी का शिकार होना पड़ता है.अब कोई  तिलक, पटेल या गाँधी नहीं है जो इन नेताओं की राजनीति की पाठशाला ले सके.

दरअसल राज़सम्मत नीति का स्वरुप बदल गया है  जो राज़ को मान दे वह राज़ सम्मत नीति होती है लेकिन मान राज़ नेता का बढ़  रहा है जो अहम और अहंकार के रूप में दिख भी रहा है।  यूपी के मंत्री नरेन्द्र भाटी ने इसे बेहूदगी से प्रदर्शित भी किया है और एक महिला को अपशब्दों से अपमानित किया है यह राज़धिकारियों का अनैतिक तंत्र है जो सिर्फ अपने अहम् ,अहंकार और बडबोलेपन के साथ राज्य का और जनता का शोषण कर रहा है। 

दुर्गा ने जो किया वह कानून सम्मत है लेकिन देश में ऐसी दुर्गाएं कितनी है कानून सम्मत काम निडरता से करने वाली दुर्गाएं और भैरवों की भी कमी है ,हर अफसर इतना ख़यालात कहाँ रखता है।  ज्यदातर अफसर आज राज़ के अनैतिक धंधे में बराबर के पार्टनर हैं लोकतंत्र मजबूत है लेकिन राजतंत्र भी उतना ही मजबूत है अपने अनैतिक इरादों में इसके लिए और ऐसे  लोग पार्टनर बनके  राज्य के साथ धोखा कर रहे हैं ,

देश में न अखिलेश एक है और न ही नरेन्द्र भाटी  अकेले है ऐसे  नेताओं से 
देश पटा  पड़ा है राज्य से लेकर केंद्र तक इन धुरंधरों की कमी नहीं है लेकिन अब भी कई दुर्गाओं  को अवतरित होना है, भैरवों को चौकस होना है तब ही राज़  राज़सम्मत और कानून सम्मत हो सकेगा। 

सुरेन्द्र बंसल 
surendra.bansal77@gmail.com

Saturday, June 22, 2013

उत्तराखंड का उत्तरदायित्व


बद्री-केदार और् चार धाम के  देवत्व क्षेत्र में प्रकोप की जो प्राकृतिक लीला हुई है उसे रोक जाना मुश्किल था लेकिन सवाल हमेशा उत्तर से संचेतना का संचार करते हैं .इसलिए उत्तराखंड का उत्तरदायित्व खोजा  और समझा जाना चाहिए . इस विलाप की घडी में दोषों का आलाप करना ठीक नहीं होता है लेकिन धर्मालु, श्रध्दालुजन इतनी बढ़ी तादाद में जहाँ पहुँचते हों और उससे हजारों लोगों को रोज़गार मिलता हो तो यह जिम्मेदारी बनती है कि वहां मूलभूत सुविधाओं  के साथ आवश्यक सुरक्षा इंतजाम प्राकृतिक आपदा नियंत्रण के तहत किये जाएँ .

इस बार की घटना को और उसकी महा विनाश की लीला को कितना रोक जा सकता था यह नहीं कहा जा सकता , लेकिन जहाँ लाखों लोग शीत के बाद पट खुलने का बेसब्री से इंतज़ार करते हों और यह शासन-प्रशासन ,व्यवस्थापकों ,निर्धारकों को पता हो कि कुंड ,सरोवरों ,नदियों के बीच दुर्गम पहाड़ी रास्तों के मध्य से गुजरती जिंदगियों के लिए सुरक्षा इंतजाम जरुरी हैं तो शायद इस हादसे की भयावहता इतनी बड़ी नहीं होती .चार धाम के इस दुर्गम इलाके में श्रध्दा का आवागमन कोई नया नहीं है बरसों से हज़ारों जिन्दगियां खतरों की चादर सर पर लपेट कर अपने प्रभु की तलाश में यहाँ आती रही है . तदसमय घर से निकलें इन जोगढ़ियों को हार-फूल ढोल -बाजे से बिदा और वापसी पर उतसाह से उतना ही स्वागत किया जाता था . आम तौर पर घर के बड़े-बूढ़े इन यात्राओं पर जाते थे आज स्थितियाँ बदल गयी है लोग सपरिवार जिनमे छोटे बच्चे भी होते हैं चार धाम को निकल जाते हैं . 

बदली हुई स्थितियों में सुविधाएँ भी बढ़ी  हैं और यात्रा भी सुगम हुई है लेकिन संख्यात्मक रूप से जो आवागमन बढ़ा है उसकी चिंता , चिंतन और इंतज़ाम उतने नहीं हुए जितना करना चाहिए थे , वृहद प्राकृतिक आपदा नियंत्रण बस सेमिनारों तक सीमित रह गए इन इलाकों के लिए  उस दृश्य की कल्पना किसी ने नहीं कि जो  विनाश के रूप में आज दिख रहा है.  इस दुखदायी लीला को प्रबंध से कम किया जा सकता था , विकास का जो चिंतन यहाँ हुआ है उसने उन चिंताओं को अंजाम देकर बता दिया कि प्रकृति से छेडछाड विकास नहीं विनाश है . आज हज़ारों लोग इस विनाश का शिकार हो गए हैं , हज़ारों परिवार इस त्रासदी को झेल रहे हैं , हज़ारों घर सुने और यतीम से हो गए हैं .कौन जिम्मेदार है ?

जिम्मेदारी को क्या सिर्फ यह  सोच कर ख़त्म किया जा सकता है कि  यह प्राकृतिक प्रकोप है ,बड़े बड़े बांध , नदियों को मार्ग परिवर्तन ,प्रकृति से संतुलन बनाने वाले पेड़ों की कटाई ,सराय  - होटलों से प्रदुषण सब होने देना किस तरह की जिम्मेदारी है , विकास के नाम पर व्यापार-  व्यवसाय  की रीति - नीति प्रकृति और जन के प्रति अप्राकृतिक कृत्य है इसका उत्तरदायित्व जीतना उत्तराखंड सरकार का है उतना ही केंद्र सरकार का भी है आखिर प्रबंधन के इंतज़ाम
संभावित आपदाओं के  अनुरूप नहीं किये गए और न ही उन पर कभी गंभीर विचार किया .
सुरेन्द्र बंसल 

मोक्ष के द्वार पर


by Surendra Bansal (Notes) on Friday, June 21, 2013 at 10:17pm

मैं  भावनाओ में बह जाना चाहता था ,
पता नहीं भावनाओं का बहाव 
कब रूद्र से रौद्र हो गया 
और मैं बहता गया बहता गया 
ठोकरें खाते खाते 
किसी पत्थर के बीच 
थम गयी मेरी फंसी हुई 
बहती हुई भावनाएं 
फूल गयी सांस ही नहीं 
यह शरीर भी .
साथ चले बहुत से रिश्ते 
कुछ दूर रह गए , कुछ दूर हो गए 
फिर भी कोई रंज शिकवा नहीं 
शायद मेरा मोक्ष 
द्वार पर इंतज़ार कर रहा है ...
सुरेन्द्र बंसल 
22 ;06 जून 21 , 2013  
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