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Sunday, March 24, 2013

इन्साफ भी सही इंसान भी सही



संजय दत्त को गैर क़ानूनी तरह से हथियार रखने के अपराध में सुप्रीम कोर्ट ने ५ साल की सजा सुनाई है . जाहिर है संजय का अपराध सजा की उस श्रेणी में आता है जहाँ से उन्हें बरी नहीं किया जा सकता . न्यायिक प्रक्रिया में जो हो सकता था, जितना हो सकता था उस न्यायसंगत निर्णय का पालन करना एक कर्त्तव्य भी है . संजय दत्त स्वीकार भी कर रहे हैं लेकिन यह भी है १९९३  के अपराध के बाद संजय बदले हुए एक नेक इंसान भी नज़र आ रहे हैं इसलिए यह आवाज़ भी आ रही है कि क्यों न उन्हें माफ़ी दे दी जाए .

दरअसल इन्साफ को किसी व्यक्ति विशेष के लिए चुनौती देना ठीक नहीं है। न्यायिक प्रक्रिया सभी नागरिकों के  लिए एक समान है जिसकी सभी को इज्ज़त और  मान करना है . व्यवस्था में न्यायिक प्रक्रिया एक महत्वपूर्ण अंग है जिस पर तमाम व्यवस्थाओं को संतुलित ,नियंत्रित और मर्यादा में रखने की अपरोक्ष जिम्मेदारी है .न्याय प्रक्रिया देश के कानून को सुरक्षित और संवर्धित करती है , इसलिए इसमें किसी तरह का भेदभाव नहीं है और न ही किसी तरह से कोई आरक्षित छूट किसी नागरिक को है , सबके लिए समान व्यवस्था और कानून है जिसका सबको पालन करना है . संजय दत्त भी यदि किसी अपराध की श्रेणी में हैं तो कानून उसके अंतर्गत सजा ही देगा कोई माफ़ी वह नहीं दे सकता . इसलिए संजय दत्त को ५ साल की कैद की सजा सुनाई गयी है. 

लेकिन कई बार लगता है कि सजा ज्यादा हो रही है या न होती तो अच्छा होता ऐसा तब होता है जब किसी के आचरण के बारे में आपको पता हो ,उसका वर्तमान ठीक हो। संजय दत्त के लिए अब कई लोग ऐसा ही सोचते हैं .इन लोगों का का विचार है की संजय अब वो नहीं है वे एक नेक इंसान हैं इसलिए उन्हें २० साल पहले के अपराध के लिए माफ़ी दे दी जाना चाहिए . ऐसा सोचने वाले बॉलीवुड के लोग भी हैं और राजनेता भी.लोग जब यह सोचते हैं तो गलत भी नहीं . यदि किसी के आचरण के प्रति सार्वजनिक मान्यता इस तरह हो कि वह एक भला इंसान है तो सहानुभूति की बातें तो आयेंगी ही . संजय को ये सहानुभूति मिल रही है तो कुछ गलत भी नहीं है .

जाहिर है संजय दत्त के मामले में इन्साफ सही हुआ है और यह भी कि वे अब एक अच्छे इंसान हैं .यदि कहीं माफ़ी की बात होती है तो यह देखा जाना चाहिए कि कानून सम्मत दृष्टि से क्या उन्हें माफ़ किया जा सकता है . यदि ऐसी किसी प्रक्रिया में वे आते हैं तो यह पड़ताल की जाना चाहिए कि क्या वे वाकई माफ़ी के हकदार हैं , क्या उनका आचरण और कृत्य  सामाजिक मूल्यों के अनुरूप है क्या वे वाकई अच्छे इंसान है इन सबकी बारीक पड़ताल किसी भी निर्णय पर पहुँचने के पहले करना चाहिए इसलिए भी कि इन्साफ भी सही है और इंसान भी सही है .

सुरेन्द्र बंसल 9826098307

Saturday, March 16, 2013

गुर्राने से काम नहीं चलेगा काट भी जरुरी है

पाक की संसद ने जिस तरह बेख़ौफ़ अफजल गुरु मसले पर प्रस्ताव पास किया है उसका उसी लहजे में हमने जवाब भी दिया है , हमारी संसद ने एकमत से पाकिस्तान का निंदा प्रस्ताव पास किया और उसे जताया कि हमारे निजी और अंदरूनी मामले में दखल का वह तनिक भी प्रयास न करे .यह अच्छी बात है कि संसद के भीतर मतभेदों की धमाचौकड़ी मचाने वाले हमारे सांसदों और राजनैतिक दलों ने पूरी ताकत से एकजुटता दिखा कर पाक की दादागिरी को उसी तेवर में जमीं दिखाई है . लेकिन क्या यह ऩा - काफी नहीं है अभी इस मसले को दूर तक ,अंतर तक और वृहदता से देखा समझा और तैयार किया जाना चाहिए .


कोई संसद किसी अंतर्राष्ट्रीय मसले पर यूँ ही एकाएक फैसले नहीं करती है। इसके लिए उसकी सुनियोजित नीति होती है , अंतर्राष्टीय पेंच होते है ,लम्बा समय होता है ,गुट होते हैं और स्वार्थ निहित होते हैं . हालाँकि कहा जा रहा है ये पाक संसद जाने की तैयारी में है और एकाएक फैसले उस नीति का हिस्सा हो सकते है . लेकिन यह फैसला कई हिज्जों और अर्थों में बंटा ,फैला लगता है .इसे यूँ ही छोड़ देना बे-मायने होगा और नुकसान देह होगा .


जो नीति गहरी और अनेक अर्थों वाली होती है वह कूटनीति कहलाती है . पता नहीं हमारी सरकार ने और नेताओं ने पाक संसद की इस कूटनीति को परदे के पार से देखा है या नहीं .लेकिन जाहिर है कि पाक की इस नापाक हरकत के पीछे कोई गहरी अन्तराष्ट्रीय चाल है .इसके पीछे वहां के चुनाव हों तो हमें ज्यादा फर्क नहीं पड़ता लेकिन पाकिस्तान इस मुद्दे को संसद के भीतर से उठा कर अन्तराष्ट्रीय बना रहा है . वह कश्मीर मसले पर दुनिया को जताना चाहता है कि भारत में कश्मीरियों को आज़ादी नहीं है . दूसरा वह आतंकियों की अपरोक्ष मदद कर रहा है वहीं कश्मीरियों की रहनुमाँई का पक्षधर बन रहा है .


फिर भी पाक संसद के भीतर से कोई प्रस्ताव भारत की निंदा करे वह भी संसद पर आतंकी हमले के आरोपी के पक्ष में तो इसके इसके समझे गए गूढ़ अर्थ आगे की अन्तराष्ट्रीय खुरपेंची कहा जा सकता है जिसके पीछे यूरोप पार के देश और नेता हो सकते है जो आतंकवाद समेत कश्मीर और अन्यों मसलों पर भारत के खिलाफ हैं और जहर उगलते आ रहे हैं . हम देख रहे है आतंकवाद से लड़ने वाले कई देश जिसमें अमेरिका और ब्रिटेन भी हैं भारत -पाक के बीच चल रही आतंकी घटनाओं और विवादों पर या तो भारत के साथ नहीं है या दिखावे के लिए साथ नज़र आते हैं .ऐसे देशों की नई कूटनीति का हिस्सा हो सकता ये पाक संसद का प्रस्ताव . इसलिए सजगता से ,गहराई से इस मसले का अध्ययन करने ,इसके पेंच ढूढ़नें और समझने की जरुरत है सिर्फ गुर्राने से काम नहीं चलेगा काट भी जरुरी है


सुरेन्द्र बंसल

Sunday, March 10, 2013

सवालों के मोल तौल



यह हैरत तो नहीं है लेकिन अजीब है कि  संवैधानिक संस्थाओं के भीतर ऐसे लोगो की घुसपैठ जारी है जो अपने हित के लिए रुख,रवैया और नियम को रुखसत करने की कोशिश करते है .ताज़ा मामला मप्र विधानसभा का है जहाँ सत्तारूढ़ दल के एक विधायक को एक सड़क निर्माण करने वाली कम्पनी ने प्रलोभन देकर घटिया निर्माण पर सवाल पूछने से रोकने की कोशिश की. और ख़ास यह है कि  विपक्षी दल के विधायक को सदन से अनुपस्थित रहने के लिए मना लिया गया. मामला नया है और संभवतः  मप्र  में पहला लेकिन तरीका पुराना है और आरोप है कि  विधानसभा से संसद तक सांसद और विधायकों के सवालों की खरीद फरोख्त होती रही है .

सत्ताधारी दल के विधायक ने मामला खोल दिया लेकिन विरोधी पक्ष जिस पर सरकार को घेरने और रास्ते पर चलने के लिए बाध्य करने का दायित्व है उनके विधायक के सेट हो जाने का दावा किया गया है . यह उलटबांसी है आखिर जिम्मेदारी और कर्तव्य जैसे शब्द महज शब्दकोष के अंग ही नहीं है उनके शाब्दिक अर्थ नैतिक मूल्यों को इंगित करते हैं .लेकिन जब ऐसे लोग जो जिम्मेदारी और कर्तव्य को परे रख कर सौदे करने लगते है और कार्यपालिका ,विधायिका को प्रभावित करते है वे अपनी अनैतिक नीति से राज़ को आहत करने के दोषी हैं . 

मामला एक सवाल का नहीं है, उस चलन का है जो बदस्तूर जारी है. नियम को धता बताने वाले लोग सक्रियता से काम कर रहे हैं इस सवाल से पहले भी और भी सवाल हुए होंगें जिन्हें रोका गया होगा, ख़रीदा गया होगा और राज्य को धता बताकर अपने कायदों से चलाने की कोशिश की गयी होगी . सरकार कभी क्या ऐसे सवालों के पूछने ,रुकने और मकसद की पड़ताल करती है . संवैधानिक संस्था के भीतर सांसदों और विधायकों के कार्य , संलिप्तता की मानिटरिंग क्यों नहीं होती. यूँ हर राजनैतिक दल को अपने सदस्य की मोनिटरिंग करना चाहिए ,सवालों के पीछे के मकसद यदि है तो उनकी पड़ताल की जाना चाहिए, उन्हें पार्टी की नीति के साथ नैतिकता और कर्तव्य पर भी ध्यान देना चाहिए . न जाने कितने सवालों के पीछे इस तरह की कहानी दोहराई  गयी होगी लेकिन यहाँ सब कुछ चलता है की तर्ज़ पर जानकर भी चलने दिया जाता है

कांग्रेस के विधायक पर जिन  सवाल पूछकर गायब रहने का आरोप है और जो सवाल पूछने के लिए नहीं बिक़े उन्हें परोक्ष मान कर राजनैतिक दलों को मान और दंड तय करना चाहिए . यह भी तय होना चाहिए कि  कोई सवाल पूछकर किस मकसद को पूरा कर रहा है स्वहित या राज्य हित . इसके लिए एक दांडिक प्रक्रिया निहायत जरुरी है।
सुरेन्द्र बंसल   

Sunday, March 3, 2013

राज़ के लिए रण और नीति

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 कोई माने या न माने  गुजरात के धमाकेदार नेता नरेन्द्र मोदी बीजेपी की राष्ट्रीय पंक्ति में शामिल नेता बन गए हैं .बीजेपी स्वयं इसे मानसिक तौर पर मान चुकी है और इसका इज़हार उसके राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथसिंह ने बीजेपी की राष्ट्रीय  कोंसिल की बैठक में सार्वजानिक कर दिया है .इसे जेडीयू को नाराज़ करने और अपनी चलाने वाला कहा जा सकता है लेकिन यह एक रणनीतिक राजनीति का पहला चेप्टर है जिसे राजनाथसिंह ने बखूबी प्रदर्शित किया है .
बीजेपी अपनी नीति पर २० १ ४ की रणनीतिक तैयारी में नज़र  आ रही है। फार्मूला शायद यही है एनडीए के सभी घटक अपनी अपनी नीतिगत तैयारी से चुनाव में उतरे  उदेश्य सिर्फ अधिक से अधिक सीटें हासिल करना हो , लगता है यह फार्मूला एनडीए के घटक दलों को मिल चुका  है और ख़ास तौर पर जेडीयू को जिसे बिहार में मोदी विरोध से ही अधिक समर्थन मिलता है . इसे मैं  रणनीतिक राजनीति  कहूँगा जिसकी शुरुवात समयबध्दता से बीजेपी ने कर दी है .आगे यह जरुर लगेगा कि  एनडीए के घटक दल विरोधाभास और अंतर्द्व्न्द से घिरे हैं लेकिन लगता है यह सब दिखावा होगा जो रणनीति का हिस्सा ही होगा .जिस तरह से गुजरात के हीरो  नरेन्द्र मोदी के लिए  बीजेपी राष्ट्रीय  राजनीति में रास्ता बना रही है वह सब शनिवार को बकौल राजनाथसिंह बीजेपी ने साफ़ तौर पर दिखा दिया है अब मोदी पर बीजेपी में सब एकमत हैं और इससे से  ही बीजेपी सीटें हासिल करने की बढ़त बनाना चाहती है . कारण इसे चाहे नरेन्द्र मोदी का भाग्य माने या इनका कर्म लेकिन दोनों में बीजेपी के लिए वे ही बेहतर आइकॉन हैं क्योंकि बीजेपी को एक भाग्यशाली और कर्मठ नेता के साथ लोकप्रिय ऐसे नेता की तत्काल जरुरत थी जो उसके नीति के अनुरूप हो जाहिर है फिलवक्त बीजेपी के पास तत्काल इस काडर का और कोई नेता हैं नहीं . 

मोदी पर यदि बीजेपी तैयार है तो विचार एनडीए के घटक दलों का भी हुआ होगा और यह भी कि  इसके क्या परिणाम हो सकते हैं लेकिन मुझे लगता है परिणामों से ज्यादा रणनीति पर विचार हुआ है और यह भी कि कैसे सभी घटक दलों को फायदा हो .फायदा इसी में देखा गया की बढ़त अपनी क्षेत्रीय नीति पर चलने से ही मिल सकेगी इसलिए जहाँ विचार में ,नीति में बीजेपी से जहाँ मतभेद होंगें वे बने रहेंगें और घटक दल इस पर ही चुनाव लड़ेंगें . इसलिए हो सकता है जाहिराना तौर पर बीजेपी मोदी को पीएम्  नामजद ना करे लेकिन  उनका आइकॉन इतना बड़ा होगा कि लोग उनमें पी एम् की छवि देखेंगें .बिहार में जेडीयू साफ़ साफ़ मोदी को नकारेंगें लेकिन फिर भी एनडीए के साथ ही होंगें . बिहार का मामला ऐसा है कि  वहां के बीजेपी नेता भी मोदी के पक्ष में नहीं दिखते यह दिखावा इसलिए है कि बिहार का राजनीतिक पेंच इसके रास नहीं आता . जब वह बीजेपी नेता मजबूर है तो जेडीयू कैसे मोदी पर सहमत हो सकती है.?

मोदी अब एक अधिकृत राष्ट्रिय नेता हो चुके है यह दम राजनाथ ने यूँ ही नहीं भरा है  तमाम बीजेपी नेताओं की मौजूदगी में भरा है जो यह दिखलाता है कि  बीजेपी को एक सर्वमान्य नेता और चुनावी नेतृत्व मिल चुका है जिसके राज़ के लिए रण  और नीति तैयार हो चुकी है यह स्पष्ट है 
सुरेन्द्र बंसल 
surendra.bansal77@gmail.comsurendra.bansal77@gmail.com