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Thursday, January 23, 2014

बूंदे , बरसती हुई

बूंदे ,बरसती हुई अच्छी लगती है ,
टपकती हुई भी 
कुछ ठहरी लटकती हुई भी 
कुछ चमकती दमकती भी 
इस धरा का चुम्बन कर 
फिर क्यूँ ओझल हो जाती है
बूँदें 
तेरा अस्तित्व भी / ही 
मेरे अन्दर प्यार उमड़ लाता है 
जैसे प्यासे दिनों में 
अमलतास खिल आता है 
तेरे आने से ही जाने की 
रीत बन आती है क्यों 
कुछ और ठहर क्यूँ न जाती 
तृप्ति की आस को 
कुछ और क्यों न भीगा/ बुझा जाती है 
बूँदें 
………सुरेन्द्र बंसल 
सर्द की भीगी भीगी रात में 
22 .50 date 22 .1 . 2014

चाहत हम सबकी