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Monday, October 12, 2015

वादा है मैं भी पुरस्कार लौटा दूंगा......।

📝अंदाज़ अपना ...........

सुरेन्द्र बंसल का पन्ना

वादा है मैं भी पुरस्कार लौटा दूंगा

जल्दी ही कोई पुरस्कार मुझे भी मिल जाए, ठीकठाक लिख लेता हूँ . प्रकटीकरण में माहिर हूँ सबको मौका मिल रहा है मुझे भी मिलना चाहिए..... पुरस्कार को लौटाकर स्वयं को प्रकट करने का । समय की आंधी ऐसी चलती हैं कि पहचाना भी नहीं जाता हूँ....भूल से गए हैं लोग मुझे.....कुछ न करो तो ये मीडिया भी घास नहीं डालती। पुरस्कार लौटाने वालों की कतार बन रही है.... मैं कहीं नहीं हूँ ......।

एक बार मिल जाए कोई पुरस्कार , लौटाने का बहाना तो मैं ढूंढ ही लूंगा ....मुझे रास्ता उदय प्रकाश फिर नयनतारा जी ने दिखा दिया है और उनके अनुसरण  में कतार बढ़ रही है....इसमें शामिल होने का मुझे भी मौका मिलना चाहिए....यह जिद है मेरी ...... पर इसे कैसे पूरी करूँ जब कोई पुरस्कार ही नहीं है.......यह रिवाज़ बहुतअच्छा है एक बार पुरस्कार मिल जाए तो वह सम्मानित होने का आनंद भरपूर देता है ..... सम्मान से लिपटी शाल जिंदगी भर की ठण्ड दूर कर कितने प्रसार की गर्माहट देती है यह पुरस्कार लेने वाला ही जानता  है ....,.इसलिए मुझे भी पुरस्कार चाहिए ताकि मैं भी जान लूँ कबाड़ख़ाने में पड़े पुरस्कारों को लौटाकर कितनी गर्माहट रिचार्ज की जा सकती है ....।

यह आइडिया बहुत माकूल है इंतज़ामों की तरह ....किसी ने दिया पुरस्कार किसी और को लौटा दिया.... चलता है यह सब क्योंकि इसमें ईमान का तौल नहीं है ..,किसी से हंस बोलकर लो और किसी को रूठ - तानकर लौटा दो.....यह सुविधा सरकारों के बदलने से मिल ही जाती है...देखो न किस किसने पुरस्कार किस-किस से लिए और किसे लौटा रहे है ....अब तक संभाले क्यों रखे थे भाई ,ये किसी ने नहीं पूछा इनसे....... मुझसे भी कोई क्यूँ पूछेगा.....जब तक मन पड़ेगा शांति से रख लूंगा और अनुकूल बहाना देखकर धमाके से लौटा भी दूंगा.....

भैय्या, इसलिए जान लो मुझे.... सारे कंटेंट मुझमें हैं......नाम सुरेन्द्र बंसल है ....इंदौर में रहता हूँ.....उम्र जानों तो समझ लो ,जवानी लिखने पढ़ने में गुजार चुका हूँ...... भाई हर तरह का रंग है मुझमें..... कवि भी हूँ और लेखक भी...... अच्छे तबके के और हुनरमंद लोगों के बीच का ईमानदार पत्रकार रहा हूँ ....और इस कृत्य में बहुतों को सताया और दुखाया है ....कोई दो दशक तक.... राजनीति की समझ भयंकर है ठीक पुरस्कार लौटानेवालों की तरह ....इसलिए राजनैतिक विश्लेषण का पूरा माद्दा रखता हूँ....इज़्ज़तदार हूँ और इज़्ज़त से पेशी मेरी पूंजी है.....।
खानापूरी पूरी करूँगा ,कोई कमी नहीं रहने दूंगा......मैं अपने लिए नहीं लौटाने के वास्ते पुरस्कार चाहता हूँ ....उपयुक्त हूँ बस नकारो ना मुझे ..... वादा है मेरा, मैं भी पुरस्कार लौटा दूंगा......।
सुरेन्द्र बंसल (C)
3PM12102015

Thursday, October 1, 2015

शिवराजसिंह चौहान अपने है उसी तरह जिस तरह वे पीड़ित और दुखी लोगों के लिए अपने वाले हैं. मुख्यमंत्री चौहान लगभग आज यही कुछ कह रहे थे एक मीडिया अदालत में.वे खबर में थे तो अपन बेखबर कैसे हो सकते हैं . वे बता रहे थे बहुत सी योजनाओ मसलन लाड़ली लक्ष्मी,कन्यादान,तीर्थ यात्रा जैसी अनेक योजनाओं के बुते वे उन लोगों के अपने हो गए हैं जो पीड़ित और दुखी हैं. सीएम चौहान की सोच अच्छी है वे पीड़ितों और दीनदुखियों के सन्दर्भ में रिश्ता खोज लेते हैं उन्हें अपना बनाने की कोशिश करते है . कोई कोशिश नाकाफी नहीं होती क्योंकि हर कोशिश एक खींचीं हुई लकीर से आगे बढ़ती हुई होती है. शिवराज कुछ कर रहे हैं लेकिन उनके प्रयास की यह तीसरी पारी है .मामा,चाचा ,बाबा,बेटा,जो भी कुछ आप हों सारे सम्बोधन एक रिश्ते का निर्माण करते हैं जिसे अपना कहते है.महोदय आपने अपना कह लिया अब कुछ अपनों को भी कह लेने दीजिये वे भी आपको अपना सीएम कहना चाहते हैं यह तभी संभव है अपनों के परिवार में जब व्यवस्थाओं की सुचारू प्रथा लागु हो जायेगी , इतने सालों में ऐसा कुछ दिख नही रहा है.प्रदेश अब भी मानता है लायक आदमी सीएम की कुर्सी पर है आपका अपनापन सरकारी महकमों मे भी नज़र आना चाहिए.पीड़ित को सहायता नही सहायक की ज्यादा जरुरत है आप अपने लोगों के सहायक बनिए तब ही अपनापन नज़र आएगा.लोगों को दबाव का प्रशासन नही अपनों का प्रशासन चाहिए ढर्रा बदलिये बदलाव लाइए प्रदेश का आमजन आज भी व्यवस्था में बदलाव की बाट जोह रहा है मेरे अपने मुख्यमंत्री जी .....
सुरेन्द्र बंसल
माँ को गए तब एक साल हुआ था तब यह भावाभिव्यक्ति लिखी थी आज मातु दिवस पर पुनः पुण्य स्मरण
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बेखबर था इस बात से
माँ,
होली से पांच दिनों का रंग
इतना बुरा होगा ,
तेरे आँचल में खेलते हुए
बीते दिन हो जायेंगें भंग,
तूने ही तो कहा था जा
वृन्दावन बिहारीलाल ,
उसके चरणों में तूने अपना
शगुन भी भेजा था
माँ ,
यह कैसा अर्पण
और समपर्ण है
माँ ,
जिंदगी भर चाहत
और भर ममता से
रखा था साथ मुझको
माँ,
अपनी नज़रों से दूर
फिर क्यों जाने दिया ,
तेरे आंसुओं से शक
मुझे हुआ जरुर था
माँ,
कहीं तू न जाए थक
इस तरह मेरे पिछे
जाते जाते भी
तुझे मेरा ख्याल था शायद
मेरा नियम तुझे याद था
माँ,
इसलिए तूने
मुझे जाने भी दिया
बांकेबिहारी का दर्शन
पाने भी दिया
इंतज़ार में मेरे कष्ट
उठाती रही तू
माँ,
यम को तब तक पास
आने न दिया
पर क्यों मुझे
अपने चरणों में
बैठे रहने का फ़र्ज़
निभाने न दिया
माँ,
देख यह घर कितना
सुना सुना हो गया है
माँ,
तुझे साथ लाना था घर
लेकिन कुदरत ने तेरी तस्वीर
साथ भेज दी है
माँ,
तकदीर में जब तस्वीर होती है
माँ,
तेरे लिए मेरी आत्मा भी रोती है
माँ"..............
.........................
............................................

खबरदार बेखबर!

खबरदार बेखबर!
बहुत सारी आशाओं को बीते साल अलग धाराओं से बहते हुए समन्वित दरिया बनते इस देश ने देखा था। इन आशाओं का समन्दर इन पल्लवित धाराओं के एकीकृत प्रयास से भरा गया इस उम्मीद के साथ कि समंदर जब उफान लेगा और बढ़ती उमस के साथ जब वाष्पित होगा तो जनमानस को तरबतर कर देगा ,उम्मीदों को सींच कर मुस्कुराहटों की ऐसी नई फसल तैयार कर सकेगा जो अब तक की आशाओं आकांक्षाओं से ऊपर सफलता और विकास का नया प्रतिमान भी स्थापित करेगा ।
एक साल के भीतर इस कृषि प्रधान देश में किसी भिन्न भिन्न फसल के दो या तीन चक्र होते हैं । इस हम रबी और खरीब तो नाम देते ही हैं बीच के समय भी कुछ बो लेते हैं। मुझे नहीं लग रहा अब तक जो बोया गया कितना सींचा गया ,कितना फलित हुआ ,कितना काटा गया । फसल के घाटे से किसान मर रहा है लेकिन बरसों से तिल तिल कर मर रहा आमजन ,आम मतदाता अब भी इस लोकतंत्र की धरती पर उम्मीदों को फलित होते नहीं देखेगा तो शायद यह मतदाताओं की आत्महत्या का कारक होगा। लेकिन हर खबरदार अब भी बेखबर हैं एक साल बीत चुका है।
सुरेन्द्र बंसल
3:35 13.5.2015

परोपकार ...कितना और कैसा!

परोपकार ...कितना और कैसा!
कितना अच्छा लगता है शब्द ,नेक भाव को प्रचारित करता हुआ। जहाँ भी परोपकार है कोई सहायक है कोई नेक है कोई नियति है कोई सुविचार है तो कोई अपना है कुल मिलाकर इंसानियत है इंसानों के लिए।
हमें बहुतेरे लोग मिल जाते हैं जो इंसानियत के लिए ही आगे आते हैं पर ऐसे लोगों की भागीदारी सीमित होती है अपनी अपनी हैसियत अनुसार। यह ठीक है जितना भी आये लेकिन स्वविवेक से आये तो परोपकार का मायना बढ़ जाता है ।
परोपकार कई बार एकाएक होता है ,अचानक ही कोई एक या कुछेक मिलकर कूद पड़ते है परोपकार के लिए,ये बड़े उदार दिल नज़र आते हैं, अच्छे माल के मालिक होते हैं जब तब और खास समय पर परोपकार करते रहते हैं, लेकिन मुझे ऐसे लोगों में परोपकार का सच्चा भाव नज़र नहीं आता है। दरअसल इन लोगों में एक स्वाभाविक स्व भाव होता है जो पेशागत परिप्रेक्ष्य में एकाएक नज़र आता है ,मैं सोचता हूँ तब पर -उपकार नहीं होता स्व-उपकार होता है और भी यह परोपकार के रूप में परिलक्षित होता है।
सावधान आपको ही रहना है ,किसी की टूटी टांग देखकर सहायता के लिए आतुर हो जाना परोपकार है और किसी की टूटी टांग देखकर किसी के कहने पर परोपकार्य के लिए प्रेरित होना पूर्ण परोपकार्य नहीं हैं इसमें कुछ घालमेल की संभावना होती है। देखो भाई परोपकारी होना पुण्य का काम है लेकिन परोपकार्य से स्व कार्य का टिकट खरीदना पाप है । आगे फिर कभी...
सुरेन्द्र बंसल
5.00pm 25 .5.15

सन्नाटा पसरा था
अखबार ने हलचल मचा दी
कुछ डर गए सहम से गए
मै नवीस अखबारी
बस बिखर सा गया
सुरेन्द्र बंसल 12.05/03062015

संभावना का राज्योद्य!

संभावना का राज्योद्य! 
उगते हुए और महत्वकांक्षाओं के पालतू राजनैतिक लोगों को आज खबरदार हो जाना चाहिए । एक इंदौरी नेता राष्ट्रीय राजमण्डल पर उभर रहा है । इंदौर के कैलाश विजयवर्गीय बीजेपी के राष्ट्रीय महासचिव नियुक्त हुए हैं । भाई पत्रकारिता के इतर मुझे बहुत ख़ुशी है। बरसों से यह अरमान संजोय बैठा था इंदौर से राजनैतिक उपज की शीर्ष पैदावार हो । यह साल बहुत अच्छा है या यूँ कहे इंदौर के अच्छे दिन आ गए हैं। एक साथ दो नेता बड़े पदों पर काबिज़ हुए है । हमारी सौम्य ताई यानी सुमित्रा महाजन लोकसभा के सर्वोच्च पद पर आसीन है उनकी आसंदी है और बाक़ी सभी की सीटें हैं । गर्व और गौरव है हमें आज कैलाश विजयवर्गीय देश की सबसे बड़ी राजनैतिक पार्टी में महासचिव नियुक्त हुए हैं ।
मेरे अंदर की अभिलाषा और बढ़ रही है कुलाचें मार रही है ।दरअसल मेरा सपना है प्रदेश का मुख्यमंत्री इंदौर से हो। भाई शिवराज जी मुझे माफ़ करना इसलिए कि आप एक अच्छे और नेक इंसान हैं । मैं कैलाश को आगे करके आपको कोई चुनौती नहीं देना चाहता बस मैं इंदौर के राज नेतृत्व को आगे बढ़ते देखना चाहता हूँ । मेरे लिए यह असह्ज ,असह्य और असम्मान है कि मैं इंदौर में जन्मित होकर आज तक प्रदेश के इस सबसे बढ़े शहर से कोई मुख्यमंत्री नहीं देख सका ,मुझे अब तक कुंठा होती रही है । प्रकाशचंद सेठी इंदौर के कहलाये पर असल में वे भी उज्जैन से थे। मैंने इंदौर की राजनीति को बेहद करीब से देखा है। अपने दौर में मैंने इंदौर से मुख्यमंत्री की कई सभवनाओं को तलाशते हुए कभी सुमित्रा महाजन की और देखा तो कभी कैलाश विजयवर्गीय की ओर। दरअसल मुझे इन दोनों में ही मेरे सपने की सम्भावना नज़र आती थी, इसलिए ताई के शुरूआती पारी में ही मैंने जनसत्ता में प्रकाशित एक ऐसा इंटरव्यू किया जिसमें एक ही तरह के सवाल दोनों लोकसभा उम्मीदवार पी सी सेठी और सुमित्रा महाजन से किये गए थे , सम्भवतः इस तरह का देश में पहला इंटरव्यू था। कैलाश विजयवर्गीय के लिए जनसत्ता में ही एक बार जब लिख दिया कि इस युवा राजनैतिक में भविष्य की अपार संभावना है तो कैलाश जी ने ही टोका बंसल जी इतना आगे मत बढ़ाओं बहुत जल्दी हो जायेगी।
लेकिन कैलाश विजयवर्गीय आगे बढ़ते गए और आज उस मुकाम पर हैं जहाँ से हम अपने प्यारे शहर से राज नेतृत्व का शीर्ष देखना चाहते है फिर यह राज नेतृत्व हमें सुमित्रा ताई से मिले या कैलाश विजयवर्गीय से ।एक बार पुनश्च माफ़ी आदरणीय शिवराज जी चौहान से आखिर यह संभावना का राज्योद्य है !!
सुरेन्द्र बंसल

सावधान हो जाइये

सावधान हो जाइये 
आज केजरीवाल कह रहे थे जैसे उनके मंत्री तोमर के मसले पर वे धोखे में रहे उस तरह मोदी जी सुषमा और वसुंधरा के मसले पर धोखे में न रहे । जाहिर है तोमर की चार सौ बीसी से दिल्ली सरकार की लख लख बदनामी के बाद केजरीवाल खबरदार हो गए हैं और प्रधानमंत्री मोदी को चेता रहे हैं वे बेखबर न रहें।
दरअसल सारे मामले बेखबर रहने के हैं ।आप जब अपने मग्न में होते हो तो बहुत सी बातों से बेखबर हो जाते हैं । सजगता खबरदार रहने का पर्याय कर्म है। इससे दूर रहना याने बेखबर हो जाना है। सुषमा स्वराज और वसुंधरा राजे का दोष बेखबर रहना है। मैं यह नही। मानता कि सुषमा स्वराज और वसुंधरा राजे ने किसी स्वहित , आर्थिक हित से ललित मोदी को मदद की थी । ये दोनों राजनीति के साफ़ सुधरे और उजले पक्ष हैं फिलवक्त इनमें दाग ढूँढना एक तरह से बदनियति है। राजनीति में जब अच्छे कार्मिक लोगों की फेहरिस्त बनायें तो इन नामों को अलग नहीं किया जा सकता । फिर ललित मोदी के साथ नाम जोड़ा जाना उपयुक्त नहीं हैं।
फिर भी इन्हें सजग चौकन्ना तो रहना ही था और जब आप सार्वजनिक जीवन में हों तब आपकी जवाबदारी और बढ़ जाती है । सुषमा स्वराज और वसुंधराराजे ने यही गलती की है । सजगता को खो कर उन्होंने मर्यादित नीति को छोड़ दिया ।
देश को आज भी अच्छे राजनीतिज्ञों की अहम जरुरत है। ऐसे मसलों की अनदेखी करना कीचड के रास्तों पर बेखबर चलना है फिर दाग तो लगेंगे ही । सावधान हो जाइये वक़्त बहुत है लेकिन वक़्त दोबारा मौका नहीं देता ।
सुरेन्द्र बंसल 12.45/24.6.15

आपातकाल - चलते जीवन को दखल करने का दोष

..सुरेन्द्र बंसल का पन्ना
आपातकाल - चलते जीवन को दखल करने का दोष
26जून 1975 को देश एक काले दिन की तरह याद करता है। जब सत्ता में बैठे लोगों को जन जागरण का डर सताने लगा तो इस आपात स्थिति से निबटने के लिए रातों रात आपातकाल लगा दिया गया। मतलब सत्ता के लिए निर्मित आपात् परिस्थितियों से भयमुक्त होने के लिए लगाया गया आपातकाल । 19 महीने इस देश ने ऐसी निरंकुश व्यवस्था देखी और भोगी है जो तंत्र की सारी लोकलाज़ और मर्यादा को तोड़कर भय, दबाव,ज्यादतियों के तहत बेखबर चलती रही।
उन दिनों अपन लड़कपन में थे स्कूल से कॉलेज में प्रवेश किया ही था विज्ञान विषय था । कॉलेज के इस प्रवेशकाल में ही आपातकाल का सामना हुआ। महसूस हो रहा था सामान्य जीवन एक अनियंत्रित दाब के तले चल रहा है और जिसके पास जो कुछ पावर है उसका वह बेज़ा इस्तेमाल कर रहा है।
उस दौर में अपने साथ दो घटनाएं हुई जिसनेे अपना कॅरियर ही तबाह कर दिया। गुजराती कॉलेज में एक शिक्षिका अंग्रेजी का अध्यापन कराती थीं उनका बहुत रुतबा था। चाहें जिसको वह खड़ा कर डपट देती थी जो कार्नर पर बैठा करता उसकी तो मुसीबत ही थी कब वह सेकंड कार्नर थर्ड कार्नर से सवाल कर दे पता नहीं। आपातकाल के ही दिनों में उन्होंने पहले मित्र राकेश साहू फिर पटेल और एकाएक अपने को खड़ा करके क्लास से बाहर कर दिया फिर सस्पेंड का नोटिस भी दे दिया। अपन शुरू से स्वाभाविक सीधे सरल सच्चे और संयत रहे हैं कुछ समझ नही आया क्यों सस्पेंड किया। बहुत से प्रेक्टिकल छूट गए पर सस्पेंशन वापस नहीं हुआ बेवजह पिताजी को शर्मिंदा होना पड़ा ।अपने को आज तक नहीं पता अंग्रेज़ी की मेम ने हमें किन वजहों से मेमना बना दिया था।
दूसरी घटना भी उन दिनों कुछ इस तरह से हुई कॉलेज के गेट पर हम तीन दोस्तों का आमना सामना हुआ हाथ मिलाया ही था कि एक एस आई बाइक पर आ धमके और मित्र ब्रह्मप्रकाश दीक्षित प्रदीप टोंग्या सहितबिलावजह हमें रिक्शे में बैठाकर छावनी थाने ले आये ।जाहिर है थाने जाना याने अपनी बेइज़्ज़ती कराना है सो न होकर भी हमे अपराधबोध सताने लगा वह तो भला हो थाने के टी आई सा का उनने देखते ही छोड़ दिया। लेकिन आपातकाल के उस दौर में इन दो घटनाओं का जीवन पर बुरा प्रभाव पड़ा । कॉलेज जाना कम हो गया तो क्लास अटेंड नहीं करना पढ़ाई के प्रति गंभीरता भी खत्म मानों जीवन को सही राह से भटक सा दिया। किशोरावस्था में ऐसी घटनाएं बहुत मायने रखती है। मै आज भी स्वयं को आपातकाल का शिकार मानता हूँ और इसी से यह समझ सकता हूँ कि निरंकुश व्यवस्था के उस दौर में कितने निर्दोष शिकार हुए होंगें।
बाद में जब मैं पत्रकारिता में सक्रिय हुआ तो यह जानकार विनम्र दुःख हुआ कि अंग्रेज़ी की अध्यापिका मेम उन श्रद्धेय संपादक की पत्नी थी जिन्होंने आपातकाल के विरोध में अपने अखबार का संपादकीय पृष्ठ को खाली और काला छोड़ दिया था।
आपातकाल की यह टिस आज भी कायम है आखिर चलते जीवन को दखल करने का दोष आपातकाल पर ही है।
सुरेन्द्र बंसल
12.20 26.6.15

कर्मयोग का सत्

कर्मयोग का सत्
सांसदों का वेतन दोगुना होने जा रहा है। इस पर बहुत हल्ला है आखिर क्यों सांसदों का वेतन बढ़ना चाहिए। लोग चाहे सो कहें मुझे तो वेतन शब्द पर ही आपत्ति है। वेतन उसे दिया जाता है जिसकी नौकरी हो , सांसद तो हमारे नेता हैं नौकर तो है नहीं फिर वेतन किस बात का । हर सांसद हमारा सामूहिक प्रतिनिधित्व करते हैं फिर प्रतिनिधि को वेतन कैसे दिया जा सकता है। संविधान में व्यवस्था है वेतन की इसलिए इन्हें वेतन और पेंशन दिए जा रहे हैं । लेकिन इसके मूल को पुनः व्याख्यित किये जाने की जरुरत है।
हर सांसद सामाजिक कर्मयोगी है ,उसे लोग याने समाज का प्रतिनिधित्व उस दायित्व से करना है जो उसे सामुहिक तौर पर इस विश्वास से दिया गया है कि वह समाज ,क्षेत्र और राष्ट्र के लोकतान्त्रिक नेतृत्व एवं विकास में अपना योगदान पूर्ण क्षमता से देगा। उसका यही कर्म उसे राजनेता बनाता है । राजनीति में राजनीतिज्ञ को राजा मान लेने की भूल पर ही देश में राज का संचालन चल रहा है। सांसद याने जैसा मैंने कहा राजनीति के कर्मयोगी स्वयं को राजा अनुरूप शासक मानता है और जब पैसे की वैधानिक बात आती है तो नौकर की तरह वह वेतन चाहता है उसमें बढ़ोतरी चाहता है । भाई ये दो रूप नहीं चलेंगें आप विधिमान्य सांसद हैं जिसका मूलार्थ नौकर होने का कतई नहीं है कृपया प्रयास करें कि संविधान में बदलाव लाएं और वेतन जैसे शब्द को ही सांसद के लिए प्रयुक्त होने से रोकें।
देखिये आपको अपना समय सामूहिक व्यवस्थापन पर खर्च के बदले में सम्मान निधि के तौर पर मिलता रहे इसके खिलाफ मैं कतई नहीं हूँ लेकिन इसका तरीका बदला जाना जरुरी है। यह वेतन नहीं मेहनताना की तरह मानदेय के तौर पर दिया जाना चाहिए और इस मेहनताने का आकलन कार्य ,कार्यक्षमता , संलग्नता,नियमितता और भागीदारी के आधार पर होना चाहिए। फिर यह सम्मान निधि चाहे आज मिलने वाले वेतन से दोगुनी ही क्यों न हो।
मसलन संसद में आपकी उपस्थिति की गणना, भागीदारी की गणना, क्षेत्रीय प्रतिनिधित्व की गणना, सामयिक बहस में हिस्सेदारी, राष्ट्र हित के लिए किये जा रहे वैचारिक मूल्यों की गणना पर जो सम्मान राशि बनती हो वह सांसद के प्रदर्शन से निर्धारित होना चाहिए। ऐसा किया जाता है तो मेरा मानना है राजनेता वाक़ई राजनेता कहलायेंगें उनका मान बढेगा देश बढेगा और राजनीति की दशा भी बदल जायेगी एक प्रयास इस तरह कीजिये माननीय मोदी जी। इसलिए भी कि आप खबरदार प्रधान मंत्री हैं आपकी संसद और सांसद भी बेख़बर नहीं होना चाहिए उनमे कर्मयोग का सत् आना ही चाहिए।
सुरेंद्र बंसल
12:23 4.7.2015

अंदाज़ अपना .........सुरेन्द्र बंसल का पन्ना....... कलंक लगाये नहीं जाते

अंदाज़ अपना .........सुरेन्द्र बंसल का पन्ना.......
कलंक लगाये नहीं जाते
आलोचना ,विरोध,प्रतिकार सब जायज है लेकिन इस तरह नहीं क़ि वह आपकी सोच,दृष्टि और विचार को एक तरफा घोषित करे। व्यापम के मामले में सब एक तरफ चल रहे हैं फौजी की तरह जैसे सामने सीमा पार दुश्मन हथियार लेकर खड़ा है उसे मारना ही है। मुझे समझ नहीं आता शिवराज सिंह प्रदेश के मुखिया हैं तो क्या आप सारे आरोप उन पर जड़ देंगें । शिवराजसिंह सरकार की गलतियों को में नज़र अंदाज़ नहीं करना चाहता इसलिए भी कि इस घोटाले की खतरनाक करतूत उनके हो कार्यकाल में हुई है। मुझे आपत्ति है शिवराज को शव राज में प्रचारित प्रसारित करने से ।आप आलोचना में, विरोध में किस हद तक जायेंगें । भाई स्वस्थ आलोचना कीजिये,ये कोई खेल. मनोंरंजन,सनसनी की चीज़ नहीं है कि मुहावरे गढ़ कर मामले को संगीन बनाये। मामला चिंतनीय है इसे चिंतन से सही राह पर लाने की कोशिश पूरे ईमान से कीजिये। यह साफ़ होना ही चाहिए क़ि इतने आरोपियों की मौत कैसे हो रही है,क्या इन मौतों की वजह के पीछे गूढ़ रहस्य है। खोजिये भाई खोजिए सब मिलकर खोजिए ईमान से खोजिए, किसी को बख्शिये मत लेकिन आरोपों को संगीन मत बनाइये उसे खबर लायक बनाने की कोशिश मत कीजिये उसमें से खबर निकलने की कोशिश कीजिये।
शिवराज से तकिया कलाम शवराज बनता है तो इसे विहंगम प्रचार देकर अपनी बौध्दिकता को तो नीलाम मत कीजिये । जिस किसी ने शिवराज को शवराज कहकर प्रचारित किया है उसने एक बड़ा अपराध किया है। आपको पता नहीं है आप क्या कह रहे है। मप्र के मुखिया को शवराज बताकर प्रदेश को किस तरह की भूमि बता रहे हैं मुझे यह कहने की जरुरत नहीं है । न मेरा प्रदेश इस तरह का है और न ही मेरा प्रदेश चलाने वाले। आप क्या वाक़ई सोचते है क़ि व्यापम के 45 या आसपास की मौते किसी भी सरकार के लिए आसान है जो अब तक नहीं हुआ क्या वह इस प्रदेश में हो रहा है । भाई मामले की तह तक जाओ,इतने लोग मरे हैं तो खोजो भाई ऐसा कैसे हो रहा है यह खोज ही पत्रकारिता है। बातये 45 मौतों के बाद भी क्या कोई यह खोज सका है कि कौन जिम्मेदार है और क्या वाक़ई ये हत्याएं हैं ??? नहीं न फिर संयम होकर स्वतंत्र और निष्पक्ष खोज जारी रखिये शवराज कहने भर से कोई रहस्य नहीं खुल जायेंगे जो अपने आप लगते हैं वह कलंक होते हैं और जो कलंक लगाये जाते हैं उस पर आप खुद विचार कर लीजिये।
सुरेन्द्र बंसल
10:45 7.7.2015

एक दिन तो गुजारिये झुग्गी में

अंदाज़ अपना............सुरेन्द्र बंसल
एक दिन तो गुजारिये झुग्गी में
बहुत अज़ीब बात हैं न ....मैं खुद कभी किसी झुग्गी में नहीं गया आपसे कह रहा हूँ एक दिन तो गुजारिये । रात भर की बारिश में यह चिंता सताती रही नए बने पक्के मकान में कहीं से पानी तो नहीं टपक रहा है, रात तीन बजे पूरे घर में घूमा व्यवस्था की ।सुबह ही कलेक्टर साब नरहरि जी को मैसेज कर दिया......
सुप्रभात
सर झुग्गी में सड़क किनारे नाले पर रहने वालों का ख्याल रखियेगा बारिश में.....
मानवीय संवेदना की अनुभूति लिए कलेक्टर साब ने तुरतफुरत जवाब दिया श्योर (जरूर).......
दरअसल हम अपने लिए कितनी चिंता करते हैं व्यर्थ तो नहीं करते लेकिन छोटी छोटी मुसीबतों से घबरा जाते हैं। स्वयं के लिए व्यवस्था के लिए जुट जाते हैं ।कैसी संचेतना और स्फूर्ति होती है उस समय । यह संचेतना चिंता की तात्कालिक उपज होती है और उस चिंता को दूर करने का प्रयास हमारे इर्दगिर्द होता है। लेकिन चिंता के साथ एक चिंतन भी जरुरी है । विचार कीजिये ऐसे हज़ारों लोग हैं जो टाट के पैबंद लगे फटी सड़ी पन्नियों के भीतर गुज़रबसर इस अहसास से कर रहे हैं क़ि उनका भी अपना घर है । बस यही अहसास उन्हें शाम को अपने घर ले आता है जिसे हम झुग्गी कहते हैं। गर्मी में लू के थपेड़े जिस घर में बेधड़क आते हों, ठण्ड में सिरहा देने वाली सरसराती लहर कंपकपा देती हो और बारिश में भीग जाने डूब जाने की बात आम हो फिर भी वह घर हो चिंतन करके देखिये कितने पल हम इस घर में रह सकते हैं ,पर इन भारी भरकम चिंताओं से बेखबर ये वे लोग है जो सिर्फ अपनी रोटी की जुगाड़ के लिए मुस्कुराते हुए झुग्गी घर से बाहर आते हैं और हमारा बोझ उठाते हैं, हमारे आशियाने बनाते हैं ,हमारे लिए सब्जी फल लाते हैं ,हमारे घरों दफ्तरों की सफाई करते हैं ,अपने बच्चों को लावारिस सड़क पर छोड़ कर हमारे बच्चों को सँभालते हैं याने हमारे सर्वसुख के लिए अपना सब त्याग कर जब वे वापस घर लौटते है तो घर में आटा गिला मिलता है गुदड़ी गीली मिलती है लकड़ी भीगी मिलती है । उन्हें भूखा रहकर भी सोने की जगह तब नहीं होती और इसी ऊहापोह सी जिंदगी में सबेरा हो जाता है इसे कौन सबेरा कहेगा शायद सबेरा भी उनकी नसीब में नहीं होता । और हम चौखट पर खड़े इंतज़ार में लालपिले हो रहे होते हैं
आप एक दिन गुजरात में गुज़ारें या मप्र में किसी मोहक सरकारी विज्ञापन को देखकर पैसा लगेगा मज़ा हिलोरे लेगा लेकिन जिंदगी का अनुभव नहीं आएगा। एक दिन गुजारिये किसी झुग्गी में और अपनी मानवीय संवेदनाओं को जगाकर देखिये आपकी खुशियों के व्यवस्थापक कितनी अव्यवस्थित जिंदगी बसर कर रहे हैं , हो सके तो इस गीले मौसम में उनके लिए सूखी बिछात या छप्पर ले आइये ।
- सुरेन्द्र बंसल
12.36 19.7.2015

अंदाज़ अपना ...............सुरेन्द्र बंसल का पन्ना तो थेम्स का पानी काला हो जाए

अंदाज़ अपना ...............सुरेन्द्र बंसल का पन्ना
तो थेम्स का पानी काला हो जाए
जब तब और लन्दन गया तब भी यही विचार आता था क़ि इन लुटेरों को शर्म नहीं आती हमारे देश को लूट कर सफेदपोश बने फिर रहे हैं क्यों नहीं कोई इन्हें याद दिलाता क़ि तुम लुटेरे हो लेकिन कहीं न कोई न कोई तो जाग रहा होता है । शशि थरूर ने जिस अंदाज़ में फिरंगियों को थप्पड़ लगाया है इसकी जितनी तारीफ की जाए कम है।
शशि थरूर के बारे में अपना भी ख्याल था क़ि वे सौंदर्य प्रेमी से ज्यादा कुछ नहीं है और जब इकॉनमी क्लास वालों को उन्होंने केटल क्लास कहा तो अपना गुस्सा भी सातवें आसमान पर था । सुनंदा मामले ने तो उन्हें कथित अपराधी भी बना दिया । लेकिन ब्रिटेन की जमीं पर शशि जिस अंदाज़ में बोले है निसंदेह उससे हम भारतीयों का सर गर्व से ऊँचा हुआ है।
शशि थरूर ने जतला दिया क़ि वे कोई रस्मी लीडर नहीं है यूँ ही राजनीति में नहीं आये है इसके पीछे उनका गहन अध्ययन है विचार है ।यह और बात है की कांगेस के शासनकाल में वे राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों पर उतने मुखर नही दिखे जितना वे इस बार लग रहे हैं । हो सकता है तब उन्हें अवसर नहीं मिला हो ।लेकिन उन्होंने 200 साल पुरानी संस्था के बीच जिस बेबाकी से भारतीय दर्द को बयाँ किया वह उनकी बहादुरी है निर्भीकता है और उन लोगों को इतिहास बताने का प्रयास है जो उपनिवेशवाद के जरिये विश्व के अधिकतम देशों को अपने बल से गुलाम बनाने की का काम करते रहे । थरूर ने यह बात ब्रिटेन में कही है तो निश्चित ही फिरंगियों के लिए शर्म की बात है।
शशि थरूर ने जो कहा वह अब तक आखिर किसी ने क्यों नहीं कहा । हमारे देश के नेता अब तक इस सच्चाई को विश्व के सामने रखने में कमज़ोर क्यों रहे। हमने 60 साल का कांग्रेस का शासन देखा है तो इतना ही विपक्ष भी देखा है । पता नहीं किस कुर्बानी का डर लगता रहा जो हम लुटेरों को लुटेरा नहीं कह सके ।
अब जब बात शुरू हुई है तो आगे तक जाना चाहिए। थरूर की बात थमें नहीं इस पर वाक़ई डिबेट चलती रहना चाहिए आखिर यह हमारे राष्ट्र की आवाज़ है । अंदाज़ बदलना नहीं चाहिए अपितु सख्त होना चाहिए। चलिए हम सब मिलकर इस आवाज़ को अपनी आवाज़ दें इतनी बुलंदी से क़ि थेम्स नदी का पानी शर्म से काला हो जाए।
सुरेन्द्र बंसल
11.50 23.7.2015

अंदाज़ अपना...................सुरेंद्र बंसल का पन्ना तब हो डॉ कलाम पुनर्जन्म

अंदाज़ अपना...................सुरेंद्र बंसल का पन्ना
तब हो डॉ कलाम पुनर्जन्म
बहुत सी बातें हैं जिसमें कलाम साहब का अपना अंदाज़ था। उन्होंने जिंदगी को अपने ढंग से जिया । हम में बहुत से या यूँ कहें हम सब जीवन यापन करते है मसलन उसे भोगते हैं व्यतीत करते हैं खर्च करते हैं । दरअसल हम जीवन का दर्शन नहीं जानते इसलिए हम केवल अपने लिए जिते हैं लेकिन जो लोग इस दर्शन को समझते हैं वे जीवन को देश ,राष्ट्र और समाज के लिए निवेश कर देते हैं जैसे डॉ एपीजे अब्दुल कलाम साहब ।
मेरा यह पन्ना आज डॉ कलाम साहब का बिरला अंदाज़ बताने के लिए नहीं लिखा जा रहा इसलिए कि आसमां में स्थापित सूरज को देखकर यह नहीं कहा जाता कि देखो सूरज चमक रहा है। मैं आज सिर्फ उन विशिष्ठ लोगों से पूछना चाहता हूँ जो डॉ कलाम साहब की दूरदर्शिता, सहजता, वैज्ञानिकता, महानता आदि के कायल हैं और आज उनकी पार्थिव देह के सामने नतमस्तक खड़े हैं क्या वे देश के इस महान रत्न का अनुसरण करते हैं उनको फॉलो करते हैं ।
ऐसे बहुत से उदहारण हैं जब डॉ कलाम साहब ने रीतियों परम्पराओं से हटकर राष्ट्र ,समाज और जान हित में काम किये । सिर्फ दो उदाहरण देखिये एक-जब राष्ट्रपति बने रोज इफ्तार पार्टियों पर रोक लगाकर इस पर होने वाला व्यय अनाथालय में न केवल खर्च लिया अपितु स्वयं के पास से भी योगदान दिया । दो- राष्ट्रपति रहते हुए जब उनका पूरा कुनबा उनसे मिलने राष्ट्रपति भवन निवास में आया उन्होंने उसका पूरा हिसाब रखा और राष्ट्रपति भवन कार्यालय को इस व्यक्तिगत खर्च के साढे तीन लाख रुपये चुकाए। मेरा सवाल उन लोगो से है जो अतिविशिष्ट हैं डॉ कलाम की तारीफ़ करते नहीं थक रहे हैं क्या उन्होंने कभी डॉ कलाम को फॉलो करने की कोशिश की । नहीं की रोजा इफ्तार और ऐसी ही अनेक पार्टियां आज भी चल रही है, आप देश का पैसा आज भी अपने और अपने लोगों पर खर्च कर रहे हो और भी सैकड़ों बातें आपने अब तक कलाम साहब से नही सीखी हो , उनके जैसे नहीं बने पर उनके जैसे होने का जतन भी नहीं किया हो तो क्यों डॉ कलाम की तारीफ़ करते हो। किसी का गुणवान होना तो अच्छा है ही लेकिन उनके गुणों को अपनाना गुणगान से ज्यादा महत्वपूर्ण और जरुरी है। डॉ कलाम साहब की पार्थिव देह के समक्ष खड़े होकर सारे विशिष्ट भावों के कर्ता यह प्रण कर लें तो यह देश एक साथ कई डॉ कलाम का पुनर्जन्म देख सकता है तब ही आपकी श्रद्धा के सुमन खिल सकेंगें।
सुरेन्द्र बंसल

अंदाज़ अपना ................सुरेन्द्र बंसल का पन्ना जीवन प्रश्न का हल है समाधान नहीं


📝अंदाज़ अपना ................सुरेन्द्र बंसल का पन्ना
जीवन प्रश्न का हल है समाधान नहीं
कुछ लोग कहते हैं वह स्कूल नहीं गए कुछ कहते हैं उनकी शिक्षा पूरी हो गयी और अब वे अपने मन का कार्य कर रहे हैं। मुझे लगता है दोनों गलत है । एक उध्दरण देता हूँ ।शहर की एक नामी संस्था के एक आयोजन में अपन कर्ता थे आयोजन बड़ा था मुख्यमंत्री आये थे एक विधायक महोदय लेट आये फिर भी उनका स्वागत तो होना ही था । अध्यक्ष कुर्सी से उठे नज़रें दौड़ाई स्वागत करने के लिए अच्छा कद ढूंढ रहे थे परेशानी समझ अपन ने पूछ लिया क्या बात है जवाब मिला कुछ नहीं। उनकी नज़रें खोजती रही कोई नहीं मिला जल्दी थी उन्होंने अपने को बुला लिया स्वागत के लिए अपने को बुरा लगा क्योंकि अपन भर्ती में जा रहे थे मन मसोस कर चले तो गए लेकिन यह ठीक नहीं लगा।
जीवन में ऐसा अनेक बार होता है जब किसी का अहम ,किसी का दम्भ और किसी का स्वार्थ सामने होता है और न चाहकर भी आपको उसका भागी होना होता है। इसलिए मुझे लगता है ये जीवन सबसे बड़ी पाठशाला है जिसमे सबक नज़्म का चेप्टर सबसे बड़ा और की क्लिष्ट है । आप एक सबक सीखते हो दूसरा प्रश्न की तरह फिर उपस्थित हो जाता है। इसका दूसरा बड़ा चेप्टर है विरोधाभास । जिसके तत्व कथनी और करनी है । कथनी और करनी में बहुत अंतर आपको मिलेगा। जीवन का तत्व समझाने वाले लोग ही आपको भटकते मिल जाएंगे। विशवास आप ढूंढते रहे नहीं मिलेगा लेकिन भरोसातोड़क तैयार मिलेंगें। झूठ का सच रूप तीसरा बड़ा चेप्टर है जो साबित करता है झूठ कितना सच्चा होता है ।
मान लो भाई यही सब जीवन है बहुत सी बाते हैं फिर कभी विस्तार से कहूँगा लेकिन जीवन एक पाठशाला है जिसकी कक्षाएं सतत चलती है जिसका हर चेप्टर बहुत विस्तृत है कठिन कुछ नहीं है समझ सब आता है पर बेबस है प्रश्न हल तो कर सकते है लेकिन समाधान नहीं निकाल सकते ।इसलिए यह मत सोचिये क़ि आप स्कूल नहीं गए और यह भरम भी मत रखिये क़ि आप बहुत पढ़ लिख गए हैं ।
सुरेन्द्र बंसल (C)
7.55 pm 16.8.2015