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Saturday, May 26, 2012

आखिर कब बदलेगी ये ठगस्वरुपनी राजनीति



पेट्रोल की कीमतों में अप्रत्याशित  वृध्दि से जहाँ सारा देश स्तब्ध है वहीँ राजनैतिक दलों के आचरण पर भी हैरानी हो रही है . आज कोई आवाज़ ऐसी कहीं नहीं है जो आम लोगों के मुद्दे पर सरकार को हिला दे . सरकार ऐसी नहीं है जो आम लोगों के हित के फैसले करे. आम लोग ऐसे नहीं है जो इन लोगो से निबटने और दो चार होने का माद्दा रख  सके .ये   ठगस्वरुपनी राजनीति  है जो चल रही है  .  इसलिए देश में मनमोहन के मनमर्जी की सरकार चल भी रही है और फलफूल भी रही है . यूँ कांग्रेस को इस बात के लिए बधाई दी जाना चाहिए कि पक्ष विपक्ष के तमाम लोग और यहाँ तक कि मीडिया भी उनके स्थापित प्रधानमंत्री को एक ईमानदार प्रधानमंत्री मानता है और आश्चर्यजनक यह भी कि इस सरकार में  तमाम बड़े घोटालों और आरोपों के वाबजूद भी . इससे क्या समझा जाए यह बड़ा मौजूं है .

चूँकि प्रधान मनमोहन हैं इसलिए सरकारी मनमर्जी भी उनकी ही मानी जाना चाहिए लेकिन मौजूं  यह है कि यदि घोटाले है ,आरोप हैं फिर भी वे यदि ईमानदार हैं तो आखिर वे हैं क्या  ? वे आरोपियों को पकड़ नहीं सकते , घोटालों को रोक नहीं सकते , देश में अपनी ईमानदारी को चला नहीं सकते फिर वे आखिर कर क्या सकते हैं ,और कर क्या रहे हैं हैं ? वे इतने असहाय क्यों हैं और नाकाबिल सूबेदार क्यों नज़र आते हैं . क्यों उनका मन मौन ही रहता है और उनका मोहन  राष्ट्र से मोह क्यों नहीं कर रहा है आखिर किस मनमोहिनी के चक्कर में मनमोहन हैं. शायद उनकी मनमोहिनी प्रधानमंत्री बने रहने की है और इसमे वे सफल हो रहे हैं . एक मीडिया चैनल पर कोई महिला चीख कर कह रही थी हमें उम्मीद थी कि ये अर्थशास्त्री प्रधान मंत्री हैं . देश के लिए कुछ करेंगें लेकिन लगता है ये अर्थशास्त्र के फैलुयर स्टूडेंट हैं . देश को सबसे ज्यादा समय तक अपने राज़ में रखने में कामयाब कांग्रेस पार्टी को भी लगता  है उन्हें सबसे काबिल प्रधानमंत्री मिला है , एक ऐसा प्रधान बड़ी मुश्किल से मिलता है जो मनमर्जी से नहीं चलता , जिसकी ईमानदारी का डंका बजता है , जो किसी तरह की राजनैतिक महत्वाकांक्षा नहीं रखता है , न अपनी ताकत बढाता है और न ही किसी को कमज़ोर करता है . इस काबिलियत के चलते ही वे दोबारा प्रधानमंत्री चुन लिए गए ,और हो सकता है कि मौका मिला तो तीसरी बार भी प्रधान हो जांयें .

लेकिन देश के इस हालात पर सिर्फ सरकार ही नहीं देश का हर राजनैतिक दल भी जिम्मेदार है कोई राजनैतिक दल आज आम लोगों के लिए  राजनीति कर रहा हो ऐसा नहीं लगता , इस समय हर कोई अपना राजनैतिक नुकसान बचाने में लगा है सारी कवायदें आम के लिए नहीं आम लोगों के जरिये अपना वजूद अपना ,अस्तित्व, अपनी पहचान और सबसे ज्यादा अपना राजनैतिक नुकसान बचाने की है .देश का सबसे बड़ा विपक्षी दल भाजपा मुंबई में कार्यकारिणी की बैठक कर सरकार पर गुर्रा रही है लेकिन उसे अपनी बैठक में आत्मवलोकन करना चाहिए था. बीते चार पांच सालों में उसने आम लोगो के हित में राष्ट्र हित में कितने मुद्दे उठाये , कितने आन्दोलन प्रदर्शन किये ,कितने मामलों पर सरकार को संसद में घेरा , कितना हंगामा किया उन सबका का क्या अंजाम रहा ,सरकार को कितना झुकाया उससे ज्यादा कितना उसने आम लोगों का साथ दिया , इसका सक्सेस रेट क्या है , राजनीति के शुचि तत्वों से  कितना दूर रहे और क्यों रहे , कैसी राजनीति और कैसे राजनेता हम दे रहे हैं इस पर विचार घर के भीतर होता है लेकिन भाजपा अपनी कार्यकारिणी की बैठक में कोसने की राजनीति कर रही है और इसमे उसके तमाम बड़े नेता शामिल है .यही हाल ममता बनर्जी के तृणमूल की ,वाम दलों की ,एनडीए के घटक दलों की ,यूपीए के दलों की है . कोई राजनैतिक दल आज आम लोगो के साथ नहीं आम लोगों के बहाने अपने नुकसान को बचाने में लगा है .

इसलिए यह जरुरत आन पडी कि कोई आम जन से ऐसा नेता उभरे जो आम लोगों की भावनाओं का नेतृत्व कर सके .इस सोच को अंजाम देने के लिए महाराष्ट्र के सामाजिक नेता अन्ना हजारे को आगे लाया गया , भ्रष्टाचार के मुद्दे पर  जितना हो हल्ला हुआ वह ऐतिहासिक  था , हज़ारों लोग ऐसे ही सड़कों पर नहीं आ जाते तुलना भी यूँ ही गाँधी से नहीं हो जाती  लेकिन यहाँ भी राष्ट्र और लोग ठगा गए . इस आन्दोलन से भी जुड़े लोगों ने  महज़ अपने को स्थापित करने का काम ही किया , सबने अपने को बचाने की कोशिश  की और समझोते कर वापस लौट गए . जैसे आंधी आती है तो लौट भी जाती है उसी तरह यह आन्दोलन लौट गया अब फिर लौटेगा यह आन्दोलन तो क्या पता किस अंजाम तक जायेगा या लौट - लौट कर आता रहेगा .

आम जन भी जितना परिपक्व दीखता है उतना है नहीं . राजनीति की मोहक  चालों में वह फंसता रहा है और पिटता रहा है . राजनीति ने आज लोगों को भी बेदम कर दिया है . ३१ मई को भारत बंद है राजनैतिक दल अपनी ताकत बतायेंगें लेकिन क्या होगा अंजाम , क्या हम फिर ठगे जायेंगें , आखिर कब बदलेगी ये ठगस्वरुपनी राजनीति , जागो भारत जागो !
सुरेन्द्र बंसल
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surendra.bansal77@gmail.com

Friday, May 25, 2012

चलती राह में अकेला कोई साथ मिल जाए तो बात क्या है

चलती राह में अकेला
कोई साथ मिल जाए तो बात क्या है ,
नहीं हो बहाना किसी फहमी का
फिर भी दिल खुश  हो जाए तो बात क्या है ,
जहाँ नहीं हो विश्वास
वहां कोई आस बन जाए तो बात क्या है ,
तनहा में गुजरते हुए
अपनापन कोई दे जाए तो बात क्या है ,
बढ़ते हुए दर्द की
कोई दवा बन जाये तो बात क्या है .
जिंदगी कटती रहे कैसी भी
दिल में सुकून हो तो बात क्या है ,
टूटे चाहे कितने ही रिश्तें
चाहत का एक जोड़ मिल जाए तो बात क्या है .
चलती राह में अकेला
कोई साथ मिल जाए तो बात क्या है ,
सुरेन्द्र बंसल
४;४० शाम २५ मई २०१२




Saturday, May 19, 2012

ये तो लायक ना थे

ये तो लायक ना थे 

देश में बहुत  से ऐसे लोग हैं जो किसी लायकी के नहीं हैं लेकिन  नायक हैं इसलिए लायक हैं , सिरमौर हैं,सबसे ऊपर हैं ,अहम् हैं,और कहीं न कहीं देश का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं .ताज़ा उदाहरण बॉलीवुड किंग कहे जाने वाले शाहरुख़ के उस रुतबे का है जो उन्होंने एक अदने से सुरक्षा कर्मी पर झाडा . वैसे आई पी एल में अकेले शाहरुख़  ही नहीं उनके साथ विवादित कांड में शामिल मुंबई क्रिकेट एसो के पदाधिकारी भी हैं . यह सिर्फ यहीं तक सीमित नहीं है तमाम ओहदेदार जहाँ कहीं अपना रुतबा दिखाते हैं ऐसी ही हरकतें करते हैं , कभी कभी बात शाहरुख़ जैसे मामले तक बिगड़ जाती है .

शाहरुख़ का वानखेड़े विवाद सामयिक घटना है लेकिन हमें ऐसी वारदातों और उसके पीछे बने वलय वाले मामलों में इसे प्रतिनिधित्व घटना  मानना चाहिए . ऐसी तमाम घटनाएं उस दर्जे का नतीजा है जो इस तरह के लोग अनायास ही प्राप्त कर लेते हैं . दरअसल आगे बढ़ते हुए और चढ़ते  हुए  को लोग कुछ ज्यादा ही ऊँचाइयों पर पहुंचा देते हैं . अक्सर वीआयपी कहे जाने वाले जीव तत्वों के साथ ऐसा ही होता है . ये जीवतत्व अपने को  जितना ऊपर देखते हैं उतना ही बड़ा पाते हैं और ऐसे में हर कोई उनसे छोटा हो जाता है .

शाहरुख़ ने वानखेड़े स्टेडियम में जो रौब झाडा वह उसके तमाम फेंस की दी हुई ऊंचाई का नतीजा है , जब भी इज्ज़त बढ़ती है तो रौब- रुआब अपने आप आ जाता है , शाहरुख़ ने अपने अभिनय से वानखेड़े पर दिखा दिया कि रुतबा  क्या होता है  . जरुरी नहीं कि शाहरुख़ इस मामले में दोषी हों हम बात सिर्फ रौब झाड़ने वाले  लोगों की कर रहे है जो उनको मिली शोहरत  से पनपती और उपजती है .दरअसल हर वीआयपी अपनी एक विधा में पारंगत होता है इसीलिए वह नेता होता है ,अभिनेता होता है ,लेखक होता है ,पत्रकार होता है , खिलाडी होता है ,प्रधान होता है , बड़ा होता है और न जाने क्या क्या होता है . पर क्या उसकी एक विधा जिसका वह पारंगत है उसकी तमाम हरकतों को खासियत  और सर्वमान्य बना देती है , नहीं ... पर देश में यही चल रहा है जो जहाँ वीआयपी है अपने को हर विधा का मास्टर समझ लेता है और हर जगह अपने को एक नेतृत्व करने  वाले में स्थापित  कर लेना चाहता है वह आम तो है ही नहीं.... ऐसा क्यों ? 

भाई मैं एक पत्रकार हूँ और उस क्षेत्र के बाहर एक आम नागरिक हूँ यह चेतना हम में क्यों नहीं हैं . जितने और जो नियम  कानून  कायदे आम लोगो के लिए हैं वह सब मुझ पर भी है , मेरी विधा , मेरी पारंगतता  और मेरा पैसा सामाजिक और राष्ट्रीय नियमों को कैसे खरीद सकती है मुझे मेरा दायरा मालूम होना चाहिए ऐसा क्यों नहीं हो रहा है हर वीआयपी अपने को सर्व व्यापी और इतना लायक समझने लगा है कि वह दूसरों के अधिकारों पर अतिक्रमण करने लग  गया है  दरअसल ऐसे लोग ना तो लायक थे और ना लायक हैं . यह समझना जरुरी है .
सुरेन्द्र बंसल 
सुरेंद्रबंसल@जीमेल.कॉम

Wednesday, May 16, 2012

सम्बन्धों की खुशफहमी

 
सम्बन्धों की खुशफहमी में
नहीं रहना ऐ मेरे दोस्त ,
चलती जिन्दंगी में यहाँ
हर कोई अकेला है ,
तेरे आगे-पीछे , दांयें - बाएं
बहुतेरे  लोग हैं
पर सब मुसाफिर हैं यार ,
सब अपने लिए ही जी रहे
और चल रहे हैं ,
इसे कुछ फहमी में
खुश हो जाने का बहाना मत समझ ,
बस कुछ और जी लेने का
रास्ता बनाते चल ,
मंजिल देख तेरी कामयाबी का
रास्ता देख रही है ,
विश्वास देने वाले
बहुत मिल जायेंगें मगर,
पर यह अहसास तुम्हे
अपने अन्दर ही उत्सर्जित करना है ,
अगर तुम्हे मंजिल को पाना है ,
फिर कह रहा हूँ
सम्बन्धों की खुशफहमी में
नहीं रहना ऐ मेरे दोस्त ,
चलती जिन्दंगी में यहाँ
हर कोई अकेला है
 

Sunday, May 13, 2012

वह मेरी माँ है



भगवान  से  कोई  बढकर  है
तो  माँ  है ,
दुःख  में  कहीं  आंसू  है   
तो  माँ  है ,
सुख  में  कहीं  लब पर  मुस्कान  है  
तो  माँ  है ,
जिंदगी  की  कोई  पहरेदार  है  
तो  माँ  है ,
ईमान  की  कोई  इबारत  है  
तो  माँ  है ,
ख़ुशी  का  कहीं  दरिया  है  
तो  माँ  है ,
छुपने  का  कहीं  आँचल  है  
तो  माँ  है 
मंजिल का  कोई  ठिकाना  है  
तो माँ  है ,
डांट  में  भी  प्यार  है  
तो  माँ  है 
दूर  हुए  रिश्तों  का  कोई  जोड़  है  
तो  माँ  है 
बेटा  किसी  के लिए  हीरो  है  
तो  वह  माँ  है 
जो  दुःख  भूल  सुख  बाँटें 
वह  मेरी  माँ  है 
भगवान्  से  जो  बढकर  है  
वह  माँ   है .....
- सुरेन्द्र बंसल 
सित. 2011

Tuesday, May 8, 2012

" APPRECIATION "

जिंदगी का सबसे बड़ा अवार्ड क्या है ? अंग्रेज़ी में एक  शब्द है " APPRECIATION  "
मैं सोचता हूँ यही जिंदगी का सबसे बड़ा अवार्ड है जब कोई आपको तहे दिल से APPRICIATE करे.
आपने कुछ लिखा बहुत से लोग पढ़ लेते हैं ,पर जब कोई कहे की आप हज़ारों लोगो के दिलो की बात लिखते है ,
आपके एक एक शब्द अपने अर्थ को जीवंत महसूस कराते हैं .
आज ऐसे ही मेरे एक FB  मित्र  ने व्यक्तिगत मुलाक़ात में मुझे अपनी अंतर भावनाओं का
यह प्रेम मिठास भरा अवार्ड मुझे प्रदान किया  . यह मेरे लिए अमूल्य तोहफा है ,
एक लेखक क्या चाहता है - 'उसकी सरस्वती की क़द्र हो '
मेरे ब्लोग्स पढ़कर आत्मीय अनुभूति करने वाले समस्त पाठक मित्रों का आत्मीय अभिवादन !

Saturday, May 5, 2012

अपना नहीं राष्ट्र का प्रतिनिधि चुनो भाई !


दो  महीने  में देश का नया राष्ट्रपति चुन लिया जाएगा लेकिन नए राष्ट्रपति को लेकर जो कवायदे की  जा  रही  है  उससे कहीं नहीं  लगता कि राष्ट्रपति के लिए वोट वेल्यू रखने वाली राजनैतिक पार्टियाँ देश का राष्ट्रपति चुनने जा रही हैं . अभी तक जो नाम जिस तरह से सामने आ रहें हैं उनसे लगता हैं हर राजनैतिक दल अपना राष्ट्रपति चुनना चाह रही है . देश में इस तरह का चलन राष्ट्र के प्रति राजनैतिक जिम्मेदारी से दूर हटना है 

दरअसल विधायकों और सांसदों की वोट वेल्यू के आधार पर चुने जाने वाला राष्ट्रपति हमारी वैश्विक राजनीति और कूटनीति की प्रतिष्ठाओं का प्रतिनिधित्व करने वाला होना चाहिए , लेकिनं इस समय जो मांग और नाम चल रहे  हैं उनमे कहीं यह नहीं लग रहा जो कह सके कि यह नाम हमारी आवश्यक प्रतिष्ठाओं के अनुरूप है. अभी नाम चलाने वाले खासकर छोटे और क्षेत्रीय दल जो नाम लेकर आ रहे हैं वे सब अपनी दलगत  राजनीति के स्वार्थ वश ही ला रहे हैं . यहाँ तक कि पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम और उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी के नाम भी उनकी स्थापित प्रतिष्ठाओं  के अनुरूप नहीं उनकी सामाजिक और धार्मिक स्थितियों के अनुसार लिए जा रहे हैं . अब किसी ने यह भी कह दिया है इस बार राष्ट्रपति ईसाई समुदाय से होना चाहिए .

यह देश की विडम्बना है आज सर्वोच्च पद के लिए सर्वोच्च व्यक्तित्व की चाहत और नितान्तता जरुरी नहीं रह गयी है , तुष्टिकरण  के साथ आज राज दलों ने इसे वोट खरीदने का औज़ार बना लिया है क्या देश का राष्ट्रपति राजनैतिक दलों की बखत बढ़ाने का जरिया है ? राष्ट्रपति से तो राष्ट्र की बखत बढ़ना चाहिए. लेकिन अपनी अपनी राग से सभी दल अपना हित साध रहे हैं . क्या हम वाकई धर्म निरपेक्ष हैं ? यह सवाल हमारी धर्मनिरपेक्षता पर स्वयं एक प्रश्न है . क्यों नहीं देश प्रतिष्ठित,सम्मानित ,सर्वथा योग्य पद  पर एक मत से विचार नहीं कर सकता ?
सुरेन्द्र बंसल