सपनेबनते हैं ,दिखते हैं,बिगड़ जाते हैं ,मेरी भीनिन्द्रायी आँखों में ,अँधेरे को चीरकरप्रकाश फैलता है,बनता हुआकुछ दिखता है ,सबेरा होते हीबिगड़ जाता है सब ,जैसे नींदउड़ /बिगड़ जाती है,मूर्छित से पड़ेशरीर में चेतना आ जाती है ,मेरी धरतीपहचानी सी लगती है ,और आकाश भीउतना ही उंचा नज़र आता हैजितना कल था ,लेकिन एक बनता हुआविश्वास कभी बिगड़ता नहीं-सुरेन्द्र बंसलरचित ओक्टोबर ४,२००२
very good
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