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Thursday, June 9, 2011

सपने by Bansal Surendra



सपने
बनते हैं ,दिखते हैं,
बिगड़ जाते हैं ,
मेरी भी
निन्द्रायी आँखों में ,
अँधेरे को चीरकर
प्रकाश फैलता है,
बनता हुआ
कुछ दिखता है ,
सबेरा होते ही
बिगड़ जाता है सब ,
जैसे नींद
उड़ /बिगड़ जाती है,
मूर्छित से पड़े
शरीर में चेतना आ जाती है ,
मेरी धरती
पहचानी सी लगती है ,
और आकाश भी
उतना ही उंचा नज़र आता है
जितना कल था ,
लेकिन एक बनता हुआ
विश्वास कभी बिगड़ता नहीं
-सुरेन्द्र बंसल
रचित ओक्टोबर ४,२००२

1 comment:

thanks for coming on my blog