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Sunday, July 22, 2012

राष्ट्र -पद की सर्वोच्चता


प्रणब  दा रायसीना हिल्स पर चढ़ कर देश के उस शिखर पर पहुँच गए जहाँ से समुचा देश उन्हें अब उठी हुई नज़रों से देखेगा ऐसा इसलिए कि इससे बड़ी  जगह और सम्मान कोई नहीं है . अपने राजनैतिक जीवन  का तप और जप को प्रतिफलित होते वे देख रहे हैं दरअसल राष्ट्रपति पद ऐसे ही तपे हुए लोगों के लिए हो तो लगता है देश ने उन्हें पलट कर उपहार दिया है .विवाद तो हर किसी के जीवन में हैं और व्यक्ति जब सार्वजनिक होता है  तब बहुत सी उंगलियाँ उस तरफ से आती है जो आपको अपनी सजग जिम्मेदारी पर बने रहने की चेतावनियाँ  देती हैं .हो सकता है ऐसा बहुत कुछ प्रणब दा के साथ भी हो पर वे एक कुशल राजनीतिज्ञ और कर्मठ नेता रहें हैं इसलिए आज हम कह सकते हैं यह निर्वाचन योग्यता  की पदस्थापना है.

यूपीए  जो बेहतर दे सकता था वही उसने किया है हालाँकि पूर्णो संगमा भी उतने ही सशक्त थे और अच्छा यह था कि दोनों ही राजनीतिज्ञ थे , इस बार निर्वाचन बेहतर ही होना था और वोटिंग मूल्यों के आधार पर प्रणब दा का मूल्याँकन अधिक था और वे निर्वाचित हो गए . लेकिन यह परंपरा बनना चाहिए की राष्ट्रपति पद जैसे सर्वोच्च पद पर राजनैतिज्ञ व्यक्ति का तप सामने आये जो उसने  सम्पूर्ण राजनैतिक जीवन में खप कर तैयार किया है . राष्ट्रपति होना किसी राजनीतिज्ञ के लिए राष्ट्र की राजनीति से प्रदत्त वह अलंकरण है जो लोकतंत्र के मूल्यों को और अधिक   मज़बूत करता है .

बीते एक दशक में राजनीति जितनी गन्दला गई है उससे यह संशय होने लगा है कि राजनीति अब देश का विशेष नहीं अवशेष होते जा रही है . अच्छे  लोग राजनीति में बचेंगें ही नहीं तो तब इन महत्वपूर्ण पदों पर कौन स्थापित होगा और क्या तब लोकतंत्र की  ऐसी स्थिति हो जाएगी कि लोक के सामने कोई विकल्प ही नहीं बचेगा . यह बहुत चिंतनीय विषय है आखिर लोकतंत्र मजबूरी से चलने वाला तंत्र नहीं होना चाहिए इसकी सशक्त व्यवस्थाएं इसे मजबूत और कारगर बनाने की है और यह तंत्र इन्हीं व्यवस्थाओं के अनुरूप चले इसकी जिम्मेदारी हर राजनीतिज्ञ की है .कैसे हो राजनितिक प्रदूषण  से मुक्ति  इसके प्रयास राष्ट्रपति निर्वाचन के साथ ही शुरू हो जाना चाहिए . अब वक़्त सिर्फ प्रतिस्पर्धात्मक  राजनीति का ही  नहीं स्वस्थ और राष्ट्रानुरूप व्यवस्थाओं के प्रतिमान बनाने का भी है .

दरअसल राज़ करने के उपाय बनाते हुए हर राजनैतिक दल आज अपनी उपस्थिति को सैध्दांतिक नहीं रखते  हुए समझौते और शर्तों  के आधार पर चला रहे हैं यह परिस्थिति बना दी  गयी है जो राजनैतिक विकेंद्रीकरण हम देख रहे है वह लोकतंत्र की बेहतरी का नहीं सत्ता में  बने रहने का है .इसलिए चिंता और चिंतन दोनों जरुरी है . राजनीति से बिदाई के साथ प्रणब दा रायसीना हिल्स पर इन तमाम विषयों पर चिंतन कर सकते हैं और अनौपचारिक चर्चा कर उन सभी से यह चिंता भी जाता सकते हैं की अब आखिर राजनीति कैसे चले . राष्ट्रपति पद संवैधानिक पद है जहाँ राजनीति का कोई स्थान नहीं है , लेकिन राजनीति  इस देश के संविधान के संरक्षण और संचालन के लिए है  . चिंताएं राष्ट्रपति की भांति भले न कर सके एक लोकपति की भांति कर अपनी नेक अहमियत से कुछ शुधि का प्रयास तो किया ही जा सकता है .यह पद  सिर्फ बड़े बह्वन में रहने और वैदेशिक दौरों के इस  आनंद का ही नहीं है यह प्रणब दा अच्छा समझते हैं और इस पद से राष्ट्र की सर्वोच्चता कैसे बनी रहे यह चिंता जरुर होना चाहिए आखिर यह सर्वोच्च राष्ट्र-पद है.
सुरेन्द्र बंसल 
blogspot.com/anna ka sapna sabka apna

2 comments:

  1. main apse poori tarah sahmat hun bhaiya. yaha sarvochch pad hai ..iska majak nahi bananaa chahiye .

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thanks for coming on my blog