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Sunday, September 2, 2012

फांसी का बेहतर विकल्प




नरोदा पाटिया के दंगों पर कोर्ट  ने जो सजा मुक्कमल की है उससे जाहिर होता है दंगे कितने भयावह थे . जरा विचार करें कि माया कोदनानी और बाबू बजरंगी की सजा तय करते वक़त  माननीय न्यायाधीश के मन  में  किस तरह की भावनाएं आ रही होंगीं , किस तरह वे इंसानियत को तार तार होते देख उद्वेलित हुए होंगें .आखिर माया कोदनानी को २८ साल और बाबू बजरंगी को मरते दम तक जेल में पड़े रहने की सजा सुनाई गयी है . यह सजा फांसी से कम नहीं है हालाँकि कोर्ट ने माना है कि दुनिया के देशों में फांसी की सजा को इंसानियत की खातिर छोड़ा जा रहा है इसलिए वे भी फांसी सुनाने के पक्ष में नहीं है . 

दरअसल "फांसी" को किसी सजा का अंतिम छोर माना गया है ,जब कोई  क्रूरता इतनी भयावह हो कि कोई सजा उसके मियाद में नहीं आये तो फांसी ही एक मात्र विकल्प होती है . अक्सर फांसी की सजा को दया पर लंबित छोड़ दिया जाता है याने वह क्रूरतम व्यक्ति जिसने कोई दयाभाव और इंसानियत नहीं रखी हो वह इंसानियत की खातिर खुद दया की चाहत रखता है . राष्ट्रपति  के पास ऐसी बीसियों याचिका लंबित है जिसमें अफजल गुरु और कसाब जैसे तमाम लोग हैं .जो इनके कृत्य हैं उन पर  अदालत ने फांसी याने अधिकतम सजा मुक़र्रर  की है. कई मामले ऐसे होते हैं जब दया पर छोड़ना होता है लेकिन अदालत कोई इंसान नहीं है वह न्याय की ऐसी संस्था है जिसे भावनाओं को दूर रखकर आँखों पर पट्टी बांधकर न्यायिक दृष्टि से फैसला करना होता  है. फांसी सुनाते  वक़्त अपराधी के दुष्कर्म ही जज के सामने होते हैं .

फिर भी "फांसी " की सजा को इंसानियत का दुश्मन माना गया है और दुनिया के तमाम देशों में यह चल पड़ा है कि यह सजा ख़त्म होना चाहिए .इस सजा जिसका अर्थ मौत है उसे सुनाने के लिए सिर्फ मज़बूरी ही होती है .इंसानियत की खातिर इस सजा को छोड़ा जा रहा है . कई कट्टर देशों में पत्थर मारने, गोली मारने और सरे राह फांसी  दिए जाने का भी प्रावधान है.  लेकिन अब सौ से ज्यादा देश ऐसी क्रूर सजा को छोड़ चुके हैं वैसे भी जिसे फांसी होने को होती है उसके लिए यह त्रास उतना ही होता जबतक फांसी नहीं दी जाती जबकि उसे यह संताप और त्रास लम्बे समय तक होना चाहिए .

इसलिए नरोदा पाटिया दंगों पर विशेष अदालत का  फैसला फांसी की अमानवीयता पर इंसानियत की नज़र से किया गया सटीक फैसला है . गौर करें अदालत के उस फैसले पर जिसमे बाबू बजरंगी को कोर्ट ने दोषी मानते हुए कहा  है कि बजरंगी दंगाईयों का सरगना था .इसने कानून का मखौल बना दिया उसका गुनाह इतना बड़ा है कि उसके केस में आजीवन कारावास की सजा जेल में प्राकृतिक मृत्यु हो जाने तक है .दरअसल माया कोदनानी ५७ साल की है औरबाबू बज़रंगी ४७ साल के इन दोनों की सज़ा बनी रही तो इन्हें ता -उम्र जेल में ही रहना पड़ेगा . अदालत चाहती तो इन दोनों को फांसी की सज़ा सुना सकती थी लेकिन अदालत ने फांसी की सज़ा का बेहतर विकल्प ढुंढ लिया और उसे आजीवन कारावास से बढकर सज़ा सुनाई जो तारीफ -ए-काबिल है .कोई आजीवन सजा से १४ साल में जेल से बाहर आ जाए इससे बेहतर है उसे पूरी सजा मिले ,पूरा जीवन मिले और अपने कर्म पर पश्चाताप यह सोच कर करता और जीता रहे कि काश में यह दुष्कृत्य नहीं करता तो तो नैतिक पारिवारिक जीवन अपनों के साथ जीता . फांसी का इससे बेहतर कोई विकल्प नहीं हैं .

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