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Saturday, February 9, 2013

जय राज़-तत्व की नहीं निहित राष्ट्र-तत्व की होना चाहिए



अफजल को फांसी से  चौतरफा एक अजीब सा माहौल है , मीडिया ने इसे एक त्यौहार बना दिया ,जश्न बना दिया है। लोग इसे एक खबर की तरह देख रहे हैं लेकिन जैसा उनके समक्ष परोसा जा रहा है वह किसी उत्सव से कम नहीं है . यह शांति का समय है इसे महज आत्मिक शांति की तरह ही लिया जाना चाहिए . जहाँ 13 दिस .2001 को  हमारे मुल्क की हिफाजत के लिए लगे सुरक्षाकर्मियों ने अपनी शहादत  से  एक बड़ी साजिश को नाकाम किया . इन अमर शहीदों को देर से ही सही लेकिन गौरवपूर्ण अंतिम सलाम अब मिला है . शांत भाव से उन अमर जवानो का स्मरण करने  और उन पर गर्व करने का वक्त  है .

सोचिये , एक आतंकवादी को फांसी  देना किस तरह का कर्म है . यह कर्म है राष्ट्र के प्रति , उसकी सार्वभौमिकता के प्रति ,उसके स्वाभिमान के प्रति ,उसके संविधान के प्रति अपने  नैतिक दायित्व को पूर्ण करना। अफजल गुरु ने कोई बन्दूक नहीं उठाई, गोली नहीं चलाई , बम नहीं फेंके लेकिन उसने इससे भी बड़ा दुष्कर्म किया। उसने साज़िश रची , हमले के लिए उकसाया , ऐसी योजना तैयार की कि राष्ट्र को झकझोर सके ,कमज़ोर कर सके और  आतंक से देश के भीतर संवैधानिक परिस्थितियों को छिन्नभिन्न कर सके . इसलिए राष्ट्र के साथ गद्दारी और साज़िश करने वाले का यही अंजाम होना चाहिए . अफजल गुरु ने खुदा की दी काबिलियत को नापाक इरादों से साजिश गढ़ने में लगाया उन लोगो का साथ निभाया जो उसे खरीद सकते थे . हालाँकि बुकर प्राइज विनर अरुंधति रॉय समेत तथाकथित बुद्धिजीवी इस पक्ष में नहीं थे कि  मो अफज़ल को फांसी दी जाए लेकिन जो राष्ट्र का मान करते हैं उसे सर्वोच्च मानते हैं वे कुकृत्यों के व्यक्तियों के लिए क्षमादान की बात नहीं करेंगें .

इसलिए एक फ़र्ज़ पूरा हुआ राष्ट्र के प्रति उस कर्तव्य का जिसे किया जाना नैतिक दायित्व था उन उत्तरदायित्वों के लिए जिन्हें लोकतंत्र ने इस विश्वास से जिम्मेदारी सौंपी थी कि जब भी राष्ट्र की सार्वभौमिकता, स्वाभिमान और रक्षा की बात होगी वे त्वरित कदम उठाएंगें . इस मसले में देर हुई है लेकिन अंधेर नहीं हुई  राष्ट्र का मान रह गया , शहीदों  का मान रह गया और नापाक इरादों वाली दुनिया ने देख लिया भारत कोई कमज़ोर राष्ट्र नहीं है .कसाब के बाद अफज़ल, यह सिलसिला चलते रहे और हर कोई नापाक इस सख्त सजा का हक़दार बने यह प्रक्रिया तब तक चलती रहना चाहिए जब तक हमलवार आतंकियों  के इरादे नेस्तनाबूत नहीं हो जाते .

एक बार यह फिर भी सोचा जा सकता है राजनीति नहीं है तो फिर क्या नीति है . किस तरह की रीति  है कि  एक अपराधी सालों साल तक कोर्ट की सजा मिलाने के बावजूद जेल में मेहमान की तरह रहता है और बाहर बहस चलती है कि उसे क्षमादान दिया जाए या नहीं . आखिर इस लेतलाली की नीति क्या है क्या वाकई  इसमे कोई राज़ है . दिख तो यही रहा है . यदि आप अपने घाव भरने के लिए ऐसे कदम उठा रहे हैं तो ठीक नहीं है आपकी जिम्मेदारी राष्ट्र के घाव भरने की है . किसी तरह की रिपेयरिंग  करना अपना स्वहित करना है, ऐसे मामले स्वहित के नहीं राष्ट्र हित के होते हैं . अफज़ल को फांसी जल्दी होती तो उसमें निहित राष्ट्र हित स्वत; नज़र आता, देर ने इस राष्ट्र तत्व को धुंधला दिया है और उसमें  से राज़ तत्व की बू आने लगी है . राष्ट्र के नीति निर्धारक तत्वों को अपनी नीति साफ़ स्वच्छ और त्वरित रखना चाहिए .
 
मीडिया ने नीति त्वरित रखी  है और वह इसे भुना रहा है 24 घंटे के काम की तरह फ़िज़ूल की गपशप करके वह दिखा रहा है कि  कैसे वह राष्ट्र के लिए काम कर रहा है ऐसे में वो एक अपराधी को हीरो बनाने की चूक कर रहा है  बहस से इसे जटिल कुटिल बना रहा है यह मेरा अपना मीडिया है जिसने  प्रोफेशनल होने के बाद अपनी बुद्धि और विधा को ताक पर रख दिया है . असंगत शो के ज़रिये और विश्लेषणों - इतिहास के ज़रिये जिस तरह का कवरेज़ हो रहा है वह ऐसी अन्धगति  है जिससे राष्ट्र आहत हो रहा हो , एक सद्समझ कब उपजेगी .यह मीडिया का राजतत्व है .जय राज़-तत्व की  नहीं निहित  राष्ट्र-तत्व  की होना चाहिए 
सुरेन्द्र बंसल 

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