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Monday, January 30, 2012

जिंदगी- एक राह


by Surendra Bansal on Monday, January 30, 2012 at 4:51pm

"खोपड़ियाँ अलग अलग चलती है ,
जिंदगी की इन उलझी राहों में ,
मुकाम उसे ही मिलता है ,
जो हो भाग्य की बाँहों में
भाग्य कोई बना नहीं सकता
होने को कर्म कोई रोक नहीं सकता ,
ठोकरें खाते हुए जिंदगी तो
खिसकती ही रहती है,
कभी अन्दर तक सिसकती ,
कभी अन्दर से दहकती
कभी बाहर से बहकती
फिर भी अपनी ही खोपड़ी से
उलझी हुई राहों पर बढती हुई जिंदगी "
सुरेन्द्र बंसल
संध्या ४.४५, दिन सोमवार, ३० जन.२०12

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