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Thursday, October 1, 2015

परोपकार ...कितना और कैसा!

परोपकार ...कितना और कैसा!
कितना अच्छा लगता है शब्द ,नेक भाव को प्रचारित करता हुआ। जहाँ भी परोपकार है कोई सहायक है कोई नेक है कोई नियति है कोई सुविचार है तो कोई अपना है कुल मिलाकर इंसानियत है इंसानों के लिए।
हमें बहुतेरे लोग मिल जाते हैं जो इंसानियत के लिए ही आगे आते हैं पर ऐसे लोगों की भागीदारी सीमित होती है अपनी अपनी हैसियत अनुसार। यह ठीक है जितना भी आये लेकिन स्वविवेक से आये तो परोपकार का मायना बढ़ जाता है ।
परोपकार कई बार एकाएक होता है ,अचानक ही कोई एक या कुछेक मिलकर कूद पड़ते है परोपकार के लिए,ये बड़े उदार दिल नज़र आते हैं, अच्छे माल के मालिक होते हैं जब तब और खास समय पर परोपकार करते रहते हैं, लेकिन मुझे ऐसे लोगों में परोपकार का सच्चा भाव नज़र नहीं आता है। दरअसल इन लोगों में एक स्वाभाविक स्व भाव होता है जो पेशागत परिप्रेक्ष्य में एकाएक नज़र आता है ,मैं सोचता हूँ तब पर -उपकार नहीं होता स्व-उपकार होता है और भी यह परोपकार के रूप में परिलक्षित होता है।
सावधान आपको ही रहना है ,किसी की टूटी टांग देखकर सहायता के लिए आतुर हो जाना परोपकार है और किसी की टूटी टांग देखकर किसी के कहने पर परोपकार्य के लिए प्रेरित होना पूर्ण परोपकार्य नहीं हैं इसमें कुछ घालमेल की संभावना होती है। देखो भाई परोपकारी होना पुण्य का काम है लेकिन परोपकार्य से स्व कार्य का टिकट खरीदना पाप है । आगे फिर कभी...
सुरेन्द्र बंसल
5.00pm 25 .5.15

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