खबरदार बेखबर!
बहुत सारी आशाओं को बीते साल अलग धाराओं से बहते हुए समन्वित दरिया बनते इस देश ने देखा था। इन आशाओं का समन्दर इन पल्लवित धाराओं के एकीकृत प्रयास से भरा गया इस उम्मीद के साथ कि समंदर जब उफान लेगा और बढ़ती उमस के साथ जब वाष्पित होगा तो जनमानस को तरबतर कर देगा ,उम्मीदों को सींच कर मुस्कुराहटों की ऐसी नई फसल तैयार कर सकेगा जो अब तक की आशाओं आकांक्षाओं से ऊपर सफलता और विकास का नया प्रतिमान भी स्थापित करेगा ।
एक साल के भीतर इस कृषि प्रधान देश में किसी भिन्न भिन्न फसल के दो या तीन चक्र होते हैं । इस हम रबी और खरीब तो नाम देते ही हैं बीच के समय भी कुछ बो लेते हैं। मुझे नहीं लग रहा अब तक जो बोया गया कितना सींचा गया ,कितना फलित हुआ ,कितना काटा गया । फसल के घाटे से किसान मर रहा है लेकिन बरसों से तिल तिल कर मर रहा आमजन ,आम मतदाता अब भी इस लोकतंत्र की धरती पर उम्मीदों को फलित होते नहीं देखेगा तो शायद यह मतदाताओं की आत्महत्या का कारक होगा। लेकिन हर खबरदार अब भी बेखबर हैं एक साल बीत चुका है।
सुरेन्द्र बंसल
3:35 13.5.2015
एक साल के भीतर इस कृषि प्रधान देश में किसी भिन्न भिन्न फसल के दो या तीन चक्र होते हैं । इस हम रबी और खरीब तो नाम देते ही हैं बीच के समय भी कुछ बो लेते हैं। मुझे नहीं लग रहा अब तक जो बोया गया कितना सींचा गया ,कितना फलित हुआ ,कितना काटा गया । फसल के घाटे से किसान मर रहा है लेकिन बरसों से तिल तिल कर मर रहा आमजन ,आम मतदाता अब भी इस लोकतंत्र की धरती पर उम्मीदों को फलित होते नहीं देखेगा तो शायद यह मतदाताओं की आत्महत्या का कारक होगा। लेकिन हर खबरदार अब भी बेखबर हैं एक साल बीत चुका है।
सुरेन्द्र बंसल
3:35 13.5.2015

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